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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा नि॑न्दत॒ य इ॒मां मह्यं॑ रा॒तिं दे॒वो द॒दौ मर्त्या॑य स्व॒धावा॑न्। पाका॑य॒ गृत्सो॑ अ॒मृतो॒ विचे॑ता वैश्वान॒रो नृत॑मो य॒ह्वो अ॒ग्निः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नि॒न्द॒त॒ । यः । इ॒माम् । मह्य॑म् । रा॒तिम् । दे॒वः । द॒दौ । मर्या॑य । स्व॒ऽधावा॑न् । पाका॑य । गृत्सः॑ । अ॒मृतः॑ । विऽचे॑ताः । वै॒श्वा॒न॒रः । नृऽत॑मः । य॒ह्वः । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा निन्दत य इमां मह्यं रातिं देवो ददौ मर्त्याय स्वधावान्। पाकाय गृत्सो अमृतो विचेता वैश्वानरो नृतमो यह्वो अग्निः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। निन्दत। यः। इमाम्। मह्यम्। रातिम्। देवः। ददौ। मर्त्याय। स्वधाऽवान्। पाकाय। गृत्सः। अमृतः। विऽचेताः। वैश्वानरः। नृऽतमः। यह्वः। अग्निः॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः स्वधावानमृतो विचेता वैश्वानरो नृतमो यह्वो गृत्सोऽग्निर्देवः पाकाय मर्त्याय मह्यमिमां रातिं ददौ तं मा निन्दत ॥२॥

    पदार्थः

    (मा) (निन्दत) (यः) (इमाम्) (मह्यम्) (रातिम्) दानम् (देवः) दाता (ददौ) ददाति (मर्त्याय) मनुष्याय (स्वधावान्) बह्वन्नाद्यैश्वर्य्यः (पाकाय) परिपक्वव्यवहाराय (गृत्सः) यो गृणाति स मेधावी (अमृतः) मृत्युरहितः (विचेताः) विविधानि चेतांसि संज्ञानानि ज्ञापनानि वा यस्य सः (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु प्रकाशमानः (नृतमः) अतिशयेन नायको नरोत्तमः (यह्वः) महान् (अग्निः) सूर्य इव ॥२॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजना ! योऽग्न्यादिगुणयुक्तः सर्वेभ्यः सुखदाता राजा शुभगुणः स्यात्तस्य निन्दां दुष्टस्य प्रशंसां कदाचिन्मा कुरुत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (स्वधावान्) बहुत अन्न आदि ऐश्वर्य्य से युक्त (अमृतः) मृत्यु से रहित (विचेताः) अनेक प्रकार के अच्छे प्रकार ज्ञान होना वा ज्ञान कराने के प्रकार जिसके ऐसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण मनुष्यों में प्रकाशमान (नृतमः) अत्यन्त नायक वा मनुष्यों में श्रेष्ठ (यह्वः) बड़ा (गृत्सः) उपदेशदाता बुद्धिमान् (अग्निः) सूर्य्य के समान (देवः) देनेवाला पुरुष (पाकाय) परिपक्व व्यवहारवाले (मह्यम्) मुझ (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (इमाम्) इस (रातिम्) दान को (ददौ) देता है, उसकी (मा) मत (निन्दत) निन्दा करो ॥२॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजाजनो ! जो अग्नि आदि के गुणों से युक्त और सब के लिये सुख देनेवाला राजा उत्तम गुणवाला होवे, उसकी निन्दा और दुष्ट की प्रशंसा कभी मत करो ॥२॥

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    विषय

    अमृतो विचेता:

    पदार्थ

    [१] (मा निन्दत) = मत निन्दा करो, उस प्रभु की, (यः) = जो (देवः) = प्रकाशमय (स्वधावान्) = आत्मधारण शक्तिवाला प्रभु (पाकाय) = परिपक्तव्य प्रज्ञावाले (मर्त्याय) = मरणधर्मा (मह्यम्) = मेरे लिये (इमां रतिम्) = इस ज्ञान के दान को ददौ देता है। प्रभु ही वस्तुतः ज्ञान को देकर हमारी बुद्धियों का ठीक परिपाक करते हैं। 'ज्ञान की ओर रुचि न करना' ही प्रभु का निन्दन है। [२] वे प्रभु (गृत्स:) = 'गृणाति' वेदज्ञान का उपदेश करते हैं। (अमृत:) = अमरणधर्मा हैं। (विचेताः) = विशिष्ट ज्ञानवाले हैं। (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले हैं। (नृतमः) = सर्वोत्तम नेता हैं। (मह्वः) = महान् हैं। (अग्नि:) = गतिशील हैं [अगि गतौ] । वस्तुतः उस प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके हमें भी उस प्रभु जैसा ही बनना है शक्तिशाली दीप्त मस्तिष्क ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें सदा प्रभु का स्तवन करना । वे प्रभु ही ज्ञान देकर हमें परिपक्क प्रज्ञावाला बनाते हैं।

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    विषय

    उसका स्वरूप ।

    भावार्थ

    (यः) जो ( देवः ) दानशील, सूर्य के समान प्रकाशक और मेघ के ( स्वधावान् ) अन्न और जल से युक्त होकर (मर्त्याय मह्यं ) मुझ (पाकाय ) परिपक्क ज्ञानी, तपस्या युक्त, सुदृढ़ मनुष्य को ( इमां रातिं ददौ ) इस प्रत्यक्ष दान, ज्ञान धनादि का प्रदान करता है उसकी ( मा निन्दत ) निन्दा मत करो। वह ( गृत्सः ) उपदेश देने वाला गुरु, ( अमृतः ) मृत्यु से रहित, कभी न मरने वाला ( विचेताः ) विविध ज्ञानों को जानने वाला, ( वैश्वानरः ) सब मनुष्यों में प्रकाशमान, (नृतमः) सब मनुष्यों वा जीवों में श्रेष्ठ, नरोत्तम, ( यह्वः ) महान् (अग्निः ) सबका नायक, सबका प्रकाशक, अग्निवत् तेजस्वी, स्वप्रकाश है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनांनो ! जो अग्नीप्रमाणे तेजस्वी, सर्वांना सुख देणारा राजा उत्तम गुणयुक्त असेल तर त्याची निंदा व दुष्टांची प्रशंसा कधी करू नये. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Never blame, censure or revile Vaishvanara Agni, self-refulgent and generous self-existent lord of his infinite wealth and power, who has given us this great gift of food, energy and wealth of abundant nature for the simple, growing, maturing world of mortal humanity, Agni, who is self-revealing through the beauty of his own creation, immortal, omniscient teacher, best leader of men and awfully great.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and attributes of a ruler are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! do not reproach a divine king who is a great genius, immortal (by the nature of the soul), endowed with much knowledge and has the power of giving instructions. Shining among men, because of his virtues and the best among them, he is great like the sun. Having large stocks of abundant food grains and other kinds of prosperity, he gives me all this gift in various ways. He gives it to me a mortal human being of mature dealing.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O people! never reproach a king who is endowed with the attributes of the fire (purity, splendor etc), is giver of happiness to all and full of notable virtues. Do not also praise a wicked person.

    Foot Notes

    (यह्व:) महान् । यः इति महन्नाम (NG 3, 3) = Great. ( स्वधावान् ) वह्नन्नाद्यैश्वर्य्ययुक्तः । स्वधा इत्यन्ननाम (NG 2, 7 ) = Full of abundant food grains and other kinds of wealth. (गुत्सः) यो गुणाति स मेधावी गुत्स इति मेघाविनाम (NG 3, 15 ) = Genius who glorifies God and admires the virtues of others.

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