ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र वा॑मवोचमश्विना धियं॒धा रथः॒ स्वश्वो॑ अ॒जरो॒ यो अस्ति॑। येन॑ स॒द्यः परि॒ रजां॑सि या॒थो ह॒विष्म॑न्तं त॒रणिं॑ भो॒जमच्छ॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒म् । अ॒वो॒च॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । धि॒य॒म्ऽधाः । रथः॑ । सु॒ऽअश्वः॑ । अ॒जरः॑ । यः । अस्ति॑ । येन॑ । स॒द्यः । परि॑ । रजां॑सि । या॒थः । ह॒विष्म॑न्तम् । त॒रणि॑म् । भो॒जम् । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वामवोचमश्विना धियंधा रथः स्वश्वो अजरो यो अस्ति। येन सद्यः परि रजांसि याथो हविष्मन्तं तरणिं भोजमच्छ ॥७॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वाम्। अवोचम्। अश्विना। धियम्ऽधाः। रथः। सुऽअश्वः। अजरः। यः। अस्ति। येन। सद्यः। परि। रजांसि। याथः। हविष्मन्तम्। तरणिम्। भोजम्। अच्छ ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अश्विना ! यः स्वश्वोऽजरो रथोऽस्ति तद्विद्या धियन्धा अहं वां प्रावोचं येन युवां हविष्मन्तं तरणिं भोजं रजांसि सद्योऽच्छ परियाथः ॥७॥
पदार्थः
(प्र) (वाम्) युवाम् (अवोचम्) उपदिशेयम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (धियन्धाः) यो धियं प्रज्ञां शिल्पविद्यां कर्म दधाति (रथः) रमणीययानः (स्वश्वः) शोभनाश्वः (अजरः) (यः) (अस्ति) (येन) (सद्यः) शीघ्रम् (परि) (रजांसि) लोकानैश्वर्य्याणि वा (याथः) गच्छथः (हविष्मन्तम्) बहुसामग्रीयुक्तम् (तरणिम्) तारकम् (भोजम्) भोक्तुं योग्यम् (अच्छ) ॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! विद्वांसो वयं युष्मान् याः शिल्पविद्या ग्राहयेम ताभिर्यूयं विमानादीनि यानानि निर्माय सद्यो गमनागमने कृत्वा पुष्कलान् भोगान् प्राप्नुतेति ॥७॥ अत्र सूर्याश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्चतुर्थोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यः) जो (स्वश्वः) उत्तमोत्तम घोड़ों से युक्त (अजरः) वृद्धावस्थारहित (रथः) सुन्दर वाहन (अस्ति) है उसकी विद्या को (धियन्धाः) बुद्धि अर्थात शिल्पविद्या रूप कर्म को धारण करनेवाला मैं (वाम्) आप दोनों को (प्र, अवोचम्) उत्तम उपदेश करूँ (येन) जिससे आप दोनों (हविष्मन्तम्) बहुत सामग्री से युक्त (तरणिम्) तारनेवाले (भोजम्) खाने योग्य पदार्थ और (रजांसि) लोक वा ऐश्वर्य्यों को (सद्यः) शीघ्र (अच्छ) उत्तम प्रकार (परि, याथः) सब ओर से प्राप्त होते हैं ॥७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! विद्वान् हम लोग आप लोगों को जिन शिल्पविद्याओं का ग्रहण करावें, उन विद्याओं से आप लोग विमान आदि वाहनों को रच शीघ्र गमन और आगमन को करके बहुत भोगों को प्राप्त होओ ॥७॥ इस सूक्त में सूर्य और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग और चौथा अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
'स्वश्व: अजर: ' रथ:
पदार्थ
[१] (धियन्धाः) = प्रज्ञा व कर्मों को धारण करनेवाला मैं, हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आपकी (प्रवोचम्) = प्रकृष्ट स्तुति करता हूँ। आप उस रथ से मुझे प्राप्त होइये, (यः रथा) = जो रथ कि (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला है और (अजर:) = जीर्ण-शीर्ण अंगोंवाला नहीं। [२] उस रथ से मुझे प्राप्त होइये, (येन) = जिस से कि (सद्य:) = शीघ्र ही (रजांसि परियाथ:) = सब लोकों में आप शीघ्रता से प्राप्त होते हो, अर्थात् जो रथ शीघ्र गतिवाला होता है और सब कर्त्तव्यकर्मों को करने के लिए उस-उस स्थान पर पहुँचता है। उस रथ से मुझे प्राप्त होइये, जिससे कि आप (हविष्मन्तम्) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाले, (तरणिम्) = अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले सूर्य के समान (भोजम्) = अपना पालन करनेवाले रोगों से अपने को बचानेवाले व्यक्ति की (अच्छ) = ओर आप प्राप्त होते हो, अर्थात् आपकी साधना से मन में मैं 'हविष्मान्' बनूँ, मस्तिष्क में 'तरणि' होऊँ और शरीर में 'भोज' बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारा शरीर-रथ 'उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला व दृढ़ हो'। इस साधना से हम 'हविष्मान्, तरणि व भोज' बनें । प्राणसाधना से हम जितेन्द्रिय 'इन्द्र' बनते हैं। क्रियाशील होते हैं 'वायु' । 'इन्द्रवायू' ही अगले सूक्त के देवता हैं -
