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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स्व॒ध्व॒रासो॒ मधु॑मन्तो अ॒ग्नय॑ उ॒स्रा ज॑रन्ते॒ प्रति॒ वस्तो॑र॒श्विना॑। यन्नि॒क्तह॑स्तस्त॒रणि॑र्विचक्ष॒णः सोमं॑ सु॒षाव॒ मधु॑मन्त॒मद्रि॑भिः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽअ॒ध॒रासः॑ । मधु॑ऽमन्तः । अ॒ग्नयः॑ । उ॒स्रा । ज॒र॒न्ते॒ । प्रति॑ । वस्तोः॑ । अ॒श्विना॑ । यत् । नि॒क्तऽह॑स्तः । त॒रणिः॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । सोम॑म् । सु॒साव॑ । मधु॑ऽमन्तम् । अद्रि॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वध्वरासो मधुमन्तो अग्नय उस्रा जरन्ते प्रति वस्तोरश्विना। यन्निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणः सोमं सुषाव मधुमन्तमद्रिभिः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽअध्वरासः। मधुऽमन्तः। अग्नयः। उस्रा। जरन्ते। प्रति। वस्तोः। अश्विना। यत्। निक्तऽहस्तः। तरणिः। विऽचक्षणः। सोमम्। सुसाव। मधुऽमन्तम्। अद्रिऽभिः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अश्विना ! यथा प्रति वस्तोः स्वध्वरासो मधुमन्तोऽग्नय उस्रा जरन्ते यद्यो निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणोऽद्रिभिर्मधुमन्तं सोमं सुषाव ताँस्तञ्च युवां साध्नुतम् ॥५॥

    पदार्थः

    (स्वध्वरासः) सुष्ठ्वध्वराः क्रियायोगसिद्धयो येभ्यस्ते (मधुमन्तः) मधुरादिरसोपेताः (अग्नयः) पावकाः (उस्रा) रश्मीन्। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (जरन्ते) स्तुवन्ति (प्रति) (वस्तोः) दिनस्य (अश्विना) राजाऽमात्यौ (यत्) यः (निक्तहस्तः) शुद्धहस्तः (तरणिः) दुःखेभ्यस्तारकः (विचक्षणः) अतीव धीमान् (सोमम्) ओषधिसमूहम् (सुषाव) सुनोति (मधुमन्तम्) मधुरादिगुणोपेतम् (अद्रिभिः) मेघैः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं शिल्पिनां विदुषां सङ्गेनाऽग्न्यादिसोमलतादीन् पदार्थान् विज्ञाय सम्प्रयोज्याऽभीष्टानि कार्य्याणि साध्नुत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) राजा और मन्त्री जनो ! जैसे (प्रति, वस्तोः) प्रतिदिन की (स्वध्वरासः) उत्तम प्रकार क्रियायोगों की सिद्धियाँ जिनसे वे (मधुमन्तः) मधुर आदि गुणों से युक्त (अग्नयः) अग्नि (उस्रा) किरणों की (जरन्ते) स्तुति करते अर्थात् उन्हें प्रशंसित करते हैं और (यत्) जो (निक्तहस्तः) शुद्ध हाथों युक्त (तरणिः) दुःखों से पार करनेवाला (विचक्षणः) अत्यन्त बुद्धिमान् (अद्रिभिः) मेघों से (मधुमन्तम्) मधुर आदि गुणयुक्त (सोमम्) ओषधियों के समूह को (सुषाव) उत्पन्न करता है, उन और उसको आप दोनों सिद्ध करो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग शिल्पी विद्वानों के सङ्ग से अग्नि आदि और सोमलता आदि पदार्थों को जान के और अच्छे प्रकार प्रयोग करके अभीष्ट कार्य्यों को सिद्ध करो ॥५॥

