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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 8
    ऋषि: - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि वो॑ अर्चे पो॒ष्याव॑तो॒ नॄन्वास्तो॒ष्पतिं॒ त्वष्टा॑रं॒ ररा॑णः। धन्या॑ स॒जोषा॑ धि॒षणा॒ नमो॑भि॒र्वन॒स्पतीँ॒रोष॑धी रा॒य एषे॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । वः॒ । अ॒र्चे॒ । पो॒ष्याऽव॑तः । नॄन् । वास्तोः॑ । पति॑म् । त्वष्टा॑रम् । ररा॑णः । धन्या॑ । स॒ऽजोषाः॑ । धि॒षणा॑ । नमः॑ऽभिः । वन॒स्पती॑न् । ओष॑धीः । रा॒यः । एषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि वो अर्चे पोष्यावतो नॄन्वास्तोष्पतिं त्वष्टारं रराणः। धन्या सजोषा धिषणा नमोभिर्वनस्पतीँरोषधी राय एषे ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। वः। अर्चे। पोष्याऽवतः। नॄन्। वास्तोः। पतिम्। त्वष्टारम्। रराणः। धन्या। सऽजोषाः। धिषणा। नमःऽभिः। वनस्पतीन्। ओषधीः। रायः। एषे ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा धन्या सजोषा धिषणा नमोभिर्वनस्पतीनोषधी राय एषे प्रभवति तथा वास्तोष्पतिं त्वष्टारं रराणोऽहं पोष्यावतो वो नॄन्नभ्यर्चे ॥८॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (वः) युष्मान् (अर्चे) सत्करोमि (पोष्यावतः) बहवः पोष्याः पोषणीया विद्यन्ते येषान्तान् (नॄन्) मनुष्यान् (वास्तोः) निवासस्थानस्य (पतिम्) पालकम् (त्वष्टारम्) तेजस्विनम् (रराणः) दाता (धन्या) धनं लब्ध्री (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनी (धिषणा) प्रज्ञा (नमोभिः) सत्कारैरन्नादिभिर्वा (वनस्पतीन्) अश्वत्थादीन् (ओषधीः) यवसोमलतादीन् (रायः) धनानि (एषे) प्राप्तुम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा तीव्रया प्रज्ञया विद्यया च युक्ता नरो वैद्यकविद्यां विज्ञाय मनुष्यादीन् पालयन्ति तथैव सर्वहितमिच्छुकान् जनान् सदैव सत्कुर्वन्तु ॥८॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (धन्या) धन को प्राप्त हुई (सजोषाः) तुल्य प्रीति की सेवनेवाली (धिषणा) बुद्धि (नमोभिः) सत्कारों वा अन्न आदिकों से (वनस्पतीन्) अश्वत्थ आदि और (ओषधीः) यव सोमलतादिकों को तथा (रायः) धनों को (एषे) प्राप्त होने के लिये समर्थ होती है, वैसे (वास्तोः) निवास के स्थान के (पतिम्) पालनेवाले (त्वष्टारम्) तेजस्वीजन को (रराणः) दाता मैं (पोष्यावतः) बहुत पोषण करने योग्य पदार्थ जिनके विद्यमान उन (वः) आप (नॄन्) मनुष्यों का (अभि, अर्चे) प्रत्यक्ष सत्कार करता हूँ ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे तीव्र बुद्धि और विद्या से युक्त मनुष्य वैद्यक विद्या को जान कर मनुष्य आदिकों का पालन करते हैं, वैसे ही सब के हित की इच्छा करनेवाले मनुष्यों का सदा ही सत्कार करिये ॥८॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे तीव्र बुद्धी व विद्यायुक्त माणसे वैद्यकविद्या जाणून माणसांचे पालन करतात. तसेच सर्वांच्या हिताची इच्छा करणाऱ्या माणसांचा सदैव सत्कार करा. ॥ ८ ॥

    English (1)

    Meaning

    Happy with myself, celebrant for you all, and for the achievement of wealth, power and all round prosperity, I honour, adore and serve the leaders who work for food and nourishment for growth. I honour the artist, architect and maker of forms, and love creative and friendly intelligence, trees and herbs, with reverence, gratitude, replenishment and renewal.

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