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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अधा॑रयतं पृथि॒वीमु॒त द्यां मित्र॑राजाना वरुणा॒ महो॑भिः। व॒र्धय॑त॒मोष॑धीः॒ पिन्व॑तं॒ गा अव॑ वृ॒ष्टिं सृ॑जतं जीरदानू ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधा॑रयतम् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । मित्र॑ऽराजाना । व॒रु॒णा॒ । महः॑ऽभिः । व॒र्धय॑तम् । ओष॑धीः । पिन्व॑तम् । गाः । अव॑ । वृ॒ष्टि॑म् । सृ॒ज॒त॒म् । जी॒र॒दा॒नू॒ इति॑ जीरऽदानू ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधारयतं पृथिवीमुत द्यां मित्रराजाना वरुणा महोभिः। वर्धयतमोषधीः पिन्वतं गा अव वृष्टिं सृजतं जीरदानू ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधारयतम्। पृथिवीम्। उत। द्याम्। मित्रऽराजाना। वरुणा। महःऽभिः। वर्धयतम्। ओषधीः। पिन्वतम्। गाः। अव। वृष्टिम्। सृजतम्। जीरदानू इति जीरऽदानू ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे जीरदानू वरुणा ! मित्रराजाना यथा वायुविद्युतौ पृथिवीमुत द्यां धारयतस्तथाऽधारयतं यथेमौ महोभिरोषधीर्वर्धयतस्तथा युवां वर्धयतं गाः पिन्वतस्तथा युवां पिन्वतं तथैतौ वृष्टिमव सृजतस्तथाऽव सृजतम् ॥३॥

    पदार्थः

    (अधारयतम्) धारयतम् (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) (द्याम्) सूर्य्यम् (मित्रराजाना) प्राणविद्युतौ (वरुणा) श्रेष्ठौ (महोभिः) बृहद्भिर्गुणैः (वर्धयतम्) (ओषधीः) यवाद्याः (पिन्वतम्) तर्प्पयतम् (गाः) पृथिवीः (अव) (वृष्टिम्) (सृजतम्) (जीरदानू) यौ जीवनं दद्यातां तौ ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे राजामात्यौ ! युवां प्राणसूर्य्यवद्वर्त्तित्वा पृथिवीराज्यं सम्पाल्य वैद्योषधीर्वर्धयित्वा वृष्टिमुन्नीय सर्वेषां सुखाय वर्त्तेयाताम् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (जीरदानू) जीवन के देनेवाले (वरुणा) श्रेष्ठ ! (मित्रराजाना) जैसे वायु और बिजुली (पृथिवीम्) भूमि को (उत) और (द्याम्) सूर्य्य को धारण करते हैं, वैसे (अधारयतम्) धारण कीजिये और जैसे ये दोनों (महोभिः) बड़े गुणों से (ओषधीः) यव आदि ओषधियों को बढ़ाते हैं, वैसे आप दोनों (वर्धयतम्) बढ़ावें, (गाः) पृथिवियों को तृप्त करते हैं, वैसे आप दोनों (पिन्वतम्) तृप्त कीजिये और जैसे ये दोनों (वृष्टिम्) वृष्टि को उत्पन्न करते हैं, वैसे (अव, सृजतम्) उत्पन्न कीजिये ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजा और मन्त्रीजनो ! आप दोनों प्राण और सूर्य्य के सदृश वर्त्ताव कर पृथिवी के राज्य का पालन कर वैद्य और ओषधियों की वृद्धि कर और वृष्टि की उन्नति करके सबके सुख के लिये वर्त्ताव कीजिये ॥३॥

