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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रतिप्रभ आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒य इ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वः॑ । दे॒वस्य॑ । ने॒तुः । मर्तः॑ । वु॒री॒त॒ । स॒ख्यम् । विश्वः॑ । रा॒ये । इ॒षु॒ध्य॒ति॒ । द्यु॒म्नम् । वृ॒णी॒त॒ । पु॒ष्यसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वो देवस्य नेतुर्मर्तो वुरीत सख्यम्। विश्वो राय इषुध्यति द्युम्नं वृणीत पुष्यसे ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वः। देवस्य। नेतुः। मर्तः। वुरीत। सख्यम्। विश्वः। राये। इषुध्यति। द्युम्नम्। वृणीत। पुष्यसे ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैर्विद्वन्मित्रत्वेन विद्याधने प्राप्य यशः प्रथितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    विश्वो मर्त्तो नेतुर्देवस्य सख्यं वुरीत विश्वो राय इषुध्यति येन त्वं पुष्यसे तत् द्युम्नं भवान् वृणीत ॥१॥

    पदार्थः

    (विश्वः) सर्वः (देवस्य) विदुषः (नेतुः) नायकस्य (मर्त्तः) मनुष्यः (वुरीत) स्वीकुर्य्यात् (सख्यम्) मित्रत्वम् (विश्वः) समग्रः (राये) धनाय (इषुध्यति) इषून् धरति (द्युम्नम्) यशः (वृणीत) (पुष्यसे) पुष्टो भवसि ॥१॥

    भावार्थः

    सर्वैमनुष्यैर्विद्याधनशरीरपुष्टिप्राप्तये विद्वच्छिक्षा शरीरात्मपरिश्रमश्च सततं कर्त्तव्यः ॥१॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब पाँच ऋचावाले पचासवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के साथ मित्रता से विद्या और धन को प्राप्त होकर यज्ञ बढ़ावें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (विश्वः) सम्पूर्ण (मर्त्तः) मनुष्य (नेतुः) अग्रणी (देवस्य) विद्वान् की (सख्यम्) मित्रता को (वुरीत) स्वीकार करें और (विश्वः) सम्पूर्ण (राये) धन के लिये (इषुध्यति) वाणों को धारण करता है और जिससे आप (पुष्यसे) पुष्ट होते हैं, उस (द्युम्नम्) यश को आप (वृणीत) स्वीकार करिये ॥१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्या धन और शरीरपुष्टि की प्राप्ति के लिये विद्वानों की शिक्षा, शरीर और आत्मा से परिश्रम निरन्तर करें ॥१॥

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    विषय

    विद्वानों वीरों को उत्तम मित्र और धनैश्वर्य प्राप्ति का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वन् ! वीर पुरुषो ! (विश्वः मर्त्तः) सब मनुष्य ( नेतुः देवस्य) नायक, तेजस्वी विद्वान्, और विजिगीषु, दानशील, व्यवहारज्ञ राजा की ( सख्यम् ) मित्रता ( वुरीत ) चाहो । ( विश्वः ) सभी ( राये ) धन की ( इषुध्यति ) इच्छा करें, या धन की प्राप्ति के लिये वाण आदि धारण करें, (पुण्य से ) पुष्ट होने के लिये सभी लोग (द्युम्नं ) धन को (वृणीत) प्राप्त करो । अथवा हे प्रजा जनो ! आप लोग (द्युम्नं वृणीत ) ऐश्वर्य प्राप्त करो और उसका विभाग करो। हे राजन् ( तेन त्वं पुष्यसे ) उस धन से तू भी पुष्ट हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः-१ स्वराडुष्णिक् । २ निचृदुष्णिक् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४, ५ निचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणावी.

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी विद्या धन व शरीरपुष्टीसाठी विद्वानांकडून शिक्षण घ्यावे. शरीर व आत्म्याद्वारे निरंतर परिश्रम करावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let all the mortals, people of the world, choose and win the favour and friendship of the brilliant leader and pioneer who targets and commands the wealth of the world. O people of the world choose the wealth, power and splendour of the world for the sake of growth and advancement.

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