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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रभूवसुराङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    समि॑द्धाग्निर्वनवत्स्ती॒र्णब॑र्हिर्यु॒क्तग्रा॑वा सु॒तसो॑मो जराते। ग्रावा॑णो॒ यस्ये॑षि॒रं वद॒न्त्यय॑दध्व॒र्युर्ह॒विषाव॒ सिन्धु॑म् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समि॑द्धऽअग्निः । व॒न॒व॒त् । स्ती॒र्णऽब॑र्हिः । यु॒क्तऽग्रा॑वा । सु॒तऽसो॑मः । ज॒रा॒ते॒ । ग्रावा॑णः । यस्य॑ । इ॒षि॒रम् । वद॑न्ति । अय॑त् । अ॒ध्व॒र्युः । ह॒विषा॑ । अव॑ । सिन्धु॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धाग्निर्वनवत्स्तीर्णबर्हिर्युक्तग्रावा सुतसोमो जराते। ग्रावाणो यस्येषिरं वदन्त्ययदध्वर्युर्हविषाव सिन्धुम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समिद्धऽअग्निः। वनवत्। स्तीर्णऽबर्हिः। युक्तऽग्रावा। सुतऽसोमः। जराते। ग्रावाणः। यस्य। इषिरम्। वदन्ति। अयत्। अध्वर्युः। हविषा। अव। सिन्धुम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शिल्पिविद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यः स्तीर्णबर्हिर्युक्तग्रावा सुतसोमः समिद्धाग्निः सर्वान् पदार्थान् वनवद् यस्येषिरं ग्रावाणो वदन्ति यमध्वर्युर्हविषा सिन्धुमवायज्जराते च तमग्निं कार्य्येषु संप्रयुङ्क्ष्व ॥२॥

    पदार्थः

    (समिद्धाग्निः) प्रदीप्तः पावकः (वनवत्) सम्भजते (स्तीर्णबर्हिः) स्तीर्णमाच्छादितं बर्हिरन्तरिक्षं येन सः (युक्तग्रावा) युक्तो ग्रावा मेघो येन (सुतसोमः) सुतः सोमो यस्मात् (जराते) स्तौति (ग्रावाणः) मेघाः (यस्य) (इषिरम्) गमनम् (वदन्ति) (अयत्) गच्छति (अध्वर्युः) अध्वरं शिल्पविद्यां कामयमानः (हविषा) अग्नौ प्रक्षेप्य सामग्र्या (अव) (सिन्धुम्) समुद्रम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! योऽग्निः सर्वेषु पदार्थेषु व्याप्तो बहूत्तमगुणक्रियावान् वर्त्तते तं विज्ञाय कार्य्याणि साध्नुत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब शिल्पी विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जो (स्तीर्णबर्हिः) अर्थात् आच्छादित किया अन्तरिक्ष जिसने ऐसा और (युक्तग्रावा) युक्त मेघ जिससे (सुतसोमः) तथा प्रकट हुआ चन्द्रमा जिससे (समिद्धाग्निः) वह प्रदीप्त हुआ अग्नि सम्पूर्ण पदार्थों का (वनवत्) सम्भोग करता है (यस्य) जिसके (इषिरम्) गमन को (ग्रावाणः) मेघ (वदन्ति) शब्द से सूचित करते हैं, जिसको (अध्वर्युः) शिल्पविद्या की कामना करता हुआ जन (हविषा) अग्नि में छोड़ने योग्य सामग्री से (सिन्धुम्) समुद्र को (अव, अयत्) प्राप्त होता और (जराते) स्तुति करता है, उस अग्नि का कार्य्यों में संप्रयोग करो ॥२॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जो अग्नि सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त और बहुत उत्तम गुण और क्रियावान् है, उसको जानकर कार्य्यों को सिद्ध करो ॥२॥

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    विषय

    विद्युत्वत् विजयशील बलवान् नेता का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- (यस्य ) जिसके ( इषिरम् ) इच्छानुकूल, अभिलषित कार्य को (ग्रावाणः) विद्वान् उपदेष्टा और शत्रुओं को कुचल डालने वाले शस्त्रघर वीर सैन्यबल ( वदन्ति ) बतलाते और (यस्य ) जिसके (सिन्धुं ) समुद्र के समान विस्तृत, प्रबल वेग से जाने वाले वा सुप्रबद्ध सैन्य वा प्रजा के सागर को (अध्वर्युः ) राष्ट्र को मरने से बचाने में कुशल नायक ( हविषा ) अन्न वृत्ति या कर संग्रहादि उपायों से ( अव अयत् ) अपने अधीन नियम में रखता है वह राजा ( समिद्धाग्निः ) अग्नि के समान अति देदीप्त होकर (स्तीर्णं बर्हिः ) वृद्धिशील राष्ट्र को विस्तृत करके (युक्तग्रावा ) अपने देश में उत्तम विद्वानों और प्रबल पुरुषों को नियुक्त तथा ( सुतसोमः ) ऐश्वर्य को प्राप्त करके अथवा ( सुतसोमः ) पुत्रवत् राज्य को पालता हुआ (जराते ) शासन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ निचृत्पंक्तिः । २ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    समिद्धाग्निः वनवत्

    पदार्थ

    [१] (समिद्धाग्नि) = अपने अन्दर उस अग्रणी प्रभु को समिद्ध करनेवाला (वनवत्) = विजयी होता है। (स्तीर्णबर्हिः) = वासनाशून्य हृदयासन को बिछानेवाला, (युक्तग्रावा) = [युक्तः च असौ ग्रावा च] चित्तवृत्ति का निरोध करनेवाला और प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाला [गृणाति] (सुतसोमः) = सोम का अपने अन्दर सम्पादन करनेवाला व्यक्ति ही (जराते) = [स्तौति] प्रभु का सच्चा स्तवन करता है [२] (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (यस्य) = जिस प्रभु के (इषिरे) = प्रेरणा देनेवाले इस ज्ञान को (वदन्ति) = अपने जीवन से कहने का प्रयत्न करते हैं, इसी (सिन्धुम्) = ज्ञान के समुद्र प्रभु को (अध्वर्युः) = यज्ञात्मक जीवनवाला पुरुष (हविषा) = हवि के द्वारा, त्यागपूर्वक अदन के द्वारा, (अवअयत्) - भोग-वृत्ति से दूर । होकर [ away अब] प्राप्त होता है। वस्तुतः प्रभु का सच्चा स्तोता वही है जो कि हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को क्रिया में अन्वित करे और त्यागपूर्वक अदन करता हुआ भोगवृत्ति से ऊपर उठे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- अपने अन्दर प्रभुरूप अग्नि को समिद्ध करनेवाला व्यक्ति विजयी बनता है। प्रभु की सच्ची उपासना यही है कि हम प्रभु के ज्ञान के अनुसार जीवन को बनायें और त्यागपूर्वक अदन करनेवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! जो अग्नी संपूर्ण पदार्थांत व्याप्त असून अत्यंत उत्तम गुण व क्रियायुक्त आहे हे जाणून क्रिया करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light and fire, raised and rising, touching the skies, suffusing the clouds, creating the soma for life and energy, crackles, and adores Divinity. The roaring clouds proclaim its force and refreshing power. The yajaka scientist with his yajnic inputs into the fire rises and moves to the sea (with fragrant vibrations rising to space, with waters flowing to the seas).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of technicians are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! use that well- kindled Agni (science of fire) in various works which covers the firmament, which causes the clouds to form, and at kindling which Soma juice is effused. It divides all objects and its movement is proclaimed by the clouds, and is taken to the oceans by putting various substances in it by the desirous of technology and is praised by him for many attributes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons (scientists) ! accomplish many works by knowing the attributes of that Agni (fire), which pervades all objects and is possessor of many good qualities and functions.

    Foot Notes

    (स्तीर्णबर्हिः) स्तीर्णमाच्छादितं वर्हिरन्तरिक्षं । येन सः (स्तृञ) आच्छादने (म्वा० ) । = That by whom the firmament is covered. (अध्वर्यु:) अध्वरं शिल्पविद्यां कामयमानः । अध्वरं युनक्ति कामयते वेति यास्काचार्यः (NKT 1, 3, 8) अत्राध्वरोऽहिंसात्मकः शिल्पयज्ञः । हु-दानादनयोः आदाने च (जुहो०) अत्र - दानार्थकः । = Desiring non-violent technology. (हविषा ) अग्नी प्रक्षेप्य सामग्र्या । = By the substances to be put into the fire.

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