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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णस्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स अश्वमेधश्च भारतोऽविर्वा देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा ते॑ अग्ने सुम॒तिं च॑का॒नो नवि॑ष्ठाय नव॒मं त्र॒सद॑स्युः। यो मे॒ गिर॑स्तुविजा॒तस्य॑ पू॒र्वीर्यु॒क्तेना॒भि त्र्य॑रुणो गृ॒णाति॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽम॒तिम् । च॒का॒नः । नवि॑ष्ठाय । न॒व॒मम् । त्र॒सद॑स्युः । यः । मे॒ । गिरः॑ । तु॒वि॒जा॒तस्य॑ । पू॒र्वीः । यु॒क्तेन॑ । अ॒भि । त्रिऽअ॑रुणः । गृ॒णाति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा ते अग्ने सुमतिं चकानो नविष्ठाय नवमं त्रसदस्युः। यो मे गिरस्तुविजातस्य पूर्वीर्युक्तेनाभि त्र्यरुणो गृणाति ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। ते। अग्ने। सुऽमतिम्। चकानः। नविष्ठाय। नवमम्। त्रसदस्युः। यः। मे। गिरः। तुविऽजातस्य। पूर्वीः। युक्तेन। अभि। त्रिऽअरुणः। गृणाति ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यस्ते सुमतिं तुविजातस्य मे गिरश्चकानो नविष्ठाय नवमं चकानस्त्रसदस्युर्युक्तेन त्र्यरुणः सन् पूर्वीगिरोऽभि गृणाति तमेवा त्वमहं च सततं सत्कुर्य्याव ॥३॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (अग्ने) (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (चकानः) कामयमानः (नविष्ठाय) अतिशयेन नवीनाय (नवमम्) नवानां पूरणम् (त्रसदस्युः) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात्सः (यः) (मे)) मम (गिरः) (तुविजातस्य) (पूर्वीः) सनातनीः (युक्तेन) कृतयोगाभ्यासेन मनसा (अभि) (त्र्यरुणः) त्रीणि मनःशरीरात्मसुखान्यृच्छति (गृणाति) ॥३॥

    भावार्थः

    हे विद्वँस्त्वमहं च य आवयोः सकाशाद् गुणान् ग्रहीतुमिच्छति तमावां विद्यां ग्राहयेव ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् ! (यः) जो (ते) आपकी (सुमतिम्) सुन्दर बुद्धि को और (तुविजातस्य) बहुतों में प्रकट हुए (मे) मेरी (गिरः) वाणियों की (चकानः) कामना करता तथा (नविष्ठाय) अतिशय नवीन जन के लिये (नवमम्) नव के पूर्ण करनेवाले की कामना करता हुआ (त्रसदस्युः) त्रसदस्यु अर्थात् जिससे चोर डरते ऐसा (युक्तेन) किया योगाभ्यास जिससे ऐसे मन से (त्र्यरुणः) तीन मन, शरीर और आत्मा के सुखों को प्राप्त होता हुआ जन (पूर्वीः) अनादि काल से सिद्ध वाणियों को (अभि, गृणाति) सब ओर से कहता है (एवा) उसी का आप और हम निरन्तर सत्कार करें ॥३॥

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! आप और मैं जो हमारे समीप से गुणों के ग्रहण करने की इच्छा करता है, उसको हम दोनों विद्याग्रहण करावें ॥३॥

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    विषय

    इन्द्र पद । उस पद के अधिकारी का कर्तव्य | पक्षान्तर में विद्वान् के कर्त्तव्य । त्रसदस्यु की व्याख्या ।

    भावार्थ

    भा०—हे (अग्ने) विद्वन् ! ( यः ) जो ( ते सुमति ) तेरी उत्तम मति और ( नवमं ) नये उत्तम ज्ञान को ( चकानः ) चाहता हूं उस ( नविष्ठाय ) उस अति नवीन ( मे ) मुझ बालक को आप ( त्र्यरुणः ) तीनों में अरुण अर्थात् तीनों वेद विद्याओं, मन, वाणी और शरीर तीनों के तपों के पारंगत, वा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तीनों आश्रमों से उत्तीर्ण, इहलोक, अन्तरिक्ष और द्यौ तीनों प्रकाश से व्याप्त, तीनों से परे विद्यमान सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष ( तुविजातस्य ) बहुत से नायक पुरुषों वा प्रजाजनों में प्रसिद्ध यशस्वी गुरु की ( युक्तेन ) दत्तचित्त से ( पूर्वी : ) पूर्व विद्वानों से सेवित, वा उपदिष्ट ( गिरः ) वेदवाणियों का ( अभि गृणाति ) उपदेश करता है वह ( त्रसदस्युः ) दुष्ट भावों को भयभीत करने वाला, वा भयभीत शत्रुओं पर शस्त्र प्रहार करने वाले शूरवीर के तुल्य निर्भय होकर आ, हे (अग्ने) अग्निवत् तेजस्विन् ! ( नविष्ठाय ) अति नवीन, एवं स्तुत्य शिष्य को (ते सुमतिं) तेरी अपनी शुभ मति और ज्ञान (एव) और ( नवमं ) नये से नया उपदेश ( चकानः ) प्रेम पूर्वक चाहता हुआ गुरु तुझे ( अभि गृणाति ) उपदेश करे । गुरु वा आचार्य के ज्ञानोपदेश से अन्तःशत्रु काम, क्रोधादि एवं कुशिक्षा, कुव्यसनादि परे भाग जाते हैं, दूर हो जाते हैं इससे वह 'त्रसदस्यु' है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    व्यरुणस्त्रैवृष्ण्स्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स्य अश्वमेधश्च भारतोऽत्रिवी ऋषयः ॥ १-५ अग्निः । ६ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:- १, ३ निचृत्त्रिष्टुप । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप । ५, ६ भुरिगुष्णिक् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    त्रसदस्युः-त्र्यरुणः

