ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क॒न्या॑इव वह॒तुमेत॒वा उ॑ अ॒ञ्ज्य॑ञ्जा॒ना अ॒भि चा॑कशीमि। यत्र॒ सोमः॑ सू॒यते॒ यत्र॑ य॒ज्ञो घृ॒तस्य॒ धारा॑ अ॒भि तत्प॑वन्ते ॥९॥
स्वर सहित पद पाठक॒न्याः॑ऽइव । व॒ह॒तुम् । एत॒वै । ऊँ॒ इति॑ । अ॒ञ्जि । अ॒ञ्जा॒नाः । अ॒भि । चा॒क॒शी॒मि॒ । यत्र॑ । सोमः॑ । सू॒यते॑ । यत्र॑ । य॒ज्ञः । घृ॒तस्य॑ । धाराः॑ । अ॒भि । तत् । प॒व॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कन्याइव वहतुमेतवा उ अञ्ज्यञ्जाना अभि चाकशीमि। यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभि तत्पवन्ते ॥९॥
स्वर रहित पद पाठकन्याःऽइव। वहतुम्। एतवै। ऊम् इति। अञ्जि। अञ्जानाः। अभि। चाकशीमि। यत्र। सोमः। सूयते। यत्र। यज्ञः। घृतस्य। धाराः। अभि। तत्। पवन्ते ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
या वहतुमेतवै कन्याइवाञ्ज्यञ्जाना घृतस्य धारा उ यत्र सोमो यत्र यज्ञः सूयते तत्कर्माभि पवन्ते ता अहमभि चाकशीमि ॥९॥
पदार्थः
(कन्याइव) यथा कुमार्य्यः (वहतुम्) वोढारम् (एतवै) प्राप्तुम् (उ) (अञ्जि) व्यक्तं सुलक्षणम् (अञ्जानाः) प्रकटयन्त्यः (अभि) (चाकशीमि) प्रकाशयामि (यत्र) (सोमः) ऐश्वर्यमोषधिगणो वा (सूयते) निष्पद्यते (यत्र) (यज्ञः) अनुष्ठातुमर्हो व्यवहारः (घृतस्य) प्रकाशस्य (धाराः) वाचः (अभि) (तत्) कर्म (पवन्ते) शोधयन्ति ॥९॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा स्वयंवरा कन्या स्वसदृशं पतिं प्राप्तुमहर्निशं परीक्षयति पुरुषश्च तथाऽध्यापकोपदेशकौ परीक्षकौ स्याताम्, येन कर्म्मणैश्वर्य्यं क्रिया शुद्धिश्च जायते तदेव वचनं भाषितुं योग्यमस्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (वहतुम्) धारण करनेवाले को (एतवै) प्राप्त होने की (कन्याइव) जैसे कुमारी वैसे (अञ्जि) व्यक्त उत्तम लक्षण को (अञ्जानाः) प्रकट करती हुई (घृतस्य) प्रकाशसम्बन्धिनी (धाराः) वाणियाँ (उ) और (यत्र) जहाँ (सोमः) ऐश्वर्य्य वा ओषधियों का समूह और (यत्र) जहाँ (यज्ञः) करने योग्य व्यवहार (सूयते) उत्पन्न होता है (तत्) उस कर्म्म को (अभि, पवन्ते) पवित्र कराती हैं, उनको मैं (अभि, चाकशीमि) प्रकाशित करता हूँ ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे स्वयंवर करनेवाली कन्या अपने सदृश पति को प्राप्त होने की दिन-रात्रि परीक्षा करती है और ऐसे ही पुरुष परीक्षा करता है, वैसे अध्यापक और उपदेशक परीक्षक होवें और जिस कर्म्म से ऐश्वर्य्य और क्रिया की शुद्धि होवे, वही वचन कहने योग्य है ॥९॥
विषय
वेदवाणी द्वारा 'यज्ञशील सोमी' पुरुष का वरण
पदार्थ
[१] (कन्या:) = कन्याएँ जैसे (वह॒तुम्) = पति को (एतवा) = प्राप्त होने के लिए (उ) = निश्चय से (अञ्जि) = आभरणों को (अञ्जाना:) = अलंकृत करती हुई होती हैं, इसी प्रकार मैं इन (घृतस्य धाराः) = ज्ञानधाराओं को पतिरूप इस युवक को प्राप्त होने के लिये अलंकृत होता हुआ (अभि चाकशीमि) = देखता हूँ। [२] ये (घृतस्य धारा:) = ज्ञान की धाराएँ (तत् अभि पवन्ते) = उसकी ओर प्राप्त होती हैं, (यत्र) = जहाँ (सोमः) = सोम [वीर्यशक्ति] (सूयते) = सम्पादित होता है और (यत्र यज्ञः) = जहाँ यज्ञादि उत्तम कर्म होते हैं। सुरक्षित सोम ही तो ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और यज्ञादि कर्मों में लगे रहना सोमरक्षण का साधन बनता है। इस यज्ञशील सोमरक्षक पुरुष को ही ये घृतधाराएँ पति के रूप में बहती हैं। ये पति होते हैं, वेदवाणी इनकी पत्नी 'परीमे गामनेषत' ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम का रक्षण करें और यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त हों। ऐसा होने पर वेदवाणी हमें पतिरूप से वरेगी ।
