Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 28 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णस्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स अश्वमेधश्च भारतोऽविर्वा देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स॒मि॒ध्यमा॑नो अ॒मृत॑स्य राजसि ह॒विष्कृ॒ण्वन्तं॑ सचसे स्व॒स्तये॑। विश्वं॒ स ध॑त्ते॒ द्रवि॑णं॒ यमिन्व॑स्याति॒थ्यम॑ग्ने॒ नि च॑ धत्त॒ इत्पु॒रः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽइ॒ध्यमा॑नः । अ॒मृत॑स्य । रा॒ज॒सि॒ । ह॒विः । कृ॒ण्वन्त॑म् । स॒च॒से॒ । स्व॒स्तये॑ । विश्व॑म् । सः । ध॒त्ते॒ । द्रवि॑णम् । यम् । इन्व॑सि । आ॒ति॒थ्यम् । अ॒ग्ने॒ । नि । च॒ । ध॒त्ते॒ । इत् । पु॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिध्यमानो अमृतस्य राजसि हविष्कृण्वन्तं सचसे स्वस्तये। विश्वं स धत्ते द्रविणं यमिन्वस्यातिथ्यमग्ने नि च धत्त इत्पुरः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइध्यमानः। अमृतस्य। राजसि। हविः। कृण्वन्तम्। सचसे। स्वस्तये। विश्वम्। सः। धत्ते। द्रविणम्। यम्। इन्वसि। आतिथ्यम्। अग्ने। नि। च। धत्ते। इत्। पुरः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यतस्समिध्यमानस्त्वममृतस्य मध्ये राजसि स्वस्तये हविष्कृण्वन्तं सचसे भवान् विश्वं द्रविणं धत्ते यमातिथ्यमिन्वसि पुरश्च नि धत्ते तस्मात् स इत् त्वं पूजनीयोऽसि ॥२॥

    पदार्थः

    (समिध्यमानः) सम्यग्देदीप्यमानः (अमृतस्य) कारणस्योदकस्य मध्ये वा (राजसि) प्रकाशसे (हविः) अत्तव्यं वस्तु (कृण्वन्तम्) कुर्वन्तम् (सचसे) समवैषि (स्वस्तये) सुखाय (विश्वम्) सर्वम् (सः) (धत्ते) धरति (द्रविणम्) धनं यशो वा (यम्) (इन्वसि) व्याप्नोति। व्यत्ययो बहुलमिति लकारव्यत्ययः। (आतिथ्यम्) अतिथिसत्कारम् (अग्ने) विद्वन् (नि) (च) (धत्ते) (इत्) एव (पुरः) पुरस्तात् ॥२॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यूयं विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमाना अतिथयस्सन्तः सर्वत्र भ्रमित्वा सर्वान् सत्यमुपदिशन्तः कीर्तिं प्रसारयत ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (2)

    विषय

    अब विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! जिससे (समिध्यमानः) उत्तम प्रकार निरन्तर प्रकाशमान आप (अमृतस्य) कारण वा जल के मध्य में (राजसि) प्रकाशित होते हो और (स्वस्तये) सुख के लिये (हविः) खाने योग्य वस्तु को (कृण्वन्तम्) करते हुए का (सचसे) सम्बन्ध करते हो और आप (विश्वम्) सम्पूर्ण (द्रविणम्) धन वा यश का (धत्ते) धारण करते हो तथा (यम्) जिनको (आतिथ्यम्) अतिथि सत्कार (इन्वसि) व्याप्त होता है और (पुरः) पहिले (च) भी आप (नि, धत्ते) निरन्तर धारण करते हो इससे (सः, इत्) वही आप सत्कार करने योग्य हो ॥२॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् जनो ! आप लोग विद्या और विनय से प्रकाशमान अतिथियों की दशा को धारण किये हुए सब स्थानों में भ्रमण करके सम्पूर्ण जनों के लिये सत्य का उपदेश देते हुए यश को निरन्तर पसारिये ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्यवत् वृष्टि हेतु होकर प्रजा की समृद्धि का कारण हो ।

    भावार्थ

    भा०- ( समिध्यमानः अमृतस्य राजसि ) जिस प्रकार सूर्य खूब प्रकाशित होता हुआ मेघोपयोगी 'अमृत' अर्थात् जल और उससे उत्पन्न अन्न में प्रकाशित होता है उसी प्रकार हे ( अग्ने ) विद्वान् पुरुष वा राजन् ! ( समिध्यमानः ) तू खूब तेजस्वी होकर ( अमृतस्य ) उत्तम सत्कारोपयोगी जल, दीर्घायु वा ज्ञान से खूब प्रकाशित हो । तू ( स्वस्तये ) सुख शान्ति के प्राप्त करने के लिये ( हविः कृण्वन्तम् ) अन्न आदि उत्पन्न करने और भोज्य द्रव्य सिद्ध करने वाले को ( सचसे ) आदरपूर्वक प्राप्त होता है । हे विद्वन् ! राजन् ! तू ( यम् ) जिसको प्राप्त होकर ( अतिथ्यम् ) आतिथ्य ( इन्वसि ) लाभ करता है ( स ) वह मनुष्य ( विश्वं द्रविणं ) समस्त ऐश्वर्य ( धत्ते ) धारण करता है, और वही ( पुरः ) तेरे समक्ष आतिथ्य भोग्य (नि धत्ते च ) पदार्थ आदि भी रखता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्ववारात्रेयी ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप । २, ४, ५,६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्रिष्टुप् ॥ धैवतः स्वरः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! तुम्ही विद्या व विनयाने प्रसिद्ध असलेले अतिथी आहात. सर्वत्र भ्रमण करून सर्वांना उपदेश करा व सतत कीर्ती पसरवा. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, O light and fire of life, kindled and raised in the vedi and in the mind, you rise and shine in the midst of immortality and abide with the supplicant yajaka as a friend for his life’s well being. Whoever you inspire, invigorate and, as a friend, take up under your care and protection, the person wins, holds and commands the world’s wealth in existence and, since then for all time, O light divine, he offers service with complete surrender in obedience to your will like hospitality in obligation to an honoured guest.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top