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (नविष्ठाय) = अत्यन्त स्तुत्य [नु स्तुतौ] (ते) = आपके लिए, आपकी प्राप्ति के लिए (एवा) = इस प्रकार (नवमम्) = [ नव गतौ] क्रियामय (सुमतिम्) = कल्याणी बुद्धि को (चकानः) = चाहता हुआ (त्रसदस्युः) = सब वासनाओं को भयभीत करनेवाला बनता है। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करके ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगा रहता है, वही प्रभु प्राप्ति का अधिकारी बनता है। २. प्रभु कहते हैं कि (यः) = जो (तुविजातस्य) = महान् प्रादुर्भाववाले-सर्वत्र ब्रह्माण्ड में प्रकट (महिमावालेमे) = मेरी (पूर्वी:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली तथा पालन व पूरण करनेवाली (गिरः) = इन ज्ञानवाणियों का (युक्तेन) = एकाग्रमन से (अभिगृणाति) = प्रातः सायं दिन के दोनों ओर उच्चारण करता है। वही त्(र्यरुणः) = उत्तम शरीर, मन व बुद्धि को प्राप्त करता है - वही अपने में ज्ञान, कर्म व उपासना का समन्वय करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की कल्याणी मति को प्राप्त करने की कामना करते हुए वासनाओं को भयभीत करनेवाले 'त्रसदस्यु' बनें । प्रभु की ज्ञानवाणियों का प्रातः सायं अध्ययन करते हुए 'त्र्यरुण' बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वाना! जो तुझ्या व आमच्या गुणांचे ग्रहण करण्याची इच्छा करतो त्याला आपण दोघांनीही विद्याग्रहण करवावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of light and life, Agni, thus does Trasadasyu, the man terror for the wicked, aspiring for favour of your attention and kindness, Tryaruna, blest with physical health, mental insight and spiritual vision, with concentrative mind sings anew in praise of you, lord ever fresh and most youthful, who ‘for me (i.e.Trasadasyu, Tryaruna) reveal the ancient and eternal Word of omniscient awareness’.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More mentioned about the enlightened persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let us honor that TRYARUNA (achiever of mental, physical and spiritual happiness ) by well- concentrated mind. Desirous of good intellect and speech they are well-known and perfect in nine kinds of organs (i.e. physical fitness. Ed.). similar to a new and admirable man. Being a frightener of the robbers and thieves, he praises the speeches of the ancient (experience) persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! let us confer upon him knowledge, who wishes to take virtues for others (i.e. inculcate among others).

    Translator's Notes

    नवद्वाराणां पूरणम्-मुख्य द्वे चतुषी २ द्वे श्रोत्रे, २ नासिक, गुदोपस्थाविति नव द्वाराणि तेषां पूरणम् ।

    Foot Notes

    (त्यरुणः ) त्रीणि मनःशरीरात्मसुखानि ऋच्छति सः । = He who achieves physical, mental and spiritual happiness. (त्रसदस्युः) त्रस्यन्ति दस्यवो यस्मात्सः । = He from whom robbers and thieves fear.

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    राष्ट्र में नीति आयोग

    Word Meaning

    तेजस्वी विद्वान प्रकृति के विधान और अनुभव से प्राप्त ज्ञान के उपदेशों की कामना करता हुआ सब वासनाओं से मुक्त समाज के निर्माण द्वारा भविष्य के लिए उत्तम नवीन समाज की आवश्यकताओं की पूर्ती और तीनो प्रकार तम , मन और आत्मा से सुखी समाज का निर्माण करता है और सब से ऐसी विचार धारा का सम्मान करने को कहता है.

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