विषय
उत्तम स्त्रियों के समान घृतधारा और वाणियों का वर्णन ।
भावार्थ
(यत्र सोमः सूयते) जहां सोम नाम ओषधि का सवन होता है अर्थात् सोमयाग होता है, (यत्र यज्ञः) वा जहां यज्ञ होता है वहां (कन्या:-इव) जिस प्रकार कन्याएं (अञ्जि अञ्जानाः) अपने कान्तियुक्त रूप और आभूषणादिक को प्रकट करती हुईं (वहतुम् एतवा) विवाहकर्त्ता प्रिय पति को प्राप्त करने के लिये (तत् अभि पवन्ते) यज्ञ में सबके समक्ष आती हैं और जिस प्रकार सोमयाग-यज्ञादि में (घृतस्य धाराः अञ्जि अञ्जानाः) घी की धाराएं कान्ति सी चमकती हुई (वहतुम्) घृत लेने वाले अग्नि को प्राप्त होती हैं। उसी प्रकार (यत्र सोमः सूयते) जहां सोम्य गुण युक्त शिष्य विद्या के गर्भ से उत्पन्न होता है (यत्र यज्ञः) जहां ज्ञान का दान और प्रतिग्रह है (तत्) वहां (घृतस्य धाराः) ज्ञान की वाणियां (अञ्जि अञ्जानाः) अपना अर्थप्रकाशक रूप प्रकट करती हुईं (वहतुम् एतवा) वहन या धारण करने में समर्थ शिष्य को प्राप्त होने के लिये (तत् अभि पवन्ते) उसके प्रति जाती हैं, मैं उनका (अभि चाकशीमि) प्रकाशित करूं और साक्षात् करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी स्वयंवर करणारी कन्या आपल्यासारख्याच पतीला प्राप्त करण्यासाठी अहर्निश परीक्षा करत असते. तसेच पुरुषही करतो, तसे अध्यापक व उपदेशक असावेत. ज्या कर्माने ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे व क्रियाशुद्धी व्हावी तेच वचन सांगण्यायोग्य असते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Where the yajna of holy action and meditation is enacted and the bliss of divine soma is created, there I see all round the flow of the streams of consciousness into that vedi of divine fire wherein, like a maiden in all her beauty, finery and perfume proceeding to meet her bridegroom at the wedding yajna, the individual soul flies and is accepted and sanctified in the supreme spirit of Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about the learned persons is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As maidens deck themselves with gay beauty aids and exhibit their beauty to join their husbands, same way where prosperity (or the group of herbs) reigns, where Yajna or the noble work worth doing is performed, there the intellectual speeches are sanctified on all sides. I illuminate them again and again.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile in the mantra. As a maiden who desires to choose a suitable husband, tests him well (in knowledge, health and beauty. Ed.), same way the teachers and preachers should test their pupils and listeners or audience well. It is an act by which prosperity grows and purity of action is brought about. The enlightened persons should speak to others (about this secret of success. Ed.).
Foot Notes
(वहतुम्) वोढारम् । वह प्रापणे (म्वा० ) = Husband (अंजि) व्यक्त सुलक्षणम् । अंजू व्यक्तिप्रेक्षणकान्ति गतिषु । अत व्यक्तीकरणार्थ: व्यक्तिकरम् प्रकलम् = Good tractor adornment. (अंजाना:) प्रकटयन्त्यः । = Manifesting. (यज्ञः ) अनुष्ठातुमर्हो व्यवहारः । = A noble act worth doing.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal