ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 7
ता घा॒ ता भ॒द्रा उ॒षसः॑ पु॒रासु॑रभि॒ष्टिद्यु॑म्ना ऋ॒तजा॑तसत्याः। यास्वी॑जा॒नः श॑शमा॒न उ॒क्थैः स्तु॒वञ्छंस॒न्द्रवि॑णं स॒द्य आप॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठताः । घ॒ । ताः । भ॒द्राः । उ॒षसः॑ । पु॒रा । आ॒सुः॒ । अ॒भि॒ष्टिऽद्यु॑म्नाः । ऋ॒तजा॑तऽसत्याः । यासु॑ । ई॒जा॒नः । श॒श॒मा॒नः । उ॒क्थैः । स्तु॒वन् । शंस॑न् । द्रवि॑णम् । स॒द्यः । आप॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्याः। यास्वीजानः शशमान उक्थैः स्तुवञ्छंसन्द्रविणं सद्य आप ॥७॥
स्वर रहित पद पाठताः। घ। ताः। भद्राः। उषसः। पुरा। आसुः। अभिष्टिऽद्युम्नाः। ऋतजातऽसत्याः। यासु। ईजानः। शशमानः। उक्थैः। स्तुवन्। शंसन्। द्रविणम्। सद्यः। आप ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ईजानः शशमान उक्थैः स्तुवच्छंसन् यासु द्रविणं सद्य आप ता उषसो भद्रा यादृश्यः पुराऽऽसुस्तादृश्यः पुनर्वर्त्तन्ते तद्वद्या अभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्या ब्रह्मचारिण्यः सन्ति ता घा यूयं गृहाश्रमाय प्राप्नुत ॥७॥
पदार्थः
(ताः) (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ताः) (भद्राः) कल्याणकारीः (उषसः) प्रभातवेलाः (पुरा) (आसुः) आसन् (अभिष्टिद्युम्नाः) प्रशंसितयशोधनाः (ऋतजातसत्याः) ऋताज्जातेषु व्यवहारेषु सत्सु साध्व्यः (यासु) (ईजानः) (शशमानः) प्राप्तप्रशंसः सन् (उक्थैः) वक्तुमर्हैर्वचनैः (स्तुवन्) (शंसन्) प्रशंसन् (द्रविणम्) धनं यशो वा (सद्यः) शीघ्रम् (आप) प्राप्नोति ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्येण सहोषा सदा वर्त्तते तथैव कृतस्वयंवरौ स्त्रीपुरुषौ यशस्विनौ सत्याचरणौ भवेताम् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (ईजानः) गमन करनेवाला जन (शशमानः) प्रशंसा को प्राप्त होता (उक्थैः) कहने योग्य वचनों से (स्तुवन्) स्तुति करता और (शंसन्) प्रशंसा करता हुआ (यासु) जिनमें (द्रविणम्) धन वा यश को (सद्यः) शीघ्र (आप) प्राप्त होता है (ताः) वे (उषसः) प्रभात वेला (भद्राः) कल्याण करनेवाली जैसी (पुरा) पहिले (आसुः) हुईं वैसी फिर वर्त्तमान हैं, उनके समान जो (अभिष्टिद्युम्ना) प्रशंसित यशरूप धन से युक्त (ऋतजातसत्याः) सत्य से उत्पन्न हुए व्यवहारों में श्रेष्ठ ब्रह्मचारिणी हैं (ताः, घा) उन्हीं को आप लोग गृहाश्रम के लिये प्राप्त होओ ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य के साथ प्रातर्वेला सदा वर्त्तमान है, वैसे ही स्वयंवर जिन्होंने किया, ऐसे स्त्री-पुरुष यशस्वी और सत्य आचरणवाले होवें ॥७॥
विषय
उत्थान के लिये आत्मप्रेरणा
पदार्थ
[१] (ता:) = वे (घ) = निश्चय से (ताः) = प्रसिद्ध (भद्राः) = कल्याणकर (उषस:) = उषाकाल (पुरा आसुः) = पहले थे। ये उषाकाल (अभिष्टि द्युम्ना:) = [अनिष्टि-attack] वासनाओं पर आक्रमण के कारण ज्योतिर्मय थे तथा (ऋतजातसत्या:) = ऋत के विकास के कारण ये उषाकाल सत्य थे । इन उषाकालों में हम सब कार्य ऋत के अनुसार नियमपूर्वक करते थे। अतएव हमारे जीवन सत्य प्रधान थे। [२] (यासु) = जिन उषाओं में (ईजानः) = यज्ञ करता हुआ, (शशमानः) = प्लुत गति से कार्यों को करता हुआ यह (उक्थैः) = स्तोत्रों से (स्तुवन् शंसन्) = स्तुति व शंसन करता हुआ पुरुष (सद्य:) = शीघ्र ही (द्रविणं आप) = धन को प्राप्त करता था। हमारे जीवनों के वे उषाकाल कितने सुन्दर थे। कितना पवित्र व समृद्ध जीवन था। उन्हीं उषाओं को फिर से लाने का हम प्रयत्न करें।
भावार्थ
