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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 8
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    नि॒युत्व॑न्तो ग्राम॒जितो॒ यथा॒ नरो॑ऽर्य॒मणो॒ न म॒रुतः॑ कव॒न्धिनः॑। पिन्व॒न्त्युत्सं॒ यदि॒नासो॒ अस्व॑र॒न्व्यु॑न्दन्ति पृथि॒वीं मध्वो॒ अन्ध॑सा ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒युत्व॑न्तः । ग्रा॒म॒ऽजितः॑ । यथा॑ । नरः॑ । अ॒र्य॒मणः॑ । न । म॒रुतः॑ । क॒व॒न्धिनः॑ । पिन्व॑न्ति । उत्स॑म् । यत् । इ॒नासः॑ । अस्व॑रन् । वि । उ॒न्द॒न्ति॒ । पृ॒थि॒वीम् । मध्वः॑ । अन्ध॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नियुत्वन्तो ग्रामजितो यथा नरोऽर्यमणो न मरुतः कवन्धिनः। पिन्वन्त्युत्सं यदिनासो अस्वरन्व्युन्दन्ति पृथिवीं मध्वो अन्धसा ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नियुत्वन्तः। ग्रामऽजितः। यथा। नरः। अर्यमणः। न। मरुतः। कबन्धिनः। पिन्वन्ति। उत्सम्। यत्। इनासः। अस्वरन्। वि। उन्दन्ति। पृथिवीम्। मध्वः। अन्धसा ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा नियुत्वन्तो ग्रामजितोऽर्यमणो न कबन्धिन इनासो नरो मरुतो यदुत्समिव पिन्वन्त्यस्वरन्नन्धसा सह मध्वस्सन्तः पृथिवीं व्युन्दन्ति ते भाग्यशालिनो भवन्ति ॥८॥

    पदार्थः

    (नियुत्वन्तः) निश्चयवन्तः (ग्रामजितः) ये ग्रामं जयन्ति ते (यथा) (नरः) नायकाः (अर्यमणः) न्यायेशाः (नः) (मरुतः) (कबन्धिनः) बहूदकाः (पिन्वन्ति) प्रीणन्ति (उत्सम्) कूपमिव (यत्) (इनासः) ईश्वराः समर्थाः (अस्वरन्) स्वरन्ति शब्दयन्ति (वि) (उन्दन्ति) क्लेदयन्ति (पृथिवीम्) (मध्वः) मधुरगुणयुक्ताः (अन्धसा) अन्नेन सह ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये जलवच्छान्तिकराः सामर्थ्यं वर्धयमाना विजयन्ते ते श्रियं लभन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (नियुत्वन्तः) निश्चयवान् (ग्रामजितः) ग्राम को जीतनेवाले (अर्यमणः) न्यायाधीशों के (न) सदृश (कबन्धिनः) बहुत जलों से युक्त (इनासः) समर्थ (नरः) नायक (मरुतः) मनुष्य (यत्) जिसको (उत्सम्) कूप के समान (पिन्वन्ति) तृप्त करते वा (अस्वरन्) शब्द करते हैं और (अन्धसा) अन्न के साथ (मध्वः) मधुर गुणयुक्त होते हुए (पृथिवीम्) पृथिवी को (वि, उन्दन्ति) विशेष गीला करते हैं, वे भाग्यशाली होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो जल के सदृश शान्ति करनेवाले और सामर्थ्य को बढ़ाते हुए विजय को प्राप्त होते हैं, वे लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं ॥८॥

