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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्जगती स्वरः - निषादः

    अत्यं॑ ह॒विः स॑चते॒ सच्च॒ धातु॒ चारि॑ष्टगातुः॒ स होता॑ सहो॒भरिः॑। प्र॒सर्स्रा॑णो॒ अनु॑ ब॒र्हिर्वृषा॒ शिशु॒र्मध्ये॒ युवा॒जरो॑ वि॒स्रुहा॑ हि॒तः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्य॑म् । ह॒विः । स॒च॒ते॒ । सत् । च॒ । धातु॑ । च॒ । अरि॑ष्टऽगातुः । सः । होता॑ । स॒हः॒ऽभरिः॑ । प्र॒ऽसर्स्रा॑णः । अनु॑ । ब॒र्हिः । वृषा॑ । शिशुः॑ । मध्ये॑ । युवा॑ । अ॒जरः॑ । वि॒ऽस्रुहा॑ । हि॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यं हविः सचते सच्च धातु चारिष्टगातुः स होता सहोभरिः। प्रसर्स्राणो अनु बर्हिर्वृषा शिशुर्मध्ये युवाजरो विस्रुहा हितः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्यम्। हविः। सचते। सत्। च। धातु। च। अरिष्टऽगातुः। सः। होता। सहःऽभरिः। प्रऽसर्स्राणः। अनु। बर्हिः। वृषा। शिशुः। मध्ये। युवा। अजरः। विऽस्रुहा। हितः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मेघविषयेण राजगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽरिष्टगातुः सहोभरिर्होता प्रसर्स्राणो वृषा युवाजरो विस्रुहा हितो बर्हिरनु सच्च धातु चात्यं हविः सचते स शिशुर्मातरमिव जगतो मध्ये पुण्येन युज्यते ॥३॥

    पदार्थः

    (अत्यम्) अतति व्याप्नोति तत्र भवम् (हविः) होतव्यं द्रव्यम् (सचते) सम्बध्नाति (सत्) यद्वर्त्तते तत् (च) (धातु) यद्दधाति तत् (च) (अरिष्टगातुः) अरिष्टा अहिंसिता गातुर्वाग्यस्य सः (सः) (होता) दाता (सहोभरिः) यः सहो बलं बिभर्ति (प्रसर्स्राणः) प्रकर्षेण भृशं गच्छन् (अनु) (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (वृषा) बलिष्ठः (शिशुः) बालकः (मध्ये) (युवा) प्राप्तयौवनावस्थः (अजरः) वृद्धावस्थारहितः (विस्रुहा) यो विस्रून् रोगान् हन्ति (हितः) हितकारी ॥३॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा होता सुगन्ध्यादियुक्तेनाग्नौ हुतेन द्रव्येण वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारा जगति सुखमुपकरोति तथा न्यायकीर्तिवासनया दत्तया विद्यया च राष्ट्रं सुखी कुरु ॥३॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब मेघविषय से राजगुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अरिष्टगातुः) ऐसा है कि जिसकी नहीं हिंसित वाणी वह (सहोभरिः) बल को धारण करनेवाला (होता) दाताजन (प्रसर्स्राणः) प्रकर्षता से अत्यन्त चलता हुआ (वृषा) बलिष्ठ (युवा) यौवन अवस्था को प्राप्त (अजरः) वृद्ध अवस्था से रहित (विस्रुहा) रोगों का नाश करनेवाला (हितः) हितकारी (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (अनु) पश्चात् (सत्) वर्त्तमान को (च) और (धातु) धारण करनेवाले (च) और (अत्यम्) व्याप्त होनेवाले में उत्पन्न (हविः) हवन करने योग्य द्रव्य को (सचते) सम्बन्धित करता है (सः) वह (शिशुः) बालक माता को जैसे वैसे संसार के (मध्ये) बीच में पुण्य से युक्त होता है ॥३॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे हवन करनेवाला सुगन्धि आदि से युक्त, अग्नि में हवन किये हुए द्रव्य से वायु, वृष्टि और जल की शुद्धि के द्वारा संसार में सुख का उपकार करता है, वैसे न्याय और कीर्ति की वासना से युक्त दी हुई विद्या से राज्य देश को सुखी करिये ॥३॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जसा याज्ञिक सुगंधीने युक्त अग्नीत हवन केलेल्या द्रव्याने वायू वृष्टी व जलाच्या शुद्धीद्वारे जगात सुख निर्माण करून उपकार करतो. तसे तू विद्येद्वारे न्याय व कीर्तीची इच्छा बाळगून राष्ट्राला सुखी कर. ॥ ३ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    (He abides in, with, and above the dynamics of the yajnic evolution of existence: consumer, consumed, consumption, evolution and devolution, the beginning and the end, all): He abides with the food of life. He is truth, reality, eternity. He is the wielder, sustainer and commander of the world in existence. Inviolable is his word, uncharted his way. He is the yajaka, creator and giver. He is the lord and controller of power and potential, challenge and forbearance. He is ever on the move across the skies and spaces. He is the generous cloud, the seedling in the womb of existence, ever young, unaging, antidote of negative destruction, and loving support of all.

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