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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    रथं॑ युञ्जते म॒रुतः॑ शु॒भे सु॒खं शूरो॒ न मि॑त्रावरुणा॒ गवि॑ष्टिषु। रजां॑सि चि॒त्रा वि च॑रन्ति त॒न्यवो॑ दि॒वः स॑म्राजा॒ पय॑सा न उक्षतम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रथ॑म् । यु॒ञ्ज॒ते॒ । म॒रुतः॑ । शु॒भे । सु॒खम् । शूरः॑ । न । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । गोऽइ॑ष्टिषु । रजां॑सि । चि॒त्रा । वि । च॒र॒न्ति॒ । त॒न्यवः॑ । दि॒वः । स॒म्ऽरा॒जा॒ । पय॑सा । नः॒ । उ॒क्ष॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रथं युञ्जते मरुतः शुभे सुखं शूरो न मित्रावरुणा गविष्टिषु। रजांसि चित्रा वि चरन्ति तन्यवो दिवः सम्राजा पयसा न उक्षतम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रथम्। युञ्जते। मरुतः। शुभे। सुऽखम्। शूरः। न। मित्रावरुणा। गोऽइष्टिषु। रजांसि। चित्रा। वि। चरन्ति। तन्यवः। दिवः। सम्ऽराजा। पयसा। नः। उक्षतम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मित्रावरुणवाच्यशिल्पविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे दिवः सम्राजा मित्रावरुणा ! ये मरुतः शूरो न शुभे सुखं रथं युञ्जते गविष्टिषु चित्रा रजांसि तन्यवश्च वि चरन्ति तैः पयसा नोऽस्मान् युवामुक्षतम् ॥५॥

    पदार्थः

    (रथम्) विमानादियानम् (युञ्जते) (मरुतः) शिल्पिनो मनुष्याः (शुभे) कल्याणाय (सुखम्) सुखकरम् (शूरः) निर्भयो वीरः शत्रुहन्ता (न) इव (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव यज्ञशिल्पकारिणौ (गविष्टिषु) किरणानां सङ्गतिषु (रजांसि) लोकाः (चित्रा) अद्भुतानि (वि, चरन्ति) विचलन्ति (तन्यवः) विद्युतः (दिवः) कामयमानान् (सम्राजा) यौ सम्यग् राजेते तौ (पयसा) उदकेन (नः) अस्मान् (उक्षतम्) सिञ्चतम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये शूरवत्सुखं रथमधिष्ठाय यथेष्ठे स्थाने विहरन्ति तेऽभीष्टं प्राप्नुवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मित्रावरुणवाच्य शिल्पविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (दिवः) कामना करनेवालों के प्रति (सम्राजा) उत्तम प्रकार शोभित होनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश यज्ञ और शिल्प के करनेवालो ! जो (मरुतः) कारीगर मनुष्य (शूरः) भयरहित वीरशत्रु को मारनेवाले के (न) सदृश (शुभे) कल्याण के लिये (सुखम्) सुखकारक (रथम्) विमान आदि वाहन को (युञ्जते) युक्त करते हैं और (गविष्टिषु) किरणों की सङ्गतियों में (चित्रा) अद्भुत (रजांसि) लोक और (तन्यवः) बिजुलियाँ (वि) विशेष करके (चरन्ति) चलती हैं उनके साथ (पयसा) जल से (नः) हम लोगों को आप दोनों (उक्षतम्) सींचिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शूरवीर जनों के सदृश सुखकारक रथ पर चढ़कर यथेष्ट स्थान में घूमते हैं, वे अभीष्ट पदार्थ को प्राप्त होते हैं ॥५॥

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    विषय

    विद्युतों के तुल्य वीरों की गति ।

    भावार्थ

    भा०-हे (मित्रावरुणा ) सूर्य पवन के समान मित्र, सबको प्रिय, जीवनदाता और सर्वश्रेष्ठ, दुःखवारक पुरुषो ! ( मस्तः ) विद्वान् लोग (शुभे) कल्याण के लिये ( सुखं ) सुखप्रद ( रथं) रथ को (शूरः न ) शूरवीर के समान ( युञ्जते ) जोड़ते और ( गविष्टिषु ) किरणों के प्राप्त होने पर जिस प्रकार (चित्रा रजांसि ) विविध नाना अद्भुत लोक और (तन्यवः) नाना विद्युतें ( वि चरन्ति) विविध दिशा में चलती हैं उसी प्रकार राष्ट्र में (गविष्टिषु) भूमियों को प्राप्त करने के लिये शूरवीर (चित्रा रजांसि) विविध और अद्भुत शूरवीर लोग और ( तन्यवः ) गर्जनशील विद्युत् अस्त्र (वि चरन्ति ) चलते हैं। हे ( सम्राजा ) सेना व सभा के स्वामी जनो ! ( नः दिवः ) हम ऐश्वर्यादि की कामना करने वालों को ( पयसा ) मेघ के समस्त पोषणकारी जल अन्नादि से ( उक्षतम् ) सींचो, पुष्ट करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अर्चनाना आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवता ।। छन्दः - १, २, ४, ७ निचृज्जगती। ३, ५, ६ जगती ।। सप्तर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सुखं रथम्

    पदार्थ

    [१] हे (मित्रावरुणा) = स्नेह व निद्वेषता के भावो! आपके अनुग्रह से (शूरः न) = एक शूरवीर के समान (मरुतः) = प्राण (शुभे) = जीवन को शुभ बनाने के निमित्त (सुखं रथम्) = शोभन इन्द्रियोंवाले [सु-खं] (रथम्) = शरीर-रथ को (युञ्जते) = जोतते हैं। स्नेह व निर्देषता के होने पर प्राणसाधना के द्वारा शरीर- रथ में उत्तम इन्द्रियाश्व जुतते हैं, इन्द्रियाँ बड़ी निर्दोष बनकर शरीर रथ को आगे और आगे ले चलती हैं। [२] उस समय (गविष्टिषु) = ज्ञानयज्ञों में [गो-इष्टिं] (तन्यवः) = विस्तृत ज्ञान रश्मियाँ (चित्रा रजांसि) = अद्भुत लोकों में, शरीररूप पृथिवीलोक में, हृदयरूप अन्तरिक्षलोक में तथा मस्तिष्करूप द्युलोक में (विचरन्ति) = प्रसृत होती हैं। सारा जीवन ही उस समय प्रकाशमय हो उठता है । (दिवः सम्राजा) = हे ज्ञान के सम्राट् मित्र और वरुम देवो! आप (नः) = हमें (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (उक्षतम्) = सींच डालो। हमारा जीवन ज्ञानमय हो जाए, ज्ञान हमारे जीवन को आप्यायित करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-मित्र व वरुण की कृपा से हमारा जीवन स्वास्थ्य से युक्त होकर [सुखं रथं] ज्ञान से प्रकाशमय हो उठता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे शूरवीराप्रमाणे सुखकारक, रथात बसून अनेक स्थानी हिंडतात ते इच्छित पदार्थ प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, generous ruler and enlightened leaders, the Maruts, dynamic scientists and engineers, brave as warriors and tempestuous as winds, design and structure a faultless chariot and use it for the comfort and welfare of mankind. They rise in the company of sunrays to the wonderful regions of the skies, light and lightning in yajnic programmes for the good of all. O brilliant leaders, give us showers of water, milk, generative energy and creative vision.

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