ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 56/ मन्त्र 9
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
तं वः॒ शर्धं॑ रथे॒शुभं॑ त्वे॒षं प॑न॒स्युमा हु॑वे। यस्मि॒न्त्सुजा॑ता सु॒भगा॑ मही॒यते॒ सचा॑ म॒रुत्सु॑ मीळ्हु॒षी ॥९॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः॒ । शर्ध॑म् । र॒थे॒ऽशुभ॑म् । त्वे॒षम् । प॒न॒स्युम् । आ । हु॒वे॒ । यस्मि॑न् । सुऽजा॑ता । सु॒ऽभगा॑ । म॒ही॒यते॑ । सचा॑ । म॒रुत्ऽसु॑ । मी॒ळ्हु॒षी ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वः शर्धं रथेशुभं त्वेषं पनस्युमा हुवे। यस्मिन्त्सुजाता सुभगा महीयते सचा मरुत्सु मीळ्हुषी ॥९॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वः। शर्धम्। रथेऽशुभम्। त्वेषम्। पनस्युम्। आ। हुवे। यस्मिन्। सुऽजाता। सुऽभगा। महीयते। सचा। मरुत्ऽसु। मीळ्हुषी ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 56; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वदुपदेशविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यस्मिन् सुजाता सुभगा सचा मीळ्हुषी मरुत्सु महीयते यमियमाप्नोति तं पनस्युमा हुवे तं वो रथेशुभं त्वेषं शर्धमा हुवे ॥९॥
पदार्थः
(तम्) (वः) युष्माकम् (शर्धम्) बलयुक्तम् (रथेशुभम्) यो रथे शुम्भते तम् (त्वेषम्) देदीप्यमानम् (पनस्युम्) आत्मनः पनः स्तवनमिच्छुम् (आ) (हुवे) (यस्मिन्) कुले (सुजाता) सम्यक् प्रसिद्धा (सुभगा) सौभाग्ययुक्ता (महीयते) सत्क्रियते (सचा) समवेता (मरुत्सु) मनुष्येषु (मीळ्हुषी) सेचनकर्त्री ॥९॥
भावार्थः
यस्मिन् कुले कृतब्रह्मचर्याः स्त्रीपुरुषा वर्त्तन्ते तदेव कुलं भाग्यशालि मन्तव्यमिति ॥९॥ अत्र विद्वद्वायुगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्पञ्चाशत्तमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के उपदेश विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्मिन्) जिस कुल में (सुजाता) उत्तम प्रकार प्रसिद्ध (सुभगा) सौभाग्य से युक्त (सचा) सम्बद्ध (मीळ्हुषी) सेचन करनेवाली (मरुत्सु) मनुष्यों में (महीयते) सत्कार की जाती और जिसको सेवन करनेवाली प्राप्त होती है (तम्) उस (पनस्युम्) अपनी स्तुति की इच्छा करते हुए को (आ, हुवे) बुलाता हूँ, उसको (वः) आप लोगों के (रथेशुभम्) रथ के द्वारा कहते हुए (त्वेषम्) प्रकाशमान (शर्धम्) बलयुक्त को पुकारता हूँ ॥९॥
भावार्थ
जिस कुल में किया ब्रह्मचर्य्य जिन्होंने ऐसे स्त्री और पुरुष वर्त्तमान हैं, उसी कुल को भाग्यशाली जानना चाहिये ॥९॥ इस सूक्त में विद्वान् तथा वायु के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छप्पनवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उनके कर्त्तव्य और योग्य आदर ।
भावार्थ
भा०-हे प्रजाजनो ! हे वीर पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों के ( रथे शुभं ) रथ में शोभा पाने वाले, ( त्वेषम् ) अति दीप्ति युक्त ( पनस्युं ) स्तुत्य, (शर्धम् ) बल, सैन्य को मैं ( आहुवे ) आदर पूर्वक बुलाता हूं । ( यस्मिन् ) जिसमें ( सुजाता ) उत्तम, कार्यों से प्रसिद्ध (मीढुषी) शत्रु पर शर आदि बरसाने वाली सेना ( मरुत्सु मीढुषी) वायुओं पर आश्रित बरसती घटा के तुल्य ( सुभगा ) उत्तम ऐश्वर्यवती, सौभाग्यवती स्त्री के तुल्य ( महीयते ) मान आदर प्राप्त करती है । इति विंशो वर्गः ॥ इति चतुर्थोऽनुवाक ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, २, ५ निचृद् बृहती ४ विराड्बृहती । ८, ९ बृहती । ३ विराट् पंक्तिः । ६, ७ निचृत्पंक्ति: ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'सुजाता- सुभगा-मीढुषी' बुद्धि
पदार्थ
[१] हे प्राणो ! (वः) = आपके (तम्) = उस (रथेशुभम्) = रथ में शोभा के कारणभूत, (त्वेषम्) = दीप्त (पनस्यु) = स्तुति के योग्य प्रशंसनीय (शर्धम्) = बल [गण] को आहुवे पुकारता हूँ। (यस्मिन्) = जिस बल में (मीढुषी) = सब सुखों का सेचन करनेवाली, (मरुत्सु सचा) = प्राणों के साथ समवेत होनेवाली, प्राणसाधना से उत्पन्न होनेवाली (सुभगा) = उत्तम ज्ञानैश्वर्यवाली (सुजाता) = उत्तम प्रादुर्भाव व विकासवाली बुद्धि (महीयते) = पूजित होती है। [२] प्राणों का बल [गण] शरीर-रथ को शोभावाला दीप्त व स्तुत्य बनाता है। इस प्राणों के गण की साधना के होने पर हमें वह बुद्धि प्राप्त होती है जो कि उत्तम विकास का कारण होती हुई उत्तम ज्ञानैश्वर्यवाली होती है और हमारे जीवन में सब सुखों का वर्षण करनेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणों का समूह इस शरीर-रथ को दीप्त बनाता है और तीव्र बुद्धि को प्राप्त कराता है। अगले सूक्त में भी इन्हीं मरुतों का ही आराधन है -
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या कुलात ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष असतात त्या कुलालाच भाग्यशाली म्हटले जाते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I admire that force and power of your chariot, shining, adorable and good for the chariot, in which are exalted the generous earth-and-heaven energies, nobly manifested and beneficent in abundance as friends of the Maruts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The teachings of the enlightened persons are further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! I admire that person who desires glory, in whose home a well-born and fortunate bounteous lady, sprinkles happiness and peace over all men with whom she is connected is well-honoured. I call hither this your host, who is brilliant on chariots, mighty and glorious.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That family only should be considered to be fortunate in which there are men and women who have completed their Brahmacharya.
Foot Notes
(शर्धम् ) बलयुक्तःन् । शर्ध इति बलनाम (NG 2, 9)। = Powerful. (मीलहुषी) सेचनकर्ती । षच्-समवायें (भ्वा० ) = Sprinkler or showerer of joy and peace. (सचा ) समवेता। मिह्-सेचने (भ्वा० ) = United.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal