ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 13
वि॒दा चि॒न्नु म॑हान्तो॒ ये व॒ एवा॒ ब्रवा॑म दस्मा॒ वार्यं॒ दधा॑नाः। वय॑श्च॒न सु॒भ्व१॒॑ आव॑ यन्ति क्षु॒भा मर्त॒मनु॑यतं वध॒स्नैः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द । चि॒त् । नु । म॒हा॒न्तः॒ । ये । वः॒ । एवाः॑ । ब्रवा॑म । द॒स्माः॒ । वार्य॑म् । दधा॑नाः । वयः॑ । च॒न । सु॒ऽभ्वः॑ । आ । अव॑ । य॒न्ति॒ । क्षु॒भा । मर्त॑म् । अनु॑ऽयतम् । व॒ध॒ऽस्नैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विदा चिन्नु महान्तो ये व एवा ब्रवाम दस्मा वार्यं दधानाः। वयश्चन सुभ्व१ आव यन्ति क्षुभा मर्तमनुयतं वधस्नैः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठविद। चित्। नु। महान्तः। ये। वः। एवाः। ब्रवाम। दस्माः। वार्यम्। दधानाः। वयः। चन। सुऽभ्वः। आ। अव। यन्ति। क्षुभा। मर्तम्। अनुऽयतम्। वधऽस्नैः ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे दस्मा महान्तो जना ! ये वार्य्यं वयश्चन दधानाः सुभ्वो वयं यद्वो ब्रवाम तदेवाश्चिन्नु यूयं विदा। ये वधस्नैः क्षुभाऽनुयतं मर्त्तमाव यन्ति तान् यूयं शिक्षध्वम् ॥१३॥
पदार्थः
(विदा) विजानीत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चित्) अपि (नु) सद्यः (महान्तः) (ये) (वः) युष्मान् (एवाः) (ब्रवाम) वदेम (दस्माः) दुःखोपक्षेतारः (वार्य्यम्) वरणीयं सुखम् (दधानाः) (वयः) जीवनम् (चन) अपि (सुभ्वः) ये शोभनेषु कर्म्मसु भवन्ति (आ) (अव) (यन्ति) गच्छन्ति (क्षुभा) संचलनेन (मर्त्तम्) मनुष्यम् (अनुयतम्) आनुकूल्येन यतन्तम् (वधस्नैः) ये वधेन स्नान्ति पवित्रा भवन्ति ते ॥१३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः शुभकर्माचरेयुरुपदिशेयुश्च तथैव यूयमाचरत ये मनुष्यान् क्षोभयन्ति तान् दण्डयत ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दस्माः) दुःख की उपेक्षा करनेवाले (महान्तः) बड़े श्रेष्ठ जनो ! (ये) जो (वार्य्यम्) स्वीकार करने योग्य सुख और (वयः) जीवन को (चन) भी (दधानाः) धारण करते हुए (सुभ्वः) श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रवृत्त होनेवाले हम लोग जो (वः) आप लोगों को (ब्रवाम) कहें, उसके (एवाः) ही (चित्) निश्चय (नु) शीघ्र आप लोग (विदा) जानिये जो (वधस्नैः) ताड़न से स्नान करते अर्थात् पवित्र होते हैं, उनके साथ (क्षुभा) उत्तम प्रकार चलने से (अनुयतम्) अनुकूलता से प्रयत्न करते हुए (मर्त्तम्) मनुष्य को (आ, अव, यन्ति) उत्तम प्रकार प्राप्त होते हैं, उनकी आप लोग शिक्षा करो ॥१३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन शुभ कर्म्म को करें और उपदेश देवें, वैसे ही आप लोग आचरण करो और जो मनुष्य को क्लेश देते हैं, उनको दण्ड दीजिये ॥१३॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०—हे ( महान्तः ) बड़े, पूज्य पुरुषो ! ( ये ) जो ( वः ) आप लोगों में से ( एवाः ) ज्ञानवान् ( दस्माः ) शत्रुओं और अज्ञानों का नाश करने वाले और (वार्यं ) वरण करने योग्य, उत्तम ज्ञान वा ऐश्वर्य धारण करने वाले और ( वयः चन दधानाः ) बल, अन्न को भी धारण करते हैं वे ( सुभ्वः) उत्तम भूमि के स्वामी वा उत्तम सामर्थ्यवान् होकर ( वधस्नैः ) शस्त्रों सहित ( अनुयतं ) अपने अनुकूल रहकर यत्न करने वाले (मर्तं ) शत्रुमारक युवा मनुष्य को ( क्षुभा ) शोभा या उत्साह पूर्वक मत्त संचालन की रीति से ( आ अव यन्ति ) अपने अधीन रख कर चलाते हैं । उनको ही हम (व्रवाम) प्रजागण अपना दुःख सुख कहें और वे (विद चित् ) स्वयं प्रजा के सुख दुःखों को भी जानें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दम-शम
