ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒मु॒द्रमा॑सा॒मव॑ तस्थे अग्रि॒मा न रि॑ष्यति॒ सव॑नं॒ यस्मि॒न्नाय॑ता। अत्रा॒ न हार्दि॑ क्रव॒णस्य॑ रेजते॒ यत्रा॑ म॒तिर्वि॒द्यते॑ पूत॒बन्ध॑नी ॥९॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रम् । आ॒सा॒म् । अव॑ । त॒स्थे॒ । अ॒ग्रि॒मा । न । रि॒ष्य॒ति॒ । सव॑नम् । यस्मि॑न् । आऽय॑ता । अत्र॑ । न । हार्दि॑ । क्र॒व॒णस्य॑ । रे॒ज॒ते॒ । यत्र॑ । म॒तिः । वि॒द्यते॑ । पू॒त॒ऽबन्ध॑नी ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रमासामव तस्थे अग्रिमा न रिष्यति सवनं यस्मिन्नायता। अत्रा न हार्दि क्रवणस्य रेजते यत्रा मतिर्विद्यते पूतबन्धनी ॥९॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रम्। आसाम्। अव। तस्थे। अग्रिमा। न। रिष्यति। सवनम्। यस्मिन्। आऽयता। अत्र। न। हार्दि। क्रवणस्य। रेजते। यत्र। मतिः। विद्यते। पूतऽबन्धनी ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्मिन्नग्रिमा सवनं च न रिष्यत्यासां समुद्रमव तस्थे यत्रायता धनानि वर्धन्ते पूतबन्धनी मतिश्च विद्यते नात्रा क्रवणस्य हार्दि रेजते ॥९॥
पदार्थः
(समुद्रम्) अन्तरिक्षम् (आसाम्) प्रज्ञानाम् (अव) (तस्थे) अवतिष्ठते (अग्रिमा) अतिश्रेष्ठः (न) निषेधे (रिष्यति) हिनस्ति (सवनम्) ऐश्वर्य्यम् (यस्मिन्) (आयता) विस्तृतानि (अत्रा) अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (न) निषेधे (हार्दि) हृदयस्येदम् (क्रवणस्य) शब्दकर्त्तुः (रेजते) चलति (यत्रा) अत्रापि ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (मतिः) प्रज्ञा (विद्यते) (पूतबन्धनी) या पूतान् पवित्रान् गुणान् बध्नाति गृह्णाति सा ॥९॥
भावार्थः
ये प्रजानां मध्येऽन्तरिक्षमिव सुखाऽवकाशदा अहिंस्रा धीमन्त उपदेशका विद्यन्ते त एव सुखयुक्ता भवन्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (यस्मिन्) जिसमें (अग्रिमा) अतिश्रेष्ठ (सवनम्) ऐश्वर्य्य का (न) नहीं (रिष्यति) नाश करता है और (आसाम्) इन प्रजाओं के बीच (समुद्रम्) अन्तिरक्ष को (अव, तस्थे) स्थित होता है और (यत्रा) जहाँ (आयता) बहुत धनों की वृद्धि होती है और (पूतबन्धनी) पवित्र गुणों को ग्रहण करनेवाली (मतिः) बुद्धि (विद्यते) विद्यमान है (न) नहीं (अत्रा) इस में (क्रवणस्य) शब्द करनेवाले का (हार्दि) हृदयसम्बन्धी कार्य (रेजते) चलता है ॥९॥
भावार्थ
जो प्रजाओं के मध्य में अन्तरिक्ष के सदृश सुखरूपी अवकाश देनेवाले और नहीं हिंसा करनेवाले बुद्धिमान् उपदेशक विद्यमान हैं, वे ही सुखयुक्त होते हैं ॥९॥
विषय
उत्तम वाणी, उत्तम गति उन्नति का मूल है ।
भावार्थ
भा०- ( यस्मिन् ) जिस राष्ट्र में या जिस नायक के अधीन रहकर ( आयता ) अति विस्तृत राज्य के क्षेत्र और विस्तृत भूमि वा वाणी ( सवनं ) ऐश्वर्य वा और भक्ति भाव को ( न रिष्यति ) नाश नहीं होने देती और ( अग्रिमा) श्रेष्ठ, सर्वप्रथम, उत्तम वाणी ( आसाम् ) उन प्रजाओं के बीच ( समुद्रम् ) समुद्र वा अन्तरिक्ष के तुल्य गंभीर और सर्वोपरि छायाकारी पुरुष को ( अव तस्थे ) प्राप्त हो ( अत्र ) उसके विषय में ( क्रवणस्य ) कर्म कुशल पुरुष के भी ( हार्दि न रेजते ) हृदय के भाव विचलित नहीं होते ( यत्र ) और जिसके विषय में ( पूतबन्धनी ) पवित्र गुणों से गुथी ( मतिः) बुद्धि ( विद्यते ) सदा बनी रहती है वही उत्तम पद को प्राप्त होने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सारः काश्यप अन्थे च सदापृणबाहुवृक्तादयो दृष्टलिंगा ऋषयः ॥ विश्वदेवा देवताः ॥ छन्दः–१, १३ विराड्जगती । २, ३, ४, ५, ६ निचृज्जगती । ८, ६, १२ जगती । ७ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, ११ स्वराट् त्रिष्टुप् । १४ विराट् त्रिष्टुप् । १५ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पूतबन्धनी मति
