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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 12
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तं नाक॑म॒र्यो अगृ॑भीतशोचिषं॒ रुश॒त्पिप्प॑लं मरुतो॒ वि धू॑नुथ। सम॑च्यन्त वृ॒जनाति॑त्विषन्त॒ यत्स्वर॑न्ति॒ घोषं॒ वित॑तमृता॒यवः॑ ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । नाक॑म् । अ॒र्यः । अगृ॑भीतऽशोचिषम् । रुश॑त् । पिप्प॑लम् । म॒रु॒तः॒ । वि । धू॒नु॒थ॒ । सम् । अ॒च्य॒न्त॒ । वृ॒जना॑ । अति॑त्विषन्त । यत् । स्वर॑न्ति । घोष॑म् । विऽत॑तम् । ऋ॒त॒ऽयवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं नाकमर्यो अगृभीतशोचिषं रुशत्पिप्पलं मरुतो वि धूनुथ। समच्यन्त वृजनातित्विषन्त यत्स्वरन्ति घोषं विततमृतायवः ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। नाकम्। अर्यः। अगृभीतऽशोचिषम्। रुशत्। पिप्पलम्। मरुतः। वि। धूनुथ। सम्। अच्यन्त। वृजना। अतित्विषन्त। यत्। स्वरन्ति। घोषम्। विऽततम्। ऋतऽयवः ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यूयमर्य इव ऋतायवो यद्विततं घोषं स्वरन्ति तमगृभीतशोचिषं रुशत् पिप्पलं नाकं समच्यन्त दुःखं वि धूनुथ वृजनातित्विषन्त ॥१२॥

    पदार्थः

    (तम्) (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (अर्यः) स्वामीश्वरः (अगृभीतशोचिषम्) न गृहीतं शोचिर्यस्मिंस्तम् (रुशत्) सुस्वरूपम् (पिप्पलम्) फलभोगम् (मरुतः) वायुरिव वर्त्तमानाः (वि) विशेषेण (धूनुथ) कम्पयथ (सम्) (अच्यन्त) सम्यक् प्राप्नुत (वृजना) वृजन्ति यैस्तानि (अतित्विषन्त) प्रदीपयत प्रकाशिता भवत (यत्) यम् (स्वरन्ति) उच्चरन्ति (घोषम्) वाचम् (विततम्) विस्तृतम् (ऋतायवः) आत्मन ऋतमिच्छवः ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्या ईश्वरवन्न्यायकारिणो जगदुपकारकाः उपदेशकाः सन्ति ते जगद्भूषका वर्त्तन्ते ॥१२॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायु के सदृश वेगयुक्त वर्त्तमान जनो ! आप लोग (अर्यः) स्वामी ईश्वर के सदृश (ऋतायवः) अपने सत्य की इच्छा करते हुए (यत्) जिस (विततम्) विस्तृत (घोषम्) वाणी का (स्वरन्ति) उच्चारण करते हैं (तम्) उस (अगृभीतशोचिषम्) अगृभीतशोचिषम् अर्थात् नहीं ग्रहण की स्वच्छता जिसमें ऐसे (रुशत्) अच्छे स्वरूपवाले (पिप्पलम्) फलभोगरूप (नाकम्) दुःखरहित आनन्द को (सम्, अच्यन्त) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये दुःख को (वि) विशेष करके (धूनुथ) कम्पाइये और (वृजना) चलते हैं जिनसे उनको (अतित्विषन्त) प्रकाशित कीजिये तथा प्रकाशित हूजिये ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ईश्वर के सदृश न्यायकारी सम्पूर्ण जगत् के उपकार करनेवाले और उपदेशक हैं, वे संसार के भूषक हैं ॥१२॥

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    विषय

    चमकते मेघोंवत् शत्रु पर वीरों के आक्रमण की आज्ञा ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( मरुतः पिप्पलं वि धुन्वन्ति ) वायु गण मेघस्थ जल को कंपाते हैं, ( अगृभीत-शोचिषं नाकं वि धुन्वन्ति ) जिसके तेज को कोई पकड़ न सके ऐसे विद्युन्मय मेघ को भी वे कंपा देते हैं तब (वृजना सम् अच्यन्त ) जल एकत्र हो जाते हैं और ( वृजना अतित्विषन्त ) आकाश के भाग खूब चमक उठते हैं, (ऋतायवः घोषं स्वरन्ति) जल युक्त मेघ गर्जन भी करते हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) प्रजा के वीर, व्यापारी एवं विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (अर्यः ) स्वामी, राजा के तुल्य ही ( तं ) उस (अग्रभीत-शोचिषं ) अग्निवत् असह्य तेज को धारण करने वाले ( नाकम् ) अति सुखमय, ( रुशत्) चमचमाते, (पिप्पलं ) ऐश्वर्यवान् शत्रु को भी (वि धूनुथ) विशेष रूप से कंपावे । (ऋतायवः) अन्न, ज्ञान और धन के इच्छुक लोग पद पद पर ( सम् अच्यन्त ) अच्छी प्रकार सत्संग किया करें, (वृजना ) अपने गमनयोग्य मार्गों को ( अतित्विषन्त ) खूब प्रकाशित करे और स्वयं भी प्रकाशित हों। और (ऋतायवः) सत्य, ज्ञान, धन के इच्छुक पुरुष भी ( यत् विततं ) विस्तृत ( घोषं स्वरन्ति ) जिसके उपदेश आज्ञावचन को प्राप्त करते हैं उसको प्रसन्न वा प्राप्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ईश्वराप्रमाणे न्यायी, संपूर्ण जगाला उपकारक व उपदेशक असतात ती जगाचे भूषण ठरतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, leading celebrants of action and Divinity, like a master of his own freedom in the laws of Truth and Divinity, shake the tree of existence by your noble action, bring down the balance sheet of your fruits of karma to Zero and win that rewarding state of ultimate freedom and bliss, void of suffering, beyond comprehension, which is pure ineffable refulgence of Divinity. Winding up their tally of karma, dismantling their fortifications, shining in the light divine, waxing in their search for Truth, when the celebrants raise the chant of Aum, they declare the victory and rest at the end of the road.

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