ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
ऋ॒भु॒तो र॒यिः प्र॑थ॒मश्र॑वस्तमो॒ वाज॑श्रुतासो॒ यमजी॑जन॒न्नरः॑। वि॒भ्व॒त॒ष्टो वि॒दथे॑षु प्र॒वाच्यो॒ यं दे॑वा॒सोऽव॑था॒ स विच॑र्षणिः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒भु॒तः । र॒यिः । प्र॒थ॒मश्र॑वःऽतमः । वाज॑ऽश्रुतासः । यम् । अजी॑जनन् । नरः॑ । वि॒भ्व॒ऽत॒ष्टः । वि॒दथे॑षु । प्र॒ऽवाच्यः॑ । यम् । दे॒वा॒सः । अव॑थ । सः । विऽच॑र्षणिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋभुतो रयिः प्रथमश्रवस्तमो वाजश्रुतासो यमजीजनन्नरः। विभ्वतष्टो विदथेषु प्रवाच्यो यं देवासोऽवथा स विचर्षणिः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठऋभुतः। रयिः। प्रथमश्रवःऽतमः। वाजऽश्रुतासः। यम्। अजीजनन्। नरः। विभ्वऽतष्टः। विदथेषु। प्रऽवाच्यः। यम्। देवासः। अवथ। सः। विऽचर्षणिः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे देवासो ! ये वाजश्रुतासो नरो यमजीजनन्त्स विभ्वतष्टो विदथेषु प्रवाच्यः स्यात्। तेनर्भुतः प्रथमश्रवस्तमो रयिः प्राप्येत तं यूयमवथ स विचर्षणिर्भवेत् ॥५॥
पदार्थः
(ऋभुतः) ऋभूणां सकाशात् (रयिः) श्रीः (प्रथमश्रवस्तमः) अतिशयेन प्रथमः श्रवः श्रवणमन्नं वा यस्मात् सः (वाजश्रुतासः) वाजं विज्ञानं श्रुतं यैस्ते (यम्) (अजीजनन्) जनयन्ति (नरः) नायकाः (विभ्वतष्टः) यो विभुषु पदार्थेष्वतष्टोऽविचक्षणः सः (विदथेषु) विज्ञापनीयेषु व्यवहारेषु (प्रवाच्यः) प्रवक्तुं योग्यः (यम्) (देवासः) विद्वांसः (अवथ) रक्षथ (सः) (विचर्षणिः) सर्वद्रष्टव्यद्रष्टा मनुष्यः ॥५॥
भावार्थः
त एव विद्वांस उत्तमा ये विद्यार्थिनो विदुषः कुर्वन्ति। त एवाध्यापनीया उपदेष्टव्या ये पदार्थविद्याविरहाः स्युस्त एव सुखिनो भवन्ति ये विद्याश्रियौ प्राप्य धर्मात्मानो भवेयुः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देवासः) विद्वानो ! जो (वाजश्रुतासः) विज्ञान के सुननेवाले (नरः) नायकजन (यम्) जिसको (अजीजनन्) उत्पन्न करते हैं (सः) वह (विभ्वतष्टः) व्यापक पदार्थों में नहीं पण्डित अर्थात् उनको नहीं जाननेवाला (विदथेषु) जनाने योग्य व्यवहारों में (प्रवाच्यः) कहने के योग्य होवे इससे (ऋभुतः) बुद्धिमानों के समीप से (प्रथमश्रवस्तमः) अत्यन्त प्रथम श्रवण वा अन्न जिससे वह (रयिः) धन प्राप्त होवे और (यम्) जिसकी आप लोग (अवथ) रक्षा करते हो वह (विचर्षणिः) सम्पूर्ण देखने योग्य पदार्थों को देखनेवाला मनुष्य होवे ॥५॥
भावार्थ
वे ही विद्वान् उत्तम हैं कि जो विद्यार्थियों को विद्वान् करते हैं, उन्हीं को पढ़ाना और उपदेश देना चाहिये जो पदार्थविद्या से रहित होवें, वे ही सुखी होते हैं, जो विद्या और धन को प्राप्त होकर धर्मात्मा होवें ॥५॥
विषय
प्रथमश्रवस्तम रयि
पदार्थ
[१] (ऋभुतः) = ज्ञानदीप्त आचार्यों से प्राप्त होनेवाला (रयिः) = ज्ञानैश्वर्य (प्रथमश्रवस्तमः) = [ प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तृत यश का कारण बनता है [श्रवस्-glory ] । यह ज्ञानैश्वर्य वह है, (यम्) = जिसको (वाजश्रुतासः) = शक्ति व त्याग के कारण प्रसिद्ध (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोग (अजीजनन्) = अपने अन्दर उत्पन्न करते हैं। विद्यार्थी को, [क] शक्ति का संचय करना चाहिए, [ख] त्याग की वृत्तिवाला होना चाहिए, [ग] उन्नतिपथ पर बढ़ने की भावनावाला होना चाहिए [progressive] [२] (विभ्वतष्टः) = विभ्वा से बना हुआ-विशाल हृदयवाले पुरुष से बनाया हुआ यह शरीर रथ (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (प्रवाच्यः) = प्रशंसनीय होता है, अर्थात् हृदय की विशालता होने पर शरीर रथ ऐसा सुन्दर बनता है कि यह ज्ञानप्राप्ति में अतिशयेन उत्तम होता है । [३] हे (देवास:) = देवो! (यं अवथ) = जिसका आप रक्षण करते हैं, (सः) = वह (विचर्षणिः) विशेषरूपेण द्रष्टा होता है, अर्थात् उसकी बुद्धि इस प्रकार सूक्ष्म बनती है कि वह सब वस्तुओं के तत्त्व को देखनेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम शक्ति का संयम करते हुए प्रगति की वृत्तिवाले बनकर ज्ञानदीप्त आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करें। विशाल हृदय बनकर शरीर को ऐसा बनाएँ कि यह ज्ञानप्राप्ति में अत्यन्त अनुकूलतावाला हो ।