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    विषय

    निक्तहस्त, तरणि व विचक्षण

    पदार्थ

    [१] (स्वध्वरासः) = उत्तम यज्ञमय जीवनवाले, (मधुमन्तः) = माधुर्ययुक्त स्वभाववाले, (अग्नयः) = प्रगतिपथ के पथिक लोग (प्रतिवस्तोः) = प्रतिदिन (उस्त्रा) = दीप्तिवाले [Bright, Shining] अथवा प्रातः काल के साथ सम्बद्ध [relating to morning] इन (अश्विना) = प्राणापान को जरन्ते स्तुत करते हैं। प्राणापान का स्तवन प्राणायाम के द्वारा इनकी साधना ही है । [२] (यत्) = जो (निक्तहस्तः) = यज्ञादि कर्मों के कारण शुद्ध हाथोंवाला है, (तरणिः) = सब वासनाओं को तैरनेवाला है और (विचक्षणः) = विशिष्ट द्रष्टा [ज्ञानी] है, वह (अद्रिभिः) = उपासनाओं द्वारा (मधुमन्तम्) = माधुर्यवाले (सोमम्) = सोम का (सुषाव) = अपने में उत्पादन करता है। इस सोम के उत्पादन व रक्षण से ही वस्तुत: वह 'शरीर में निक्तहस्त, मन में तरणि तथा मस्तिष्क में विचक्षण' बन पाता है। इस सोमरक्षण में प्राणसाधना व प्रभु की उपासना साधन बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणसाधना द्वारा 'स्वध्वर, मधुमान् अग्नि' बनें। इस प्रकार सोम का रक्षण करते हुए 'निक्तहस्त, तरणि व विचक्षण' हों ।

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    विषय

    अग्नियों के तुल्य विद्वान् गण ।

    भावार्थ

    (यत् निक्तहस्तः तरणिः अद्रिभिः मधुमन्तं सोमं सुषाव) जिस प्रकार शुद्ध किरणों वाला सूर्य मेघों द्वारा मधुर रस से युक्त ओषधि गण को सींचता है, और जिस प्रकार (निक्तहस्तः विचक्षणः अद्रिभिः मधुमन्तं सोमं सुषाव) यज्ञ में शुद्ध पवित्र हाथों वाला विद्वान् अध्वर्यु शिलाखण्डों से मधुर रस युक्त सोम रस को बनाता है, उसी प्रकार (यत्) जब (निक्तहस्तः) शुद्ध पवित्र साधनों से युक्त, (तरणिः) संसार-मार्ग से पार जाने में समर्थ (विचक्षणः) विशेष ज्ञानवान्, विद्वान् पुरुष (अद्रिभिः) मेघवत् उदार गुरुजनों से वा पर्वत के समान अभेद्य व्रतादि साधनों से (मधुमन्तं सोमम्) ज्ञान सम्पन्न आत्मा को (सुषाव) ज्ञान से अभिषिक्त निष्णात वा ऐश्वर्य सम्पन्न कर लेता है, तब हे (अश्विना) शुभ गुणों से युक्त जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! (प्रति वस्तोः) प्रति दिन (सु-अध्वरासः) उत्तम यज्ञ के करने वाले, दृढ़ (मधुमन्तः) ज्ञान-सम्पन्न (अग्नयः) उत्तम ज्ञानी, तेजस्वी पुरुष, (उस्राः) किरणों के तुल्य प्रकाशवान् होकर (जरन्ते) उपदेश करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १, ३, ४ जगती। ५ निचृज्जगती । ६ विराड् जगती । २ भुरिक् त्रिष्टुप । ७ निचृत्त्रिष्टुप । सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही कारागीर विद्वानांच्या संगतीने अग्नी व सोमलता इत्यादी पदार्थांना जाणून त्यांचा चांगल्याप्रकारे उपयोग करून अभीष्ट कार्य सिद्ध करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Holy yajnic performers, creating and bearing honey sweets of vitality, leaders and pioneers brilliant as fire, every morning, welcome and praise the first rays of the sun, while the clean handed, clear eyed, wise priest, saviour from sin and disease, grinds with stones the holy plant of soma for honey juice and all wait for your arrival, O Ashvins, harbingers of morning joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of energy is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and chief minister ! the purifying leading men praise the rays of the sun because they are full of sweetness, and performers of good action. In the same manner, a man of pure character takes men across all miseries, is very intelligent and extracts the juice of Soma and other plants with the help of the clouds. You should know all these phenomena well and utilize them properly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! accomplish all desired works by having knowledge and using of the fire (energy), soma creeper and other things by the association of learned artisans and technicians.

    Foot Notes

    (निक्तहस्तः) शुद्धहस्तः । णिजिर्शीचपोषणयोः (जुहो० ) | = A man of clean character. (विचक्षण:) अतीव धीमान् । वि + चक्षिङ् - व्यक्तायां वाचि, दर्शनेऽणि (अदा० ) = Very intelligent.

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