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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    तु॒जे न॒स्तने॒ पर्व॑ताः सन्तु॒ स्वैत॑वो॒ ये वस॑वो॒ न वी॒राः। प॒नि॒त आ॒प्त्यो य॑ज॒तः सदा॑ नो॒ वर्धा॑न्नः॒ शंसं॒ नर्यो॑ अ॒भिष्टौ॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तु॒जे । नः॒ । तने॑ । पर्व॑ताः । स॒न्तु॒ । स्वऽए॑तवः । ये । वस॑वः । न । वी॒राः । प॒नि॒तः । आ॒प्त्यः । य॒ज॒तः । सदा॑ । नः॒ । वर्धा॑त् । नः॒ । शंस॑म् । नर्यः॑ । अ॒भिष्टौ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुजे नस्तने पर्वताः सन्तु स्वैतवो ये वसवो न वीराः। पनित आप्त्यो यजतः सदा नो वर्धान्नः शंसं नर्यो अभिष्टौ ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुजे। नः। तने। पर्वताः। सन्तु। स्वऽएतवः। ये। वसवः। न। वीराः। पनितः। आप्त्यः। यजतः। सदा। नः। वर्धात्। नः। शंसम्। नर्यः। अभिष्टौ ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! ये स्वैतवो वसवो वीरा न तने तुजे नः पर्वता मेघा दातार इव सन्तु योऽभिष्टौ पनित आप्त्यो यजतो नः सदा वर्धाद्यो नर्य्यो नः शंसं प्रापयेत्तान् सर्वान् वयं सत्कुर्याम ॥९॥

    पदार्थः

    (तुजे) दाने (नः) अस्मभ्यम् (तने) विस्तीर्णे (पर्वताः) जलप्रदा मेघा इव (सन्तु) (स्वैतवः) सुष्ठुगमनाः (ये) (वसवः) पृथिव्यादयः (न) इव (वीराः) प्रज्ञाशरीरबलयुक्ताः (पनितः) प्रशंसितः (आप्त्यः) आप्तेषु भवः (यजतः) सङ्गन्ता पूजनीयः (सदा) (नः) अस्मान् (वर्धात्) वर्धयेत् (नः) अस्मान् (शंसम्) प्रशंसाम् (नर्यः) नृषु साधुः (अभिष्टौ) इष्टसिद्धौ ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये वीरवच्छत्रुनिवारका मेघवद्दातारो वायुवद्वेगवन्तो विद्वांसोऽस्मान्नित्यं वर्धयेयुस्तान् वयमपि वर्धयेमहि ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ये) जो (स्वैतवः) उत्तम गमनवाले (वसवः) पृथिवी आदि (वीराः) बुद्धि और शरीर के बल से युक्त जनों के (न) सदृश (तने) विस्तीर्ण (तुजे) दान में (वः) हम लोगों के लिये (पर्वताः) जल के देनेवाले मेघ और दाता जनों के सदृश (सन्तु) होवें और जो (अभिष्टौ) इष्ट की सिद्धि में (पनितः) प्रशंसित (आप्त्यः) यथार्थवक्ता जनों में उत्पन्न (यजतः) मिलने वा सत्कार करने योग्य जन (नः) हम लोगों की (सदा) सदा (वर्धात्) वृद्धि करे और जो (नर्य्यः) मनुष्यों में श्रेष्ठ (नः) हम लोगों को (शंसम्) प्रशंसा को प्राप्त करावें, उन सब का हम लोग सत्कार करें ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो जन वीरजनों के सदृश शत्रुओं के निवारण करने, मेघ के सदृश देनेवाले और वायु के सदृश वेगयुक्त विद्वान् हम लोगों की नित्य वृद्धि करें, उनकी हम लोग भी वृद्धि करें ॥९॥

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    विषय

    पोष्य वर्ग का आदर । पालनकर्त्ताओं के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( पर्वताः तुजे तने स्वैतवः बसवः ) विस्तृत राष्ट्र में पर्वत अर्थात् पालन करने, धन देने वाले और प्रजाओं को बसाने वाले होते हैं और जिस प्रकार मेघ प्रजा के पालन में स्वयं आने वाले होकर प्रजा को बसाने हारे होते हैं उसी प्रकार ( पर्वताः ) पालनकारी साधनों से युक्त बड़े लोग भी ( तने ) विस्तृत राष्ट्र में रह कर (नः तुजे ) हमें ऐश्वर्यं देने, पालने में (स्वैतवः ) स्वयं आगे आने वाले, अग्रसर और धन प्राप्त करने वा कराने वाले और ( वसवः ) स्वयं बसने और प्रजाओं को बसाने वाले ( वीराः न ) वीर पुरुषों के समान सदा उत्साही हों । ( पनितः ) प्रशंसनीय, व्यवहारकुशल, ( आप्त्यः ) आप्त पुरुषों का हितकारी, ( यजतः ) दानशील, सब के साथ प्रेम सौहार्द से वर्त्तने वाला, ( नर्यः ) मनुष्यों का हितकारी पुरुष ( नः अभिष्टौ ) हमारे अभीष्ट कार्य में (नः) हमारे ( शंसं ) स्तुत्य ज्ञान और ऐश्वर्य को ( वर्धात् ) बढ़ावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    किनका सम्पर्क ?

    पदार्थ

    [१] यज्ञशीलता उत्पन्न तभी हो सकती है, यदि बाल्यकाल से ही हमें उत्तम पुरुषों का सम्पर्क प्राप्त हो । सो प्रार्थना करते हैं कि (न:) = हमारे तुजे पुत्रों के लिये तथा (तने) = पौत्रों के लिये (पर्वता:) = [पर्व पूरणे] जीवन को उत्तमताओं से भरनेवाले आचार्य (स्वैतवः) = स्वयं प्राप्त होनेवाले हों। अर्थात् प्रभु कृपा से हमारे पुत्र-पौत्रों को उत्तम आचार्य प्राप्त हों। वे आचार्य जो कि (न) = जैसे वे (वसवः) = निवास को उत्तम बनानेवाले हैं, वैसे ही (वीराः) = वीर हैं। कायर के सम्पर्क में तो वे बालक कायर ही बनेंगे। [२] (पनित:) = [ पनितं अस्य अस्तीति] सदा स्तुतिमय जीवनवाला, (आप्त्यः) = सब औचित्यों से युक्त [आप्ति-propriety] (यज्ञत:) = यज्ञशील पुरुष सदा-हमेशा (नः) = हमें (वर्धात्) = बढ़ानेवाला हो। इसके सम्पर्क में आकर हम भी ऐसे ही बनें। (नर्यः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाला यह व्यक्ति (अभिष्टौ) = वासनारूप शत्रुओं पर आक्रमण के निमित्त (नः शंसम्) = हमारी स्तवन की वृत्ति को बढ़ानेवाला हो। इसके सम्पर्क में हम भी प्रभु के स्तव्रन करनेवाले बनें और इस प्रकार काम-क्रोध आदि को पराजित कर सकें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें उन मनुष्यों का सम्पर्क प्राप्त हो जो अपना पूरण करनेवाले हैं, निवास को उत्तम बनानेवाले हैं, वीर हैं, स्तुतिमय जीवनवाले, सब औचित्यों से युक्त व यज्ञशील हैं। इनके सम्पर्क में हम भी यज्ञशील व स्तोता बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान वीराप्रमाणे शत्रू निवारक, मेघाप्रमाणे दाता, वायुप्रमाणे वेगवान असून नित्य वृद्धी करतात त्यांची आम्हीही वृद्धी करावी. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the clouds and mountains be for the expansion of our charities. So may be the Vasus, abodes of life such as earth and oceans, suns and planets, as well as the brave and generous people of strength and intelligence, self-motivated, self-moved, celebrated, self-realised, creative and corporate powers, and may they all augment our honour and reputation in all fields of human welfare.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Vishvedevāh goes on

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! may the moving earth and other VASUS (places of habitation of various beings) be givers of happiness to us, like the heroes endowed with intellect and good physical strength, and like the clouds-givers of water in the vast gift of God, i. e. lands. We always honor those good men who make us grow in the fulfilment of the desired aim. The riches, and make us admirable, absolutely truthful enlightened venerable and the best among men who make us praiseworthy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    We also cause the noble enlightened persons to grow because they are destroyers of the foes like the herbs, donors like the clouds and quick like the wind.

    Foot Notes

    (तुजे ) दाने । तुज-हिसाबलादाननिकेतनेषु (चुरा० ) अत्र आ सर्वतः दानमित्यर्थमादाय-दाने इति व्याख्या । = In the act of gift. (तने) विस्तीर्णे । = Vast. (स्वैतवः), सुष्ठुगमनाः । ऐतवः प्रा + इण गतौ (अदा० ) । = Of good movement.

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