भावार्थ- भद्र उषाकाल वे हैं, जिनमें हम [क] वासनाओं पर आक्रमण करके ज्ञान ज्योति को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं, [ख] नियमितता के विकास के जीवन को सत्यमय बनाते हैं, [ग] यज्ञशील व स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाले होते हैं, [घ] प्रभु का स्तवन व शंसन करते हुए द्रविणों को प्राप्त करते हैं।
विषय
उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (उषसः) प्रभात बेलाएं (भद्राः) सुखकारिणी, (अभिष्टि-द्युम्ना) सर्वप्रकार फैलने वाले प्रकाश से युक्त, (ऋत-जातसत्याः) तेज से सत्य पदार्थों का प्रकाश करने वाली होती हैं। (यासु ईजानः उक्थैः शशमानः स्तुवन् शंसन् सद्यः द्रविणम् आप) जिनमें प्रातः यज्ञ अर्थात् वेदमन्त्रों से ईश्वर की स्तुति करने वाला, स्तुतिशील वेदमन्त्रपाठी पुरुष शीघ्र ही अभीष्ट धन और ज्ञान प्राप्त करता है उसी प्रकार जो (उषसः) कमनीय उत्तम कन्याएं भी (पुरा) पूर्व जीवन में (अभिष्टि द्युम्नाः) इच्छानुसार धनैश्वर्य प्राप्त करने वाली ऋतजात-सत्याः) ‘ऋत’ अर्थात् यज्ञ और धर्ममार्ग में सत्यप्रतिज्ञा को प्रकट करने वाली होती हैं (ताः) वही निश्चय से (भद्राः) उत्तम सुखकारिणी और कल्याणकारिणी, सौभाग्यवती होती है। (यासु) जिन्हों में वा जिन्हों के संग (ईजानः) यज्ञ करता हुआ, जिन्हों में अपने सर्वस्व को देता हुआ, वा जिन्हों से संगति करता हुआ (शशमानः) शमादि साधनों का अभ्यासी वा प्रशंसित पुरुष (उक्थैः) उत्तम वचनों से (स्तुवन्) उनकी स्तुति (शंसम्) और प्रशंसा करता हुआ, (सद्यः) शीघ्र ही (द्रविणं) ऐश्वर्य (आप) प्राप्त करता है। विद्वान् पुरुष ऐसी उत्तम स्त्रियों से ही गृहाश्रम का सम्पादन करे। (२) वेदवाणी पक्ष में—वे इष्ट सत्य का प्रकाश करतीं और वेदद्वारा सत्य को प्रकट करती हैं। जिनसे यज्ञ करता हुआ, सूक्तों से स्तुति कीर्त्तन करता हुआ विद्वान् ऐश्वर्य प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्यासह उषा सदैव असते तसे स्वयंवर केलेल्या स्त्री-पुरुषांनी यशस्वी व सत्याचरणी व्हावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For sure those were the dawns of ancient time, givers of abundant wealth of one’s heart’s desire, born of the law of Divinity, rooted in eternal truth and rectitude, in which the holy yajaka, worshipping the Divine with songs of praise and celebration, always and immediately achieved the wealth of his choice and desire. They are the same even now, the old ever new.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of people are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! in the dawns a man performing Yajnas (non-violent sacrifices) praises with proper words, and is himself admirable. He obtains wealth or good reputation, is auspicious today as he was earlier. In the same manner, you should put the domestic duties on those Brahmacharinis who are well-versed in truthful dealings and endowed with admired glory and wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the dawn always dwells with the sun, in the same manner, husband and wife married in accordance with their consent and choice would be glorious and truthful.
Foot Notes
(अभिष्टिदयुम्नाः) प्रशसित-यशोधताः। दयुम्नमिति धननाम (NG 2, 10) दयुम्नंद्योततेर्वशो वा (NKT 5,¸1,5) = Endowed with admirable glory and wealth. (ऋतजातसत्याः ) ऋताज्जातेषु व्यवहारेषु सत्सु साध्व्यः। = Well-versed or experts in truthful dealings.
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