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    विषय

    भूमि सूर्यवत् स्त्री पुरुषों के परस्पर कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( मित्र-राजाना) मित्र बने हुए राजाओं वा राजा रानी के समान विराजने वालो ! एवं ( वरुणा) परस्पर एक दूसरे को वरण करने वालो ! ( पृथिवीम् उत द्यां ) भूमि और सूर्य को जिस प्रकार अग्नि और जल धारण करते हैं उसी प्रकार आप दोनों (पृथिवीम् ) प्रजोत्पादक भूमि स्त्री (उत द्याम् ) और कामनायुक्त व्यवहारज्ञ, तेजस्वी पुरुष दोनों को (महोभिः) बड़े उत्तम शुभ विचारों से ( अधारयतम् ) धारण करो अर्थात् तुम दोनों स्त्रीपुरुष परस्पर अपने को बीज को वपनार्थ भूमि और तेजस्वी, वीजप्रद जानकर धारण करें। आप दोनों ( ओषधीः ) अन्न आदि ओषधियों तथा 'ओष' अर्थात् दाहकारी अग्नि को धारण करने वाले तेजस्वी, वीर पुरुषों और विद्वानों को ( वर्धयतम् ) बढ़ावें, (गाः पिन्वतम् ) भूमियों को सेचें, वाणियों को प्रयोग करें, गौओं को पुष्ट करें, और दोनों ( जीर-दानू ) जगत् को जीवन देने हारे होकर ( वृष्टिं अव सृजतम् ) मेघ वा सूर्य के तुल्य सुखों की वर्षा किया करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पृथिवी व द्युलोक का धारण

    पदार्थ

    [१] हे (मित्र वरुणा) = स्नेह व निर्देषता के भावो! आप (राजाना) = जीवन को दीप्त करनेवाले हो । आप (महोभिः) = तेजस्विताओं के द्वारा (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (अधारयतम्) = धारण करते हो । निर्दोषता व स्नेह से शरीर व मस्तिष्क दोनों का स्वास्थ्य प्राप्त होता है। [२] हे मित्र-वरुण आप (ओषधीः) = भोजनजनित आनन्दों को (वर्धयतम्) = बढ़ाते हो 'ओषधयो वै मुदः, ओषधिभिर्हि इदं सर्वं मोदते' श० ९।४।१।७ स्नेह की भावना के होने पर खाया गया भोजन भी उत्कृष्ट रस आदि धातुओं को पैदा करके हमें आनन्दित करता है। द्वेष की भावना में खाया गया भोजन भी विषों को ही पैदा करता है। उत्तम धातुओं को जन्म देकर आप (गाः) = इन्द्रियों को (पिन्वतम्) = आप्यायित करते हो । (जीरदानू) = क्षिप्र दानोंवाले आप (वृष्टिं अवसृजतम्) = धर्ममेध समाधि में होनेवाले आनन्द के वर्षण को करते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता 'शरीर व मस्तिष्क' दोनों का धारण करते हैं। स्नेह व निर्देषता से खाये हुए भोजन से उत्तम रस आदि का उत्पादन होकर आनन्द की प्राप्ति होती है, इन्द्रियशक्ति का वर्धन होता है और समाधि में आनन्द की वर्षा का अनुभव होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा व मंत्र्यांनो! तुम्ही दोघे प्राण व सूर्य यांच्याप्रमाणे वागून पृथ्वीच्या राज्याचे पालन करा. वैद्य व औषधींची वृद्धी करा व वृष्टीची वाढ करा तसेच सर्वांच्या सुखासाठी झटा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, sun and space, light and law, heat and water, refulgent rulers of the world, generous creators and givers, together with your powers and actions, you hold the earth and heaven, feed and promote the greenery of nature, sustain the planets, and create and shower the rains.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Mitavarunau are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O life-giver and noble king and prime minister! as the air and electricity uphold earth and sun, (power. Ed.) so you uphold all. As they make grow the barley and other grains and herbs by their great properties, so you should also multiply them. As they satisfy or gladden the earth, so you should also do. As they cause rains, you should also cause the rain of happiness and joy over all your subjects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and prime minister ! you should act like the Prana and the sun, nourish the kingdom of earth, increase (the efficiency and posts of. Ed.) the Vaidyas (physicians) and herbs, cause and purify rain (through the performance of the Yajnas) and do everything for bestowing happiness upon all,

    Foot Notes

    ( मित्रराजाना) प्राणविद्युतौ । (मित्रराजाना) प्राणविद्युतौ । प्राणो मित्रम् (Jaimaniya upanishad 3, 1, 3, 4 = Prana an' electricity. ( पिन्वतम् ) तर्पयतम् । पिवि-सेवने सेचने चेत्येके । अत्र सेवा द्वारा = Satisfy, gladden. (जीरदानू ) यो जीवनं दद्यातां तो । तर्पणं सुखसेचने वा । राज दीप्तौ । राजा दीप्ता विद्युत् = Gives of life.

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