ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 8
मिमा॑तु॒ द्यौरदि॑तिर्वी॒तये॑ नः॒ सं दानु॑चित्रा उ॒षसो॑ यतन्ताम्। आचु॑च्यवुर्दि॒व्यं कोश॑मे॒त ऋषे॑ रु॒द्रस्य॑ म॒रुतो॑ गृणा॒नाः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठमिमा॑तु । द्यौः । अदि॑तिः । वी॒तये॑ । नः॒ । सम् । दानु॑ऽचित्राः । उ॒षसः॑ । य॒त॒न्ता॒म् । आ । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ । दि॒व्यम् । कोश॑म् । ए॒ते । ऋषे॑ । रु॒द्रस्य॑ । म॒रुतः॑ । गृ॒णा॒नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मिमातु द्यौरदितिर्वीतये नः सं दानुचित्रा उषसो यतन्ताम्। आचुच्यवुर्दिव्यं कोशमेत ऋषे रुद्रस्य मरुतो गृणानाः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठमिमातु। द्यौः। अदितिः। वीतये। नः। सम्। दानुऽचित्राः। उषसः। यतन्ताम्। आ। अचुच्यवुः। दिव्यम्। कोशम्। एते। ऋषे। रुद्रस्य। मरुतः। गृणानाः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 8
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋषे ! यथाऽदितिर्द्यौर्वीतये नो मिमातु तथा त्वमस्मान् मिमीहि। यथा दानुचित्रा उषसो व्यवहारान् निर्म्मापयन्ति यथैत रुद्रस्य दिव्यं कोशमाचुच्यवुस्तथा गृणाना मरुतः सं यतन्ताम् ॥८॥
पदार्थः
(मिमातु) (द्यौः) प्रकाश इव (अदितिः) मातेव (वीतये) विज्ञानादिप्राप्तये (नः) अस्मान् (सम्) सम्यक् (दानुचित्राः) चित्रा अद्भुता दानवो दानानि यासु ताः (उषसः) प्रभातवेलाः (यतन्ताम्) (आ, अचुच्यवुः) आगच्छन्तु (दिव्यम्) दिवि कामनायां साधुम् (कोशम्) धनालयम् (एते) (ऋषे) विद्याप्रद (रुद्रस्य) अन्यायकारिणो रोदयितुः (मरुतः) मनुष्याः (गृणानाः) स्तुवन्तः ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। वे विद्युद्वदुषर्वदृषिवद्धनकोशं सञ्चिन्वन्ति ते प्रतिष्ठिता भवन्ति ॥८॥ अत्र वायुविद्युद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनषष्टितमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋषे) विद्या के देनेवाले ! जैसे (अदितिः) माता वा (द्यौः) प्रकाश के सदृश (वीतये) विज्ञान आदि की प्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों का (मिमातु) आदर करे, वैसे आप आदर करिये जैसे (दानुचित्राः) अद्भुत दान जिनमें ऐसी (उषसः) प्रातर्वेलायें व्यवहारों को सिद्ध कराती हैं वा जैसे (एते) ये (रुद्रस्य) अन्यायकारियों को रुलानेवाले (दिव्यम्) कामना में श्रेष्ठ (कोशम्) धन के स्थान को (आ, अचुच्यवुः) प्राप्त होवें वैसे (गृणानाः) स्तुति करते हुए (मरुतः) मनुष्य (सम्) उत्तम प्रकार (यतन्ताम्) प्रयत्न करें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन बिजुली, प्रातःकाल और ऋषि के सदृश धन के कोश को इकट्ठा करते हैं, वे प्रतिष्ठित होते हैं ॥८॥ इस सूक्त में पवन और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनसठवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा, सेनाओं और स्त्रियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( द्यौः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ( नः वीतये ) ज्ञान से प्रकाशित करने और पालन के लिये ( मिमातु ) हमें प्राप्त हो, हमें उन्नत बनावे । और ( अदितिः ) पृथिवी जिस प्रकार ( वीतये ) खाने के लिये अन्न को पैदा करती है उसी प्रकार अखण्ड शासक राजा वा माता और पिता ( नः वीतये ) हमारे तेज और भोजनादि के लिये उपाय करे । ( उषसः) प्रभात बेलाओं के समान कान्तिमती, प्रिय स्त्रियें (दानुचित्राः ) नाना देने योग्य आभूषणों से चित्र विचित्र, मनोहर होकर ( सं यतन्ताम् ) पुरुषों के साथ उद्योग किया करें। अथवा - ( उषसः ) शत्रु दग्ध करने वाली तेजस्विनी सेनाएं (दानु-चित्राः ) छेदन भेदन करने वाले हथियारों से अद्भुत आश्रयकारिणी होकर ( सं यतन्ताम् ) मिल कर विजय का उद्योग किया करें । हे (ऋषे ) दृष्टः ! सर्वाध्यक्ष ! (एते ) ये ( गृणानाः मरुतः ) स्तुति योग्य एवं अन्यों का उपदेश करने वाले वीर और विद्वान् पुरुष, ( रुद्रस्य ) दुष्टों के रुलाने वाले सेनापति तथा सर्वोपदेष्टा आचार्य के ( दिव्यं कोशम् ) दिव्य खड्ग तथा दिव्य ज्ञानमय कोश को ( अचुच्युवुः ) आगे बढ़ कर प्रयोग में लावें । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
