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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्तोमा॑सस्त्वा॒ गौरि॑वीतेरवर्ध॒न्नर॑न्धयो वैदथि॒नाय॒ पिप्रु॑म्। आ त्वामृ॒जिश्वा॑ स॒ख्याय॑ चक्रे॒ पच॑न्प॒क्तीरपि॑बः॒ सोम॑मस्य ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तोमा॑सः । त्वा॒ । गौरि॑ऽवीतेः । अ॒व॒र्ध॒न् । अर॑न्धयः । वै॒द॒थि॒नाय॑ । पिप्रु॑म् । आ । त्वाम् । ऋ॒जिश्वा॑ । स॒ख्याय॑ । च॒क्रे॒ । पच॑न् । प॒क्तीः । अपि॑बः । सोम॑म् । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तोमासस्त्वा गौरिवीतेरवर्धन्नरन्धयो वैदथिनाय पिप्रुम्। आ त्वामृजिश्वा सख्याय चक्रे पचन्पक्तीरपिबः सोममस्य ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तोमासः। त्वा। गौरिऽवीतेः। अवर्धन्। अरन्धयः। वैदथिनाय। पिप्रुम्। आ। त्वाम्। ऋजिश्वा। सख्याय। चक्रे। पचन्। पक्तीः। अपिबः। सोमम्। अस्य ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! गौरिवीतेस्तव सङ्गेन स्तोमासोऽवर्धंस्तैः सह वैदथिनाय शत्रूनरन्धयः। य ऋजिश्वेव पिप्रुं त्वा सख्यायाऽऽचक्रे तेन सहास्य पक्तीः पचंस्त्वं सोममपिबो ये त्वां पालयेयुस्तान् सर्वांस्त्वं सत्कुर्याः ॥११॥