पदार्थ
[१] (आसाम्) = गतमन्त्र में संकेतित स्तुतियों में (अग्रिमा) = [अल्पेतं श्रेष्ठा] अतिशयेन श्रेष्ठ स्तुति (समुद्रम्) = उस आनन्दमय प्रभु के समीप (अवतस्थे) = स्थित होती है। (यस्मिन्) = जिस भी पुरुष में (आयता) = इस स्तुति का विस्तार होता है, उसमें (सवनम्) = यज्ञ (न रिष्यति) = हिंसित नहीं होता। अर्थात् प्रभु का स्तवन करनेवाला व्यक्ति सदा यज्ञशील होता है । वस्तुतः इन यज्ञादि कर्मों का करना ही सच्चा स्तवन होता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:' । [२] (अत्रा) = इस स्तुति के होने पर (श्रवणस्य) = इस स्तुतिकर्ता का (हार्दि) = हृदयगत प्रभु प्राप्ति का भाव (न रेजते) = विचलित नहीं होता। इसे प्रभु प्राप्ति की कामना सदा बनी ही रहती है। (यत्रा) = जिस प्रभु प्राप्ति की कामना में (मतिः) = बुद्धि (पूतबन्धनी) = सदा पवित्र विचारों को अपने में बाँधनेवाली (विद्यते) = होती है। प्रभु प्राप्ति की कामना बनी रहने पर बुद्धि सदा पवित्र विचारों को ही करनेवाली होती है इसका झुकाव वैषयिक बातों की ओर नहीं रहता।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा प्रभु स्तवन की वृत्तिवाले बनें। ऐसा बनने पर हम यज्ञों के प्रति रुचिवाले व बुद्धि से पवित्र विचारों को करनेवाले होंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
प्रजेमध्ये अंतरिक्षाप्रमाणे सुख देणारे, अहिंसक, बुद्धिमान, उपदेशक विद्यमान असतात तेच सदैव सुखी असतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The fame and advancement of these people resounds over seas and abides over spaces, nor does their yajnic progress suffer where hymns are chanted and wealth grows in holiness. Here the heart’s desire of the worshipper is not obstructed where holy intelligence and intentions abide for guidance in action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of the learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! the heartly action of the preacher does not shake where the sublime wealth does not decay (is in abundance. Ed.), where the firmament (heart) of the people stands firmly, where the vast riches ever grow and where the intellect grasps pure virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those people only became happy who are bestowers of happiness among the people like the firmament, and who are non-violent and wise preachers.
Foot Notes
(समुद्रम् ) अन्तरिक्षम् । समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम (NG 1, 3) अन्तरिक्षं कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेणेति वा शरीरेषु अन्तरिक्षमयमतिवा (NKT 2, 3, 10 ) अतएव हृदयस्यापि ग्रहणमन्तरिक्षवत् तस्यमध्येस्थिते: । = Firmament. (सवनम् ) ऐश्वर्यम् । सवनम् -षु-प्रसर्वश्वयोः (स्वा० ) अत्र ऐश्वर्याथकः । = Wealth or prosperity. (क्रवणस्य ) शब्दकर्त्तुः । क्रङ्-शब्दे (भ्वा० ) = Of the preacher. (पूत्रबन्धनी) या पूतान पवित्रान् गुणान् बघ्नाति गृह्वाति सा । = That which grasps good virtues.
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