ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
प्र स॒क्षणो॑ दि॒व्यः कण्व॑होता त्रि॒तो दि॒वः स॒जोषा॒ वातो॑ अ॒ग्निः। पू॒षा भगः॑ प्रभृ॒थे वि॒श्वभो॑जा आ॒जिं न ज॑ग्मुरा॒श्व॑श्वतमाः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒क्षणः॑ । दि॒व्यः । कण्व॑ऽहोता । त्रि॒तः । दि॒वः । स॒ऽजोषाः॑ । वातः॑ । अ॒ग्निः । पू॒षा । भगः॑ । प्र॒ऽभृ॒थे । वि॒श्वऽभो॑जाः । आ॒जिम् । न । ज॒ग्मुः॒ । आ॒श्व॑श्वऽतमाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः। पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सक्षणः। दिव्यः। कण्वऽहोता। त्रितः। दिवः। सऽजोषाः। वातः। अग्निः। पूषा। भगः। प्रऽभृथे। विश्वऽभोजाः। आजिम्। न। जग्मुः। आश्वश्वऽतमाः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! दिव्यः कण्वहोतेव यः सक्षणस्त्रितो दिवः कामयमानः सजोषा वातोऽग्निः प्रभृथे पूषा भगो विश्वभोजा आश्वश्वतमा आजिं जग्मुर्न प्र यत्यते स एव पुष्कलं भोगं प्रापयति ॥४॥
पदार्थः
(प्र) (सक्षणः) सोढा (दिव्यः) शुद्धव्यवहारः (कण्वहोता) कण्वो मेधावी चासौ होता दाता च (त्रितः) त्रिषु क्षित्युदकान्तरिक्षेषु वर्धमानः (दिवः) दिव्याः कामनाः (सजोषाः) सहैव सेवमानः (वातः) वायुः (अग्निः) पावकः (पूषा) पुष्टिकर्ता (भगः) ऐश्वर्य्यप्रदः (प्रभृथे) शुद्धकरणे व्यवहारे (विश्वभोजाः) यो विश्वं भुनक्ति पालयति सः (आजिम्) सङ्ग्रामम् (न) इव (जग्मुः) प्राप्नुवन्ति (आश्वश्वतमाः) आशवः सद्योगामिनो अश्वा विद्यन्ते येषान्ते ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्यो ! यूयमग्न्यादिकपदार्थैर्दारिद्र्यं विच्छिद्य श्रीमन्तो भवेयुः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (दिव्यः) शुद्ध व्यवहारयुक्त (कण्वहोता) बुद्धिमान् तथा देने और ग्रहण करनेवाले के सदृश जो (सक्षणः) सहनेवाला (त्रितः) तीन पृथिवी, जल और अन्तरिक्ष में बढ़ता (दिवः) श्रेष्ठ कामनाओं की इच्छा करता और (सजोषाः) साथ ही सेवन (वातः) वायु और (अग्निः) अग्नि (प्रभृथे) शुद्ध करनेवाले व्यवहार में (पूषा) पुष्टि करने वा (भगः) ऐश्वर्य का देने वा (विश्वभोजाः) संसार का पालन करनेवाला और (आश्वश्वतमाः) शीघ्र चलनेवाले घोड़े जिसके विद्यमान वे (आजिम्) सङ्ग्राम को (जग्मुः) जैसे प्राप्त होते हैं (न) वैसे (प्र) प्रयत्न किया जाता है, वही बहुत भोग की प्राप्ति कराता है ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग अग्नि आदि पदार्थों से दारिद्र्य का नाश करके धनवान् हूजिये ॥४॥
विषय
कार्यकर्त्ताओं की अविलम्बकारी होने का उपदेश ।
भावार्थ
भा०- (आशु-अश्वतमाः प्रभृते आजिं न ) जिस प्रकार अति वेगवान् अश्वारोही लोग शत्रु पर प्रहार करने के लिये संग्राम में वेग से जाते हैं उसी प्रकार ( प्र-भृथे ) राज्य को अच्छी प्रकार भरण पोषण वा पालन के कार्य में भी ( सक्षणः ) अति सहनशील, शत्रुपराजयकारी, सावधान, समवायवान् (दिव्यः ) तेजस्वी ( कण्व-होता ) विद्वान् पुरुषों को देने वाला, वा विद्वानों से उपदेश किया गया, (त्रितः ) मन, वाणी और देह तीनों में स्थिर, तीनों विद्याओं में निष्णात, शत्रु, मित्र, उदासीन तीनों में प्रसिद्ध, (दिवः सजोषाः ) विजय कामना को चाहने वाला, ( वातः ) वायुवद् बलशाली, ( अग्निः ) अग्निवत् तेजस्वी और (पूषा ) सर्वपोषक ( भगः ) ऐश्वर्यं सम्पन्न ये सब प्रकार के पुरुष ( विश्व-भोजाः ) समस्त राष्ट्र के पालन करने हारे लोग ( आशु-अश्वतमाः ) अति वेगयुक्त अश्वों पर चढ़कर (प्र जग्मुः ) जाया करें । युद्धवत् ही राष्ट्र के कार्यों में सब लोग वेग से ही जाया आया करें, विलम्ब न किया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥
विषय
जीवन संग्राम में चलनेवाले
पदार्थ
