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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 56/ मन्त्र 8
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    रथं॒ नु मारु॑तं व॒यं श्र॑व॒स्युमा हु॑वामहे। आ यस्मि॑न्त॒स्थौ सु॒रणा॑नि॒ बिभ्र॑ती॒ सचा॑ म॒रुत्सु॑ रोद॒सी ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रथ॑म् । नु । मारु॑तम् । व॒यम् । श्र॒व॒स्युम् । आ । हु॒वा॒म॒हे॒ । आ । यस्मि॑न् । त॒स्थौ । सु॒रणा॑नि । बिभ्र॑ती । सचा॑ । म॒रुत्ऽसु॑ । रो॒द॒सी ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रथं नु मारुतं वयं श्रवस्युमा हुवामहे। आ यस्मिन्तस्थौ सुरणानि बिभ्रती सचा मरुत्सु रोदसी ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रथम्। नु। मारुतम्। वयम्। श्रवस्युम्। आ। हुवामहे। आ। यस्मिन्। तस्थौ। सुऽरणानि। बिभ्रती। सचा। मरुत्ऽसु। रोदसी ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 56; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्वायुगुणानाह ॥

    अन्वयः

    यस्मिन् सुरणानि सन्ति वीर आ तस्थौ यत्र मरुत्सु सुरणानि बिभ्रती सचा रोदसी वर्त्तेते तं मारुतं श्रवस्युं रथं नु वयमा हुवामहे ॥८॥

    पदार्थः

    (रथम्) विमानादियानम् (नु) सद्यः (मारुतम्) मनुष्यवायुसम्बन्धिनम् (वयम्) (श्रवस्युम्) आत्मनः श्रव इच्छुम् (आ) (हुवामहे) स्पर्धामहे (आ) (यस्मिन्) (तस्थौ) (सुरणानि) सुष्ठु रमणीयानि (बिभ्रती) धरन्त्यौ (सचा) सम्बुद्धौ (मरुत्सु) वायुषु (रोदसी) भूमिसूर्य्यौ ॥८॥

    भावार्थः

    यथा वायवो भूम्यादिकं धरन्ति तथैव विद्वांसः सर्वान् मनुष्यान् धरन्तु ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वायुगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिसमें (सुरणानि) सुन्दर रमण करने योग्य पदार्थ हैं और वीर (आ) सब प्रकार से (तस्थौ) स्थिर हैं तथा जिसमें (मरुत्सु) पवनों में सुन्दर पदार्थों को (बिभ्रती) धारण करते हुए (सचा) सम्बन्ध रखनेवाले (रोदसी) पृथिवी और सूर्य्य वर्त्तमान हैं उस (मारुतम्) मनुष्य और वायुसम्बन्धी (श्रवस्युम्) अपनी श्रवण की इच्छा करनेवाले की और (रथम्) विमान आदि वाहन की (नु) शीघ्र (वयम्) हम लोग (आ, हुवामहे) स्पर्द्धा करें ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे पवन भूमि आदि को धारण करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन सब मनुष्यों को धारण करें ॥८॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य और योग्य आदर ।

    भावार्थ

    भा०- ( वयम् ) हम लोग ( मारुतं ) वायु के बल वा वेग से चलने वाले ( श्रवस्युम् रथं ) यशोजनक, वा श्रवण योग्य शब्द वा विशेष ध्वनि से युक्त ( रथम् ) रथ को ( आ हुवामहे ) उत्तरोत्तर उन्नत रूप में बनाना चाहें। ( यस्मिन् ) जिसमें ( सुरणानि ) उत्तम रमण, आनन्द- विनोद एवं उत्तम युद्ध क्रीड़ा आदि (बिभ्रती ) करते हुए ( रोदसी ) दुष्ट को रुलाने वाले पालक सूर्य पृथिवीवत् राज प्रजा वर्ग सचा, एक साथ ( मरुत्सु ) मनुष्यों के बीच ( तस्थौ ) विराजें । अथवा । ( मारुतं ) मनुष्यों के हितकारी, ( श्रवस्युम् ) उत्तम उपदेश योग्य वा कीर्त्ति जनक उत्तमोत्तम राष्ट्र रूप रथ पर चढ़कर उत्तम रूप से रमण करते हुए (सचा ) सुख से प्रजावर्ग के साथ रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, २, ५ निचृद् बृहती ४ विराड्बृहती । ८, ९ बृहती । ३ विराट् पंक्तिः । ६, ७ निचृत्पंक्ति: ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मरुतों का श्रवस्यु रथ

    पदार्थ

    [१] (नु) = अब (वयम्) = हम (मारुतम्) = प्राणों के (श्रवस्युम्) = हमारे साथ ज्ञान को जोड़नेवाले (रथम्) = रथ को (आहुवामहे) = पुकारते हैं। यह शरीररूप रथ, प्राणसाधना के द्वारा केवल सुदृढ़ ही नहीं बनता, यह प्रकाशमय भी होता है। प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होकर, ज्ञानदीप्ति की प्राप्ति होती है। [२] हम प्राणों के उस रथ को पुकारते हैं यस्मिन्- जिसमें सुरणानि - उत्तम रमणीय ज्ञानों को बिभ्रती धारण करती हुई, मरुत्सु सचा प्राणों के साथ निवास करनेवाली, रोदसी = द्यावापृथिवी हृदय तथा शरीर में प्रभु की यह वेदवाणी आतस्थौ-स्थित होती है। प्राणसाधना के द्वारा बुद्धि तीव्र होकर वेदज्ञान को ग्रहण करनेवाली बनती है। यह वेदवाणी प्रभु ज्ञान है। प्रभु इसे माता के रूप में हमारे लिये प्रस्तुत करते हैं 'स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्'। यह तभी होता है जब कि हम प्राणसाधना द्वारा बुद्धि को तीव्र करने के लिये यत्नशील होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- यह शरीर सम्बन्धी रथ प्राणसाधना द्वारा दृढ़ व प्रकाशमय बनता है। इसमें रमणीय ज्ञानों को धारण करती हुई बुद्धि स्थित होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वायू भूमीला आधार देतात तसेच विद्वान लोक सर्व माणसांना आधार देतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We call up and ready in harness the stormy and resounding chariot of the Maruts in which both earth and the heavens treasuring many adorable energy prizes join with the Maruts in a bond of friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The properties of the air are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We call towards us (seek. Ed.) the glorious vehicles is (in the form of aircraft etc.) belonging to the mighty persons and connected with the air in which there are many enjoyable gifts and the heroes are therein. There are the sun and the earth connected with the winds upholding charming articles and attributes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the air, sun, and other objects uphold the earth, so the enlightened persons should uphold all men.

    Foot Notes

    (मारुतम् ) मनुष्यवायुसम्बन्धिनम् । = Related to men and air. (सुरणानि ) सुष्ठु रमणीयानि सुरणानि । सु + रमु क्रीडायाम् । रणाय-रमणीयाय (NKT 4, 1, 8) = Charming.

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