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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    हि॒र॒ण्यये॑न पुरुभू॒ रथे॑ने॒मं य॒ज्ञं ना॑स॒त्योप॑ यातम्। पिबा॑थ॒ इन्मधु॑नः सो॒म्यस्य॒ दध॑थो॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्यये॑न । पु॒रु॒भू॒ इति॑ पुरुऽभू । रथे॑न । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । या॒त॒म् । पिबा॑थः । इत् । मधु॑नः । सो॒म्यस्य॑ । दध॑थः । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । जना॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्ययेन पुरुभू रथेनेमं यज्ञं नासत्योप यातम्। पिबाथ इन्मधुनः सोम्यस्य दधथो रत्नं विधते जनाय ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्ययेन। पुरुभू इति पुरुऽभू। रथेन। इमम्। यज्ञम्। नासत्या। उप। यातम्। पिबाथः। इत्। मधुनः। सोम्यस्य। दधथः। रत्नम्। विधते। जनाय ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे पुरुभू नासत्याऽश्विनौ ! युवां हिरण्ययेन रथेनेमं यज्ञमुपयातं मधुनः सोम्यस्य रसं पिबाथो विधते जनाय रत्नं दधथस्तावित्सुखिनौ कथं न भवेतम् ॥४॥

    पदार्थः

    (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मयेन सुवर्णाद्यलङ्कृतेन (पुरुभू) यो पुरून् भावयतस्तौ (रथेन) यानेन (इमम्) (यज्ञम्) अध्यापनाऽध्ययनाख्यम् (नासत्या) सत्याचरणावध्यापकोपदेशकौ (उप) (यातम्) (पिबाथः) पिबतम् (इत्) एव (मधुनः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (सोम्यस्य) सोमेषु भवस्य (दधथः) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विधते) पुरुषार्थं कुर्वते (जनाय) मनुष्याय ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये विद्याप्रचारकाः स्युस्त एव जगत्सुखकरा भवेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पुरुभू) बहुतों की भावना कराने और (नासत्या) सत्य आचरणवाले अध्यापक और उपदेशक जनो ! आप दोनों (हिरण्ययेन) ज्योतिर्मय और सुवर्ण आदि से शोभित (रथेन) वाहन से (इमम्) इस (यज्ञम्) पढ़ाने और पढ़ने रूप यज्ञ को (उप, यातम्) प्राप्त होओ और (मधुनः) मधुर आदि गुणों से युक्त (सोम्यस्य) सोमलतारूप ओषधियों में उत्पन्न पदार्थ के रस का (पिबाथः) पान करो और (विधते) पुरुषार्थ को करते हुए (जनाय) मनुष्य के लिये (रत्नम्) सुन्दर धन को (दधथः) तुम धारण करते हो वे दोनों (इत्) ही सुखी कैसे न होओ ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो शिल्पविद्या के प्रचार करनेवाले हों, वे ही संसार के सुख करनेवाले होवें ॥४॥

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    विषय

    हिरण्यय रथ

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुभू) = [पृ पालनपूरणयोः] पालक व पूरक होते हुए (नासत्या) = अश्विनी देवोप्राणापानो! आप (हिरण्ययेन रथेन) = ज्योतिर्मय शरीररथ से (इमं यज्ञम्) = हमारे इस जीवनयज्ञ को (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होओ। आपकी साधना से हमारा यह शरीर-रथ ज्योतिर्मय व तेजस्वी बने। इसके द्वारा हम जीवनयज्ञ को सुन्दरता से पूर्ण करनेवाले हों। [२] हे प्राणापानो! आप (इत्) = निश्चय से (सोमस्य मधुन:) = इस सोम सम्बन्धी मधु का (पिबाथ:) = पान करते हो । सोम को शरीर में ही सुरक्षित करते हो । हे प्राणापानो! आप (विधते जनाय) = परिचर्या करनेवाले उपासक मनुष्य के लिए (रत्नं दधथः) = रमणीय वस्तुओं को धारण करते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शरीररथ ज्योतिर्मय व तेजस्वी बनता है, सोम का रक्षण होता है तथा शरीर में सब रत्नों का धारण होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे शिल्पविद्येचे प्रचारक असतात तेच जगात सुख देणारे असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, twin powers of the Divine, universal of form and presence, ever constant in thought and action, come by the golden chariot to join this yajna of ours, drink of this honey sweet of the soma of success and bring the jewels of wealth for the supplicant people of action and endeavour.

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