Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - अत्रिः छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ते नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मायुरिन्द्र॑ ऋभु॒क्षा म॒रुतो॑ जुषन्त। नमो॑भिर्वा॒ ये दध॑ते सुवृ॒क्तिं स्तोमं॑ रु॒द्राय॑ मी॒ळ्हुषे॑ स॒जोषाः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । अ॒र्य॒मा । आ॒युः । इन्द्रः॑ । ऋ॒भु॒क्षाः । म॒रुतः॑ । जु॒ष॒न्त॒ । नमः॑ऽभिः । वा॒ । ये । दध॑ते । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । स्तोम॑म् । रु॒द्राय॑ । मी॒ळ्हुषे॑ । स॒ऽजोषाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतो जुषन्त। नमोभिर्वा ये दधते सुवृक्तिं स्तोमं रुद्राय मीळ्हुषे सजोषाः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। नः। मित्रः। वरुणः। अर्यमा। आयुः। इन्द्रः। ऋभुक्षाः। मरुतः। जुषन्त। नमःऽभिः। वा। ये। दधते। सुऽवृक्तिम्। स्तोमम्। रुद्राय। मीळ्हुषे। सऽजोषाः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये मरुतो नमोभिर्मीळ्हुषे रुद्राय सजोषाः सन्तः सुवृक्तिं स्तोमं दधते वा जुषन्त ते मित्रो वरुणोऽर्य्यमेन्द्र ऋभुक्षाश्च न आयुर्जुषन्त ॥२॥

    पदार्थः

    (ते) (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) सखा (वरुणः) श्रेष्ठाचारः (अर्य्यमा) न्यायेशः (आयुः) जीवनम् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (ऋभुक्षाः) महान् विद्वान् (मरुतः) मनुष्याः (जुषन्त) सेवन्ते (नमोभिः) सत्कारान्नादिभिः (वा) (ये) (दधते) (सुवृक्तिम्) सुष्ठुवर्जनम् (स्तोमम्) श्लाघाम् (रुद्राय) दुष्टाचाराणां रोदकाय (मीळ्हुषे) सुखं सिञ्चते (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् ॥२॥

    भावार्थः

    त एव विद्वांस उत्तमा विज्ञेया ये स्वात्मवत्सर्वेषु प्राणिषु वर्त्तेरन् ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (ये) जो (मरुतः) मनुष्य (नमोभिः) सत्कार और अन्नादिकों से (मीळ्हुषे) सुख का सेचन करते हुए (रुद्राय) दुष्ट आचरणों के करनेवाले जनों के रुलानेवाले के लिये (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले हुए (सुवृक्तिम्) उत्तम प्रकार वर्जन होता है जिससे उस (स्तोमम्) प्रशंसा को (दधते) धारण करते (वा) वा (जुषन्त) सेवन करते हैं (ते) वे (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ आचरण करनेवाला (अर्य्यमा) न्याय का ईश और (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (ऋभुक्षाः) बड़ा विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (आयुः) जीवन का सेवन करें ॥२॥

    भावार्थ

    उन्हीं विद्वानों को उत्तम समझना चाहिये जो अपने सदृश सब प्राणियों में वर्त्ताव करें ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मित्र और वरुण । उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०—(मित्रः) सर्वप्रिय, सर्वस्त्रेही, न्यायाधीश, ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ, दुष्टवारक दण्डाध्यक्ष, ( अर्यमा ) न्यायकारी, शत्रुनियन्ता, ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, ( ऋभुक्षाः ) बड़ा विद्वान् पुरुष ( आयुः ) प्राणाचार्य, और ( मरुतः ) उत्तम वैश्यजन वा प्रजावर्ग, वायुवद् बली वीरजन सभी ( ते ) वे ( नः जुषन्त ) हम प्रजाजनों को प्रेमपूर्वक चाहें । ( ये ) जो ( मीढुषे ) वर्षणकारी ( रुद्राय ) दुष्टों को रुलाने वाले सेनापति के हितार्थ ( सजोषाः ) समान रूप से सेवा करने वाले होकर ( स्तोमं दधते ) उत्तम स्तुति वा संघबल को धारण करते और जो उसके हितार्थ ही ( नमोभिः ) शत्रु को नमाने वाले साधनों सहित ( सु-वृक्तिं ) शत्रु को वर्जने की उत्तम शक्ति को भी ( दधते ) धारण करते हैं ( ते ) वे वीर पुरुष भी (नः जुषन्त ) हमसे प्रेम करें। वे भी प्रजा के द्वेषी न हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    किनका संग ?