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि हे मनुष्यो ! ये (वः एवा:) = जो तुम्हारे में से गतिशील हैं, (महान्तः) = पूजा की वृत्तिवाले हैं [मह पूजायाम् ], (दस्मा:) = वासनाओं का उपक्षय करनेवाले हैं व दर्शनीय जीवनवाले हैं, (वार्यं दधाना:) = वरणीय गुणों को धारण करनेवाले हैं वे (ब्रवाम) = जो कुछ हम करते हैं उसे (चित् नु) = निश्चय से (विद्) = जानें । [२] प्रभु कहते हैं कि (क्षुभा) = [क्षुभ संचलने] क्षोभयुक्त मन से तथा (वधस्नैः) = वासनाओं द्वारा वध करनेवाली इन्द्रियों से (अनुयतम्) = काबू किये हुए, अर्थात् मन व इन्द्रियों के दास बने हुए (मर्तम्) = मनुष्य को (सुभ्वः) = [सुष्टुभवन्तः] उत्तम स्थिति के कारणभूत (वयः चन) = मार्ग भी (आ अवयन्ति) = सर्वथा छोड़ जाते हैं। [way= वय् गतौ] मन व इन्द्रियों की दासता सदा पतन का कारण बनती है। [२] प्रभु का सर्वमहान् उपदेश यही है कि इन्द्रियों व मन का दास न बनना । यही तुम्हें महान् बनायेगा। तभी दर्शनीय तुम्हारा जीवन होगा और तुम वरणीय वस्तुओं को धारण करनेवाले बनोगे।
भावार्थ
भावार्थ- जो व्यक्ति प्रभु के इस उपदेश को सुनते हैं कि 'इन्द्रियों व मन का दास बननेवाला व्यक्ति मार्गभ्रष्ट हो जाता है' वे गतिशील, महान्, दर्शनीय व वरणीय गुणों को धारण करनेवाले बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जसे विद्वान लोक शुभ कार्य करतात व उपदेश देतात तसे तुम्ही आचरण करा व जे माणसांना क्लेश देतात त्यांना शिक्षा करा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Listen ye, great ones, and let us know for certain those acts and motions of yours which we speak of and pray for, which, all great and generous ones, bearing cherished gifts of food, energy, health and age, ever growing stronger and expansive, mighty powerful with their catalytic forces, come to the mortal seeker who tries to know and search them out.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Vishvedevah is elucidated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great men! whoever are the destroyers of miseries, whoever desire the good of all, you should certainly know all about them. We tell you to be endowed with acceptable, happiness and life, and always be engaged in doing good deeds. You should teach the people who come to men, for endeavoring with their movement (building their own life) suitably, on being punished and purified.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should also do good deeds like the enlightened do and preach the others to emulate. Punish them who give trouble or frighten others.
Translator's Notes
By oversight of the printers, meaning of एवा: has been left out in the original text of the Sanskrit commentary which has been translated as (एवा:). In the printed the reading is एवा: and not एवा. Therefore, it should mean as explained by Dayananda Sarasvati in his commentary on Rig. 5, 41, 5 कामयमाना: or desiring the welfare of all.
Foot Notes
(दस्माः) दुःखोपक्षेप्तारः । दसु उपक्षये (दिवा० )। = Destroyers of miseries. (वार्य्यम् ) वरणीय सुखम् । वृञ्-वरणे । = Acceptable or desirable. (सुभ्वः) ये शोभनेषु कर्मसु भवन्ति । = Engaged in doing good deeds.
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