    पदार्थः

    (स्तोमासः) प्रशंसिताः (त्वा) त्वाम् (गौरिवीतेः) यो गौरीं वाचं व्येति सः। गौरीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अवर्धन्) वर्धन्तम् (अरन्धयः) हिंसय (वैदथिनाय) विदिथिना सङ्ग्रामकर्त्रा निर्मिताय (पिप्रुम्) व्यापकम् (आ) (त्वाम्) (ऋजिश्वा) ऋजिः सरलश्चासौ श्वा च (सख्याय) मित्रत्वाय (चक्रे) (पचन्) (पक्तीः) पाकान् (अपिबः) पिबेः (सोमम्) ऐश्वर्य्यमोषधिरसं वा (अस्य) जगतो मध्ये ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजन् ! ये शुभैर्गुणैस्त्वां वर्धयन्ति मित्रं जानन्ति तान् सखीकृत्य त्वमैश्वर्य्यं वर्धय ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् (गौरिवितेः) वाणी को विशेष प्राप्त अर्थात् जाननेवाले आपके सङ्ग से (स्तोमासः) प्रशंसित (अवर्धन्) वृद्धि को प्राप्त हों, उनके साथ (वैदथिनाय) संग्राम करनेवाले से बनाये गये के लिये शत्रुओं का (अरन्धयः) नाश करो और जो (ऋजिश्वा) सरल कुत्ते के सदृश ही मनुष्य (पिप्रुम्) व्यापक (त्वा) आपको (सख्याय) मित्रपने के लिये (आ, चक्रे) अच्छे प्रकार कर चुका, उसके साथ (अस्य) इस जगत् के मध्य में (पक्तीः) पाकों का (पचन्) पाक करते हुए आप (सोमम्) ऐश्वर्य वा ओषधि के रस का (अपिबः) पान करिये और जो (त्वाम्) आपकी रक्षा करें, उन सबका आप सत्कार करिये ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो उत्तम गुणों से आपकी वृद्धि करते और आपको मित्र जानते हैं, उनको मित्र करके आप ऐश्वर्य की वृद्धि करो ॥११॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    भा०-हे राजन् ! ( गौरिवीतेः ) वाणी को प्रकाशित करने वाले वाग्मी जन के ( स्तोमासः) उत्तम स्तुति वचन तथा उसके अधीन (स्तोमासः) प्रशंसित वीर समूह ( पिप्रुम् ) पालन और राष्ट्र को ऐश्वर्य से पूर्ण करने वाले (त्या ) तुझ को ( अवर्धन् ) सदा बढ़ावें । तू ( वैदधिनाय ) संग्राम, धन तथा ज्ञान को प्राप्त करने वाले जनों के उपकार के लिये (अरन्धयः ) शत्रु का नाश कर । ( ऋजिष्वा ) सरल स्वभाव के कुत्ते के समान भोजनमात्र से प्रेमबद्ध होकर भृत्यजन ( त्वाम् ) तुझ को ( सख्याय आ चक्रे ) मित्र भाव के लिये स्वीकार करें । तू ( पक्तीः) पकाने या परिपक्व, सु-अभ्यस्त करने योग्य नाना पदार्थों वा कार्यों को ( पचन् ) पकाता वा दृढ़ करता हुआ (अस्य) इस राष्ट्र के ( सोमम् ) ऐश्वर्य का ( अपिबः ) पालन और उपभोग कर ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिः शाक्त्य ऋषिः ॥ १–८, ९–१५ इन्द्रः । ९ इन्द्र उशना वा ॥ देवता ॥ छन्दः–१ भुरिक् पंक्तिः । ८ स्वराट् पंक्तिः । २, ४, ७ त्रिष्टुप, । ३, ५, ६, ९,१०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । १२, १३, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    गौरिवीति का सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    १. 'गौरी' का अर्थ है वाक्, 'वीति' का भोजन। ज्ञान की वाणियाँ ही जिसका भोजन हैं वह 'गौरिवीति' है । हे प्रभो ! इस (गौरिवीते:) = ज्ञान रूप भोजनवाले ज्ञानी पुरुष से किये गये (स्तोमासः) = स्तवन (त्वा) = तुझे (अवर्धन्) = बढ़ानेवाले हों। ज्ञानी भक्त ही तो आप को सर्वाधिक प्रिय है 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' । २. आप इस (वैदथिनाय) = सदा ज्ञानयज्ञ के द्वारा आपका उपासन करनेवाले पुरुष के लिए (पिप्रुम्) = [प्र पूरणे] अपने पेट को ही भरते रहने की वृत्ति को - अत्यन्त स्वार्थ की वृत्ति को– (अरन्धयः) = विनष्ट करते हैं। ज्ञानी पुरुष स्वार्थ से ऊपर उठता है। ज्ञान की कमी ही मनुष्य को स्वार्थी बनाती है। ३. यह स्वार्थी पुरुष छलछिद्र से चलता है - इसका जीवन कुटिल होता है। इसके विपरीत (ऋजिश्वा) = ऋजुमार्ग से आगे बढ़नेवाला [ऋजुनाश्वयति] ज्ञानी पुरुष (त्वाम्) = हे प्रभो! आप को ही (सख्याय आचक्रे) = मित्रता के लिए करता है। ज्ञानी पुरुष प्रभु का मित्र बनता है। यह (पक्ती: पचन्) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों से सम्बद्ध पाँच ज्ञानों के परिपाक को करता है और (अस्य) = इस परमात्मा से उत्पन्न किये हुए (सोमम् अपिब:) = सोम को पीता है। सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखता है। यह सोमरक्षण ही उसे 'दीप्त ज्ञानाग्निवाला- स्वार्थ से ऊपर - प्रभु का मित्र' बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी पुरुष ही प्रभु का सच्चा स्तोता है। ये ज्ञानी भक्त स्वार्थ से दूर रहते हैं। सरल मार्ग से चलते हुए ये प्रभु के मित्र होते हैं। ये प्रभु के मित्र ज्ञानौदन का परिपाक करते हैं, सोम का रक्षण करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जे उत्तम गुणांनी तुझी वृद्धी करतात व तुला मित्र समजतात त्यांना तू मित्र समज व ऐश्वर्य वाढव. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the eulogies of the poetic lovers of song and their singers exalt you. Punish the man who exalts and raises the warring forces against you. Let the men of simple honest mind be keen to make friends with you. Maturing and completing the plans and programmes of the state, celebrate and enjoy the honour and splendour of the order.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are stated further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! the admirable persons or speeches grow or develop by your association. Along with them, take up to destroy the hideouts of the enemies by a man exhorting in the battle. The person who makes friendship with you like a faithful dog of upright nature, take food supplies from him (when invited) and drink Soma or use wealth offered by him with love. Let you honor all those who protect you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! with the persons who make you grow with noble virtues and who know (and treat. Ed.) you as friend, make friendship with them and grow your prosperity.

    Translator's Notes

    वी गतिव्याप्ति प्रजन कान्त्यशन खादनेषु (अत्र व्याप्त्यर्थ ग्रहणम् ) Here again Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others like them have erred to take Gauiveeti, Pipru, Vaidithina and Rajishva as Proper Nouns-the names of particular persons. It should be rather proper and meaningful to take their derivative words denoting soul attributes, as explained by Maharshi Dayanand because it was contrary to the basic principle of the Vedic terminology and Shri Sayanacharya's own introduction of the Rigveda Samhita upholding the eternity of the Vedas.

    Foot Notes

    (गौरिवीते:) यो गौरीं वाचं व्येति सः गौरीति वाङ्नाम (NG 1, 11) = He who pervades or is expert in the use of refined speech. (वैदिथिनाय ) विदिथिना सङ्ग्रामकर्ता निर्मिताय । = Made or sent by a war manager. (ऋजिष्वा) ऋजि सरलश्चासौ । = A faithful dog of upright nature.

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