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे साथ (ते) = वे (जुषन्त) = प्रीतिवाले हों, अर्थात् हमारा उन लोगों के साथ प्रेमपूर्वक मित्रता का सम्बन्ध हो जो कि (मित्र:) = सबके मित्र हैं, सबके प्रति स्नेहवाले हैं, (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाले हैं, किसी के प्रति द्वेष भावना नहीं रखते, (अर्यमा) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का नियमन करते हैं, (आयुः) = [एति] गतिशील हैं, क्रियाशील, अकर्मण्य नहीं, (इन्द्रः) = जो जितेन्द्रिय हैं, (ऋभुक्षा:) = ज्ञानदीप्ति में निवास करनेवाले हैं, (मरुतः) = प्राणसाधना में प्रवृत्त हैं । [२] (वा) = अथवा हमारा उनके साथ रहन-सहन व उठना-बैठना हो (ये) = जो कि (नमोभिः) = नमन के साथ (मीदुषे) = सर्व सुखों का सेचन करनेवाले रुद्राय सब रोगों का द्रावण करनेवाले प्रभु के लिये (सजोषाः) = परस्पर प्रेमवाले होते हुए मिलकर (सुवृक्तिम्) = अच्छी प्रकार पापों के वर्जन के हेतुभूत (स्तोमम्) = स्तवन को (दधते) = धारण करते हैं। इन उपासकों के साथ हमारा मेल हो । इनके सम्पर्क में आकर हम भी इनके समान जीवनवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा सम्पर्क 'स्नेही, निद्वेष, शत्रुविजयी, गतिशील, जितेन्द्रिय, ज्ञानरुचि, प्राणसाधक व प्रभु के उपासक' पुरुषों के साथ हो। इस सम्पर्क से हम भी इन जैसे बन पायेंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आपल्यासारखाच व्यवहार सर्व प्राण्यांशी करतात त्याच विद्वानांना उत्तम समजले पाहिजे. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the light of the day and the peace of night, the ocean, the cosmic order, health and time of age, spiritual vision, spirit of nature, cosmic flow of energies, be friendly with us. May all these who, together in love and loyalty with Rudra, lord of generous abundance and universal justice of correctitude, bear and carry our prayers and adorations and yajnic offerings with all our obedience and salutations to the Lord.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Vishvedevāh are mentioned again.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the men loving and serving a mighty person cause the wicked to weep, because they give up all bad habits and acts and who bear praiseworthy qualities. May the Mitra (friendly to all), noble, dispenser of justice, possessor of abundant wealth, and great scholar, grant us long life. (May they all love us and guide to lead noble and long life).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those enlightened persons only should be regarded as noble who deal with all living beings as their ourselves.

    Foot Notes

    (ऋभुक्षा:) महान् विद्वान् । ऋभुक्षा इति महनाम (NG 3, 3)। = A great scholar. (मरुतः ) मनुष्याः । मरुतो मितराविणो वा मितरोचिनो वा मरुद् द्रवन्तीति वा (NKT 11, 2, 14 ) । = Men. (सुवृक्तिम् ) सुष्ठुवर्जनम् । वृजी वर्जने (अदा० )। = To give up thoroughly bad habits and actions.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top