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    विषय

    कृषि व्यपारादि की आज्ञा ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार जब ( इनासः अस्वरन् ) सूर्य के किरण अतितापयुक्त होते हैं ( कबन्धिनः मरुतः उत्सं पिन्वन्ति ) जल से भरे वायुगण मेघ आदि जलाशय को जल से पूर्ण करते हैं और (पृथिवीं मध्वः अन्धसा वि उन्दन्ति ) पृथिवी को मधुर जल और अन्न से गीला करते हैं। उसी प्रकार हे ( मरुतः ) प्रजा के मनुष्यो ! एवं वीर पुरुषो ! आप लोग ( नियुत्त्वन्तः ) अश्वों और अधीन नियुक्त पुरुषों तथा लक्षों सहायक पुरुषों के स्वामी होकर ( ग्रामजितः ) जन समूहों, ग्रामों देशों को जीतने वाले होवें । ( अर्यमणः ) सूर्यवत् तेजस्वी एवं शत्रुओं को नियंत्रण करने में समर्थ न्यायकारी ( नरः ) नायक और ( कबन्धिनः ) उत्तम हष्टपुष्ट देह वाले होकर ( यत् इनासः अस्वरन् ) जब स्वामीगण अपना स्वर ऊंचा करें, आज्ञा प्रदान करें तब ( उत्सं पिन्वन्ति ) उत्तम पद के धारक नायक को पुष्ट करें, उसके साथ सहोद्योगी हों । और (पृथिवीं) भूमिको ( मध्वः अन्धसः ) अन्न जल के उत्तम अंश से (वि उन्दन्ति ) ये सम्पन्न करें, उत्तम कृषि व्यापार आदि से ऐश्वर्य की वृद्धि करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    नियुत्वन्त:ग्रामजित:

    पदार्थ

    [१] (मरुतः) = प्राण (नियुत्वन्तः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले हैं, इन्द्रियों के दोषों को दग्ध करके ये उन्हें उत्तम बनाते हैं। (ग्रामजितः) = ये इन्द्रिय समूह को जीतनेवाले हैं। प्राणसाधक पुरुष जितेन्द्रिय बनता है। ये प्राण (अर्यमणः न नरः) = [अरीन् यच्छति] शत्रु विजेता मनुष्यों के समान (यथा) = जिस प्रकार (कवन्धिनः) = [क- बन्ध्] रेतः कणरूप जलों को शरीर में बाँधनेवाले हैं। उसी प्रकार उस (पिन्वन्ति) = ये हमारे ज्ञानस्रोत को परिपूर्ण करनेवाले होते हैं। रेतः कणों के रक्षण के अनुपात में ही ज्ञान स्रोत का वर्धन होता है। [२] (यत्) = जब (इनासः) = इन्द्रियादि के स्वामी होते हुए ये प्राण (अस्वरन्) = प्रभु-स्तवन करनेवाले बनते हैं, अर्थात् जब प्राणसाधना से हमारी वृत्ति प्रभु स्तवन की बनती है, तब (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को (मध्वः) = इस सारभूत सोम के (अन्धसा) = भोजन से (व्युन्दन्ति) = विरोधरूप से सिक्त कर देते हैं। प्राणसाधना से प्रभु की ओर झुकाव होता है और उससे शरीर में सोम का सर्वत्र सेचन होता है। (वासना) = विनाश के द्वारा सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से इन्द्रियाँ निर्दोष बनती हैं, पुरुष जितेन्द्रिय बनकर प्रभु स्तवन की ओर झुकता है और सोम का रक्षण कर पाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे जलाप्रमाणे शांत असून सामर्थ्य वाढवून विजय मिळवितात ते श्रीमंत होतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Great organisers, winners of multitudes and human habitations like leading lights, makers of men and dispensers of justice on the paths of life, the Maruts are reservoirs of vitality and exhilaration like the clouds of living waters and freshness of breeze. And when the mighty forces set out in motion, whistling, roaring, thundering, they fill the rivers, lakes and oceans over and surfeit the earth with honey sweets of food and energy for the joy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men behave (and act. Ed.) is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become very fortunate who being men of firm determination, conquer (the hearts of ) villagers, dispense justice, have plenty of water resources (or water like peace), and are masters of their senses. Such leaders please all. like the well that pleases the thirsty, and utter true and sweet words. Being full of sweetness with good food, they sprinkle the earth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are spreaders of peace like the water and who augment their strength, ultimately conquer. Obtain wealth and prosperity.

    Foot Notes

    (नियुत्वन्तः ) निश्चयवन्त: । नि+यु मिश्रण-मिश्रणयोः । अत्र मिश्रणार्थः । मिश्रणयुक्ताः । अन्ध इत्यन्ननाम (NG 2, 7) = Men of determination. (कबन्धिनः ) बहूदकाः । कबन्धमिति उदकनाम (NG 1, 12)। = Having abundant water or are water-like calm nature. (अस्वरन् ) स्वरन्ति शब्दयन्ति । स्वृ- शब्दोपतापयोः (भ्वा० ) । = Utter, speak.

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