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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पुरुरात्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    आ य॒ज्ञैर्दे॑व॒ मर्त्य॑ इ॒त्था तव्यां॑समू॒तये॑। अ॒ग्निं कृ॒ते स्व॑ध्व॒रे पू॒रुरी॑ळी॒ताव॑से ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ य॒ज्ञैः । दे॒व॒ । मर्त्यः॑ । इ॒त्था । तव्यां॑सम् । ऊ॒तये॑ । अ॒ग्निम् । कृ॒ते । सु॒ऽअ॒ध्व॒रे । पू॒रुः । ई॒ळी॒त॒ । अव॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यज्ञैर्देव मर्त्य इत्था तव्यांसमूतये। अग्निं कृते स्वध्वरे पूरुरीळीतावसे ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यज्ञैः। देव। मर्त्यः। इत्था। तव्यांसम्। ऊतये। अग्निम्। कृते। सुऽअध्वरे। पूरुः। ईळीत। अवसे ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्न्यादिविद्याविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे देव ! यथा पूरुर्मर्त्यः कृते स्वध्वरे यज्ञैरवसे तव्यांसमग्निमीळीतेत्थोतय आ प्रयुङ्क्ष्व ॥१॥

    पदार्थः

    (आ) (यज्ञैः) विद्वत्सत्काराद्यैर्व्यवहारैः (देव) विद्वन् (मर्त्यः) मनुष्यः (इत्था) अस्माद्धेतोः (तव्यांसम्) अतिशयेन वृद्धम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अग्निम्) पावकम् (कृते) (स्वध्वरे) शोभनेऽहिंसामये (पूरुः) मननशीलो मनुष्यः (ईळीत) स्तौति (अवसे) विद्यादिसद्गुणप्रवेशाय ॥१॥

    भावार्थः

    ये विद्वत्सङ्गरुचयो मनुष्या अग्न्यादिपदार्थविद्यां प्राप्य सत्क्रियां कुर्वन्ति ते सर्वतो रक्षिता भवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि विद्याविषय को कहते हैं ॥१॥

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वन् ! जैसे (पूरुः) मननशील (मर्त्यः) मनुष्य (कृते) किये हुए (स्वध्वरे) शोभन अहिंसामय यज्ञ में (यज्ञैः) विद्वानों के सत्कारादिक व्यवहारों से (अवसे) विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों में प्रवेश होने के लिये (तव्यांसम्) अत्यन्त वृद्ध बड़े तेजयुक्त (अग्निम्) अग्नि की (ईळीत) प्रशंसा करता है (इत्था) इस कारण से (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (आ) प्रयोग अर्थात् विशेष उद्योग करो ॥१॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों के सङ्ग में प्रीति करनेवाले मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को प्राप्त हो कर श्रेष्ठ कर्म को करते हैं, वे सब प्रकार से रक्षित होते हैं ॥१॥

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    विषय

    यज्ञाग्निवत् उत्तम अध्यक्ष की स्तुति । उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( देव ) तेजस्विन् ! ( मर्त्यः ) मनुष्य लोग ( ऊतये ) रक्षा और (अवसे ) विद्या ज्ञान के लिये ( तव्यांसम् अग्निं) बलवान् और ज्ञानवान्, प्रमुख पुरुष का ( सु-अध्वरे कृते ) उत्तम हिंसारहित प्रजा पालनादि कर्म के निमित्त ( यज्ञैः) उत्तम आदर सत्कारों द्वारा (ईडीत ) मान आदर करें और उसे सदा चाहा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पूरुरात्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १ भुरिगुष्णिक् । २ अनुष्टुप । ३ निचृदनुष्टुप । ४ विराङनुष्टुप । ५ भुरिग्बृहती || पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे विद्वानांबरोबर प्रीती करून अग्नी इत्यादी पदार्थांची विद्या प्राप्त करून श्रेष्ठ कर्म करतात. ते सर्व प्रकारे रक्षित असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come Agni, generous self-refulgent life of the world, the entire humanity thus, having organised holy projects of peace and non-violence, invokes and invites you, potent power, with yajnas for the sake of protection and advancement in knowledge, power and achievement.

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