Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 58 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    धाम॑न्ते॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मधि॑ श्रि॒तम॒न्तः स॑मु॒द्रे ह्य॒द्य१॒॑न्तरायु॑षि। अ॒पामनी॑के समि॒थे य आभृ॑त॒स्तम॑श्याम॒ मधु॑मन्तं त ऊ॒र्मिम् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धाम॑न् । ते॒ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । अधि॑ । श्रि॒तम् । अ॒न्तरिति॑ । स॒मु॒द्रे । हृ॒दि । अ॒न्तः । आयु॑षि । अ॒पाम् । अनी॑के । स॒म्ऽइ॒थे । यः । आऽभृ॑तः । तम् । अ॒श्या॒म॒ । मधु॑ऽमन्तम् । ते॒ । ऊ॒र्मिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धामन्ते विश्वं भुवनमधि श्रितमन्तः समुद्रे ह्यद्य१न्तरायुषि। अपामनीके समिथे य आभृतस्तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धामन्। ते। विश्वम्। भुवनम्। अधि। श्रितम्। अन्तरिति। समुद्रे। हृदि। अन्तः। आयुषि। अपाम्। अनीके। सम्ऽइथे। यः। आऽभृतः। तम्। अश्याम। मधुऽमन्तम्। ते। ऊर्मिम् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे भगवन् ! यस्य ते धामन्नन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुष्यपामनीके समिथे विश्वं भुवनमधि श्रितं यस्ते विद्वद्भिराभृतस्तं मधुमन्तमूर्मिमानन्दं वयमश्याम तदुपासनां सततं कुर्य्याम ॥११॥

    पदार्थः

    (धामन्) आधारे (ते) तव (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) जगत् (अधि) उपरि (श्रितम्) स्थितम् (अन्तः) (समुद्रे) अन्तरिक्षे (हृदि) हृदये (अन्तः) मध्ये (आयुषि) जीवननिमित्ते प्राणे (अपाम्) प्राणानाम् (अभीके) सैन्ये (समिथे) सङ्ग्रामे (यः) (आभृतः) समन्ताद् धृतः (तम्) (अश्याम) प्राप्नुयाम (मधुमन्तम्) माधुर्य्यगुणोपेतम् (ते) तव (ऊर्मिम्) रक्षणादिकम् ॥११॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरो जगदभिव्याप्य सर्वं धृत्वा संरक्ष्यान्तर्यामिरूपेण सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति यस्य कृपया विज्ञानं चिरजीवनं विजयश्च प्राप्यते तमेव सततं भजतेति ॥११॥ अत्रोदकमेघसूर्यवाग्विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥११॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषित ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थमण्डले पञ्चमोऽनुवाकोऽष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे भगवन् ! जिस (ते) आपके (धामन्) आधाररूप (अन्तः) मध्य (समुद्रे) अन्तरिक्ष और (हृदि) हृदय के (अन्तः) मध्य में (आयुषि) जीवन के निमित्त प्राण में (अपाम्) प्राणों की (अभीके) सेना में और (समिथे) संग्राम में (विश्वम्) सम्पूर्ण (भुवनम्) जगत् (अधि) ऊपर (श्रितम्) स्थित है तथा (यः) जो (ते) आप का विद्वानों से (आभृतः) सब प्रकार धारण किया गया (तम्) उस (मधुमन्तम्) माधुर्य्यगुण से युक्त (उर्मिम्) रक्षा आदि व्यवहार और आनन्द को हम लोग (अश्याम) प्राप्त होवें, उस आपकी उपासना को निरन्तर करें ॥११॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर जगत् को अभिव्याप्त होके सब को धारण कर और उत्तम प्रकार रक्षा करके अन्तर्य्यामिरूप से सर्वत्र व्याप्त है और जिसकी कृपा से विज्ञान, बहुत कालपर्य्यन्त जीवन और विजय प्राप्त होता है, उसी की निरन्तर सेवा करो ॥११॥ इस सूक्त में जल मेघ सूर्य वाणी विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥११॥ यह श्रीमान् परमहंसपरिव्राजकाचार्य परमविद्वान् श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्रीमान् दयानदसरस्वती स्वामीजी के बनाए हुए, संस्कृत और आर्य्यभाषा से सुशोभित, ऋग्वेदभाष्य के चतुर्थमण्डल में पञ्चम अनुवाक, अट्ठावनवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥ इति चतुर्थं मण्डलम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्ञान किसे प्राप्त होता है ?

    पदार्थ

    (१) हे प्रभो ! (ते धामनि) = आपके तेज में (विश्वं भुवनम्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (अधिश्रितम्) = आश्रित हुआ हुआ है। हम (ते) = आपके (मधुमन्तम्) = माधुर्यवाले जीवन को मधुर बनानेवाले (ऊर्मिम्) = ज्ञानप्रकाश को (अश्याम) = प्राप्त करें। [२] (तम्) = उस ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करें, (यः) = जो कि (समुद्रे हृदि अन्तः) = [स- मुद्] प्रसन्नतावाले हृदय के अन्दर (आभृतः) = धारण किया गया है। (आयुषि:) = गतिशील जीवन में जो धारण किया गया है। (अपाम्) = शरीरस्थ रेत: कणों के (अनीके) = बल में जो धारण किया गया है, रेत: कणों के रक्षण के होने पर जो प्राप्त होता है, इन रेतः कणों ने ही तो ज्ञानाग्नि का ईंधन बनना होता है। (समिथे) = संग्राम में जो धारण किया गया है। अध्यात्म संग्राम में काम-क्रोध आदि पर विजय प्राप्त करके जिसे पाया जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही सर्वाधार हैं। हमें प्रभु का वह ज्ञान प्राप्त हो, जो कि प्रसन्न हृदयवाले पुरुष को, गतिशील जीवनवाले को, सोमरक्षक व अध्यात्म-संग्राम विजेता को प्राप्त होता है। इस ज्ञान को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति 'बुध' बनता है। यह ज्ञान की वाणियों में स्थिर होने से 'गविष्ठिर' कहलाता है। पञ्चम मण्डल का प्रारम्भ इन ऋषियों के सूक्त से ही होता है। ये आत्रेय हैं ज्ञान के कारण 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठे हुए हैं। ये अपने जीवन मात्र को निरन्तर आगे बढ़ाते हुए 'अग्नि' होते हैं। अग्नि ही इस प्रथम सूक्त का देवता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे परमेश्वर (ते धामन्) तेरे आश्रय पर (विश्वं भुवनम् अधिश्रितम्) समस्त जगत् स्थित है। और (ते) तेरा (यः) जो महान् प्रेरक बल (समुद्रे अन्तः) समुद्र के भीतर, (दृदि) हृदय में, (आयुषि अन्तः) जीवन के निमित्त प्राण में, (अपाम् अनीके) जलों के संघात में और (समिथे) जीव गण के संग्राम में (आभृतः) प्रकट होता है, हम लोग तेरे (ते) उस (ऊर्मिम्) महान् प्रेरक (मधुमन्तं) ज्ञान, अन्न, तेज, बल आदि सम्पन्न महान् शक्ति को (अश्याम) प्राप्त करें, जाने। इत्येकादशो वर्गः॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो जगदीश्वर जगात अभिव्याप्त होऊन सर्वांना धारण करून उत्तम प्रकारे रक्षण करून अन्तर्यायी रूपाने सर्वत्र व्याप्त आहे व ज्याच्या कृपेने विज्ञान, दीर्घायुुष्य व विजय मिळतो त्याचीच निरंतर सेवा करा. ॥ ११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Lord, within your presence by your power is sustained the entire world of existence. That same power and presence vibrates in the depths of the oceans, in the cave of the heart, in the breath of life and age, in the waves of water and energy, in the vibrations of thought, and in the heat of action in nature and humanity. That power and presence vibrating in existence, O Lord, we pray, let us realise. Let us flow with that constant flow of vibration of Divinity in and across the fluctuations of mutability.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top