विषय
प्राणसाधना व ज्ञानवृद्धि
पदार्थ
[१] प्राणसाधना के होने पर (द्यौः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक (मिमातु) = [roar] ज्ञान के शब्दों की गर्जनावाला हो । अर्थात् मस्तिष्क में ज्ञान के शब्द ही गूँजें । (अदितिः) = अखण्डित स्वास्थ्यवाली यह शरीर भूमि (न:) = हमारी (वीतये) = [ वी गति प्रजनन] गति व शक्ति विकास के लिये हो । प्राणसाधना मस्तिष्क को ज्ञानमय बनाती है, तो शरीर को यह गति व शक्ति के विकास से युक्त करती है। प्राणसाधना से हमारे जीवन में (उषस:) = उषाकाल (दानुचित्रा:) = अद्भुत दानोंवाले होकर (संयतन्ताम्) = सम्यक् यत्नवाले हों। हम उषाकालों में आलस्यशून्य होकर आसन प्राणायामादि में प्रवृत्त होंगे तो ये उषाकाल हमारे लिये अद्भुत शक्तियों के दानवाले होंगे। [२] हे (ऋषे तत्त्वद्रष्ट:) = पुरुष ! (एते) = ये (रुद्रस्य) = ज्ञानोपदेश के देनेवाले प्रभु के (मरुतः) = प्राण (गृणाना:) = स्तवन करते हुए, हमें स्तवन की वृत्तिवाला बनाते हुए, (दिव्यं कोशम्) = विज्ञानमय कोश को (आचुच्यवुः) = हमारे में क्षरित करते हैं। प्राणसाधना से यह विज्ञानमयकोश निरन्तर विज्ञान की वृद्धिवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारा मस्तिष्क व शरीर सुन्दर बनते हैं। हमारी उषाएँ अच्छी व्यतीत होती हैं। दिव्यकोश का वर्धन होता है । अगले सूक्त का देवता मरुत् व अग्नि हैं। ऋषि तो 'श्यावाश्व आत्रेय' ही हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक विद्युत, उषा व ऋषी यांच्याप्रमाणे (प्रकाश, व्यवहार, ज्ञान) धनाचा कोश संग्रहित करतात ते प्रतिष्ठित होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the heaven of light and mother earth bless us and help us rise in light and generosity, peace and joy. May the dawns, wonderful givers, join us and help us to rise in beauty and grace of life. O Rshi, lord of universal vision, may these Maruts, children of the lord of justice and rectitude, sung and adored, singing and rejoicing, shower the treasure of heavenly light and joy on earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of winds is further dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May the mother who is like the light from the heaven give us knowledge. As the divine lighted dawns come striving together, as they come to the treasure of a person who makes the wicked weep. Rishi-the giver of wisdom, in the same manner, let thoughtful persons glorifying god.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become respected who go to the treasure of riches like electricity, like the dawn or the Rishi sages.
Foot Notes
(वीतये) विज्ञानादिप्राप्तये । वी गतिव्याप्तिजन कान्त्यसनखादनेषु (अ०) गते स्त्रिष्वर्थेष्वत्र ज्ञानप्राप्तयथेग्रहणम् = For the attainment of knowledge. (ऋषे ) विद्याप्रद । ऋषी -गतौ ( तुदा० ) अत्र गते: ज्ञानाथंग्रहणम् = Giver of true knowledge. (गुणाना:) स्तुवन्तः । गु-शब्दे (भ्वा० ) अत्र स्तुति- परकशब्दग्रहणम् । = Glorifying or praising God.
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