ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 10
वृष्णो॑ अस्तोषि भू॒म्यस्य॒ गर्भं॑ त्रि॒तो नपा॑तम॒पां सु॑वृ॒क्ति। गृ॒णी॒ते अ॒ग्निरे॒तरी॒ न शू॒षैः शो॒चिष्के॑शो॒ नि रि॑णाति॒ वना॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठवृष्णः॑ । अ॒स्तो॒षि॒ । भू॒म्यस्य॑ । गर्भ॑म् । त्रि॒तः । नपा॑तम् । अ॒पाम् । सु॒ऽवृ॒क्ति । गृ॒णी॒ते । अ॒ग्निः । ए॒तरि॑ । न । शू॒षैः । शो॒चिःऽके॑शः । नि । रि॒णा॒ति॒ । वना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृष्णो अस्तोषि भूम्यस्य गर्भं त्रितो नपातमपां सुवृक्ति। गृणीते अग्निरेतरी न शूषैः शोचिष्केशो नि रिणाति वना ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठवृष्णः। अस्तोषि। भूम्यस्य। गर्भम्। त्रितः। नपातम्। अपाम्। सुऽवृक्ति। गृणीते। अग्निः। एतरि। न। शूषैः। शोचिःऽकेशः। नि। रिणाति। वना ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं वृष्णोऽस्तोषि त्रितोऽपां नपातं भूम्यस्य गर्भं सुवृक्ति गृणीत एवं योऽग्निरेतरी शोचिष्केशो न शूषैर्वना नि रिणाति स एव सर्वं सृष्टिजन्यं सुखं प्राप्नोति ॥१०॥
पदार्थः
(वृष्णः) सुखवर्षकान् (अस्तोषि) प्रशंससि (भूम्यस्य) भूमौ भवस्य (गर्भम्) (त्रितः) त्रिषु वर्द्धकः (नपातम्) न विद्यते पातो यस्य तम् (अपाम्) प्राणिनां जनानामिव (सुवृक्ति) सुष्ठु व्रजन्ति यस्मिंस्तम् (गृणीते) स्तौति (अग्निः) पावक इव (एतरी) प्राप्नुवन्ती (न) इव (शूषैः) बलैः (शोचिष्केशः) प्रदीप्तविज्ञानः (नि) (रिणाति) गच्छति प्राप्नोति वा (वना) किरणान् ॥१०॥
भावार्थः
स एव पुरुषो बहुधनं मान्यं च लभते यः सृष्टिक्रमविद्यां विज्ञाय कार्यसिद्धये प्रयतते ॥१०॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! आप (वृष्णः) सुख की वृष्टि करनेवालों की (अस्तोषि) प्रशंसा करते हो (त्रितः) तीनों में वृद्धिकरनेवाला (अपाम्) मनुष्यों के सदृश प्राणियों के (नपातम्) नहीं पतन जिसका उस (भूम्यस्य) पृथ्वी में हुए (गर्भम्) गर्भ की (सुवृक्ति) उत्तम गमन के सहित (गृणीते) स्तुति करता है, इस प्रकार जो (अग्निः) पवित्र करनेवाले अग्नि के (एतरी) प्राप्त होती हुई के और (शोचिष्केशः) प्रकाशित विज्ञानवाले के (न) सदृश (शूषैः) बलों से (वना) किरणों को (नि, रिणाति) जाता वा प्राप्त होता है, वही सम्पूर्ण सृष्टि में उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होता है ॥१०॥
भावार्थ
वही पुरुष बहुत धन और आदर को प्राप्त होता है कि जो सृष्टिक्रम की विद्या को जान कर कार्य्य की सिद्धि के लिये यत्न करता है ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सृष्टिक्रमाची विद्या जाणून कार्य करण्याचा प्रयत्न करतो त्याच पुरुषाला पुष्कळ धन व मान्यता मिळते. ॥ १० ॥
English (1)
Meaning
I admire and adore the lightning fire, child of waters, which pervades the three worlds of the universe and gives showers of life for the fertility of the earth. Like a moving power with locks of light with its force and motion, Agni energises the rays of the sun, moves the clouds and enlivens the forests with greenery.
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