विषय
वेद नामक ज्ञान का वर्णन । उसके रक्षा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(वाजश्रुतासः) ज्ञान को श्रवण करने वाले और अन्नादि ऐश्वर्यों से प्रसिद्ध होने वाले विद्वान् एवं वीर (नरः) नायक, अग्रगण्य (यम्) जिस ऐश्वर्य को (अजीजनन्) उत्पन्न करते हैं वह (रयिः) ऐश्वर्य (ऋभुतः) महान् सत्य ज्ञान से प्रकाशित गुरु वा प्रभु से प्राप्त होकर (प्रथमश्रवस्तमः) सबसे श्रेष्ठ और सबसे उत्तम श्रवण करने योग्य वेद है । (सः) वह वेदाख्य ज्ञान (विचर्षणिः) विविध गूढ़ रहस्य को दिखाने वाला है । (यं) जिसको हे (देवासः) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (अवथ) रक्षा करते हो और वह (विभ्वतष्टः) विशेष-सामर्थ्यवान् पुरुषों वा व्यापक परमेश्वर द्वारा प्रकट किया है । और (विदथेषु) यज्ञों और ज्ञान प्राप्ति के अवसरों पर (प्र-वाच्यः) गुरु द्वारा शिष्यों के प्रति प्रवचन द्वारा उपदेश करने योग्य होता है । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः- १, ६, ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ विराट् जगती । ७ जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्यार्थ्यांना विद्वान करतात. तेच विद्वान उत्तम असतात. जे पदार्थविद्या जाणत नाहीत त्यांनाच अध्यापन व उपदेश करावा. जे विद्या व धन प्राप्त करून धर्मात्मा बनतात तेच सुखी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The wealth most meritorious, received through the Rbhus, that which is created by the most famous and dynamic leaders, that which is created by the world famous Rbhus themselves, the person wide awake and perceptive whom the wise and generous divinities protect and promote: this is worthy of honour and celebration at public assemblies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of technology is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The man whom highly learned leading truthful persons prepare and who knows much about the Omnipresence of God and other eternal subtle things, is fit to be taught. It is from that wise man that most illustrious wealth including the food grains and good reputation etc. are obtained. He whom your wise men protect becomes true observer of all the important things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those are good scholars who make their students highly learned. Those persons are to be taught and preached, who are ignorant of the true nature of things. They enjoy happiness having achieved the knowledge and wealth and are righteous.
Foot Notes
(प्रथमश्रवस्तमः ) अतिशयेन प्रथमं श्रवः श्रवणमन्नं वा यस्मात् सः। श्रव इत्यन्ननाम श्रयते इति सतः यशो वा तस्मादेव कारणात् । = Most illustrious, wealth consisting of food grains and good reputation etc. (विभ्वतष्टः ) यो विभुषु पदार्थेष्वतष्टोऽविचक्षणः सः । = He who is not well aware of the Omnipresent God and other all pervading subtle things.
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