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार (रथः धियन्धाः सु-अश्वः अजरः) रथ, नाना गति को धारण करने वाला, उत्तम अश्व से युक्त और दृढ़ हो (येन सद्यः रजांसि परि याथः) जिससे रथी सारथी बहुत से लोकों, देशों को पारकर लेते हैं, वह (हविष्मान् तरणिः भोजः) नाना ग्राह्य पदार्थों से युक्त, वेगगामी, सुरक्षा से युक्त होता है, विद्वान् शिल्पी उसकी रचना का अश्व के स्वामियों को उपदेश करता है उसी प्रकार हे (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! (यः) जो (रथः) अति रमण करने योग्य आनन्दमय आत्मा (धियं धाः) धारणावती बुद्धि और कर्मों का धारण करने वाला, (सुअश्वः) उत्तम मन इन्द्रियों से युक्त, (अजरः) अविनाशी, जरा से रहित और वाणी द्वारा न कथन करने योग्य, अवाच्य (अस्ति) है (येन) जिसके द्वारा (सद्यः) शीघ्र ही (रजांसि) समस्त लोकों, समस्त राजसविकारों को (परियाथः) आप पारकर सकते हो, मैं विद्वान् पुरुष उस (हविष्मन्तं) भक्तिमान् (तरणिं) सबको भवसागर से पार उतारने में समर्थ, (भोजम्) सबके पालक और स्वयं ऐश्वर्य के भोक्ता आत्मा को ही (अच्छ) लक्ष्य करके (वाम्) आप दोनों को (प्र अवोचम्) उपदेश करूं । एकोनविंशो वर्गः ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १, ३, ४ जगती। ५ निचृज्जगती । ६ विराड् जगती । २ भुरिक् त्रिष्टुप । ७ निचृत्त्रिष्टुप । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! आम्ही विद्वान तुम्हाला ज्या शिल्पविद्या शिकवितो, त्या विद्यांनी तुम्ही विमान इत्यादी याने तयार करून तात्काळ गमन व आगमन करून पुष्कळ भोग प्राप्त करा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, path makers of the world, having the knowledge and intelligence that I have attained, I speak to you of the chariot that’s yours, which is imperishable, equipped with unfailing horse power, by which you instantly and all time go over the skies and spaces and by which you bear and bring excellent food and energy full of sacrificial vitality that carries us across the seas of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of solar energy is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! I am intelligent and upholder of technical work. I tell you the science of that charming vehicle which has good horses in the form of energy/electricity etc. and is undecaying. With its you may grow in good quantity edibles and various substances and keep away from (prevent) diseases and thus quickly reach distant places of the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! we impart you instructions in technical science. By the help of it, you may be able to manufacture various vehicles and go quickly from place to place and get means of legitimate enjoyment.
Foot Notes
(भोजम्) भोक्तु योग्यम् अभ्यवहारः भोजनम् अत्र द्वितीयार्थः । भुज- पालनाभ्यवहारयोः Enjoyable. (हविष्मन्तम ) बहुसामग्री- युक्तम् । हविः-हुदानादनयोः आदाने च आदानयोग्य विधिपदार्थ ग्रहणमत्र | = Full of various substances.
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