[१] (प्र सक्षणः) = [प्रकर्षेण शत्रूणां सोढा१] खूब ही काम-क्रोध आदि शत्रुओं का यह पराभव करनेवाला होता है। इस शत्रुओं के पराभव के लिये ही (दिव्यः) सदा ज्ञान प्रकाश में निवास करनेवाला होता है (कण्वहोता) = [कण्वश्चासौ होता च१] मेधावी बनकर दान देनेवाला बनता है। अदान व लोभ ही सब बुराइयों का मूल है। पर अपात्र में दिया हुा दान समाज के लिये हानिकर भी तो होता है । सो यह बड़ी समझदारी से दान देनेवाला बनता है। [२१] इस प्रकार यह (त्रितः) = 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को तैरनेवाला और (दिवः) = ज्ञान को प्राप्त करनेवाला बनता है अथवा [दिव् स्तुतौ१] प्रभु स्तवन की वृत्तिवाला बनता है। (सजोषाः) = यह परिवार में व समाज में सब के साथ मिलकर काम करनेवाला तथा (वातः) = वायुवत् क्रियाशील (अग्निः) = प्रगतिशील होता है, सदा उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है। [३१] इस जीवन-यात्रा में यह (पूषा) = उचित प्रकार से पोषण करनेवाला होता है, अपने 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी का ठीक प्रकार से विकास करता है। इस विकास के लिये ही (भगः) = ऐश्वर्यशाली बनता है, विकास के लिये आवश्यक धन को कमाता ही है। इस बात का ध्यान करता है कि इसका ऐश्वर्य इसके विलास का कारण न बन जाये और अतिरिक्त धन से प्रभृथे प्रकृष्ट भरण के कार्यों में लगा हुआ यह (विश्वभोजाः) = सभी का पालन करता है, उस पालन के कार्य में संकुचित हृदयता के कारण यह 'भेदभाव' के दृष्टिकोण से न देखकर केवल मानवता के दृष्टिकोण से देखता है। [४१] ये व्यक्ति इस जीवन-यात्रा में न इस प्रकार चलते हैं जैसे कि (आजिम्) = संग्राम में चल रहे हों। जीवन इनके लिये संग्राम होता है। ये आशु (अश्वतमाः) = शीघ्र गतिवाले उत्कृष्ट इन्द्रियाश्वोंवाले बनते हैं। इन इन्द्रियाश्वों के द्वारा ही तो इन्होंने जीवन संग्राम में विजय पानी है ।
भावार्थ
भावार्थ– जीवन को संग्राम समझकर चलनेवाला व्यक्ति निज जीवन को सब तरह से उत्तम बनाकर समाज भरण के कार्यों में प्रवृत्त होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही अग्नी इत्यादी पदार्थांनी दारिद्र्याचा नाश करून धनवान व्हा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The refulgent yajaka, forbearing, challenging and victorious, intelligent and self-conscious (Kanva), Trita, active and expansive in the three regions of the universe, i.e., the sun, wind and electric energy, heat and light, nourishment and growth, power, prosperity, honour and excellence, all operative together in love like friends, with brilliant holy ambitions for the advancement of the world, may, we plan and pray, come like warriors flying to the battle business of life on the wings of fastest coursers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Vishvedevah is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! the man who tries to obtain desirable objects like a wiseman, who is performer of the Yajnas and a liberal donor, and is a man of endurance, growing in and travelling on earth, in water and firmament, has noble desires. He serves the enlightened people in association with others, purifying like the fire and active like the air. He is nourisher, giver of wealth, sustainer or cherisher of all in purifying dealings and conveys abundant enjoyment soon, like those who have speedy horses to go to the battlefields quickly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should become rich by eradicating the poverty by the proper use of Agni (energy/power and electricity) and other things.
Foot Notes
(कण्वहोता) कण्वो मेधावी चासौ होता दाता च । कण्व इति मेघाविनाम (NG 3, 15)। = A genius of extremely wiseman who is the performer of the Yajnas and a liberal donor. (त्रित:) त्रिषु क्षित्युदकान्तरिक्षेषु वर्धमानः । हु-दानादनयोः आदाने च ( जुहो० ) । अन्न दानार्थकः। = Growing in all three regions earth water and firmament. (आजिम्) सङ्ग्रामम् । आजो इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) = Battlefield. (दिवः) दिव्या: कामना: । = Divine or noble desires.
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