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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वाचं॒ सु मि॑त्रावरुणा॒विरा॑वतीं प॒र्जन्य॑श्चि॒त्रां व॑दति॒ त्विषी॑मतीम्। अ॒भ्रा व॑सत म॒रुतः॒ सु मा॒यया॒ द्यां व॑र्षयतमरु॒णाम॑रे॒पस॑म् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाच॑म् । सु । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । इरा॑ऽवतीम् । प॒र्जन्यः॑ । चि॒त्राम् । व॒द॒ति॒ । त्विषि॑ऽमतीम् । अ॒भ्रा । व॒स॒त॒ । म॒रुतः॑ । सु । मा॒यया॑ । द्याम् । व॒र्ष॒य॒त॒म् । अ॒रु॒णाम् । अ॒रे॒पस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचं सु मित्रावरुणाविरावतीं पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम्। अभ्रा वसत मरुतः सु मायया द्यां वर्षयतमरुणामरेपसम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाचम्। सु। मित्रावरुणौ। इराऽवतीम्। पर्जन्यः। चित्राम्। वदति। त्विषिऽमतीम्। अभ्रा। वसत। मरुतः। सु। मायया। द्याम्। वर्षयतम्। अरुणाम्। अरेपसम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मित्रावरुणवाच्यविद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणौ ! युवां यथा पर्जन्यो वदति तथेरावतीं त्विषीमतीं चित्रां वाचं वदतं यथाऽभ्राऽऽकाशे सन्ति तथैव मरुतः सु मायया सु वसत। हे मित्रावरुणावरुणामरेपसं द्यां युवां वर्षयतम् ॥६॥

    पदार्थः

    (वाचम्) (सु) सुष्ठु (मित्रावरुणौ) अध्यापकाऽध्येतारौ (इरावतीम्) इरा जलानि विद्यन्ते यस्यास्ताम् (पर्जन्य) मेघः (चित्राम्) अद्भुताम् (वदति) (त्विषीमतीम्) प्रशस्तविद्याप्रकाशयुक्ताम् (अभ्रा) अभ्राणि (वसत) (मरुतः) मानवाः (सु, मायया) शोभनया प्रज्ञया (द्याम्) कामनाम् (वर्षयतम्) (अरुणाम्) प्राप्तव्याम् (अरेपसम्) अनपराधिनीम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्यायुक्तां वाचं प्राप्य पर्जन्य इव कामान् वर्षयन्ति ते प्रज्ञया विदुषः सम्पाद्यानपराधिनः कुर्वन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मित्रावरुणवाच्य विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणौ) पढ़ाने और पढ़नेवाले जनो ! आप दोनों जैसे (पर्जन्यः) मेघ (वदति) शब्द करता है, वैसे (इरावतीम्) जल विद्यमान जिसमें उस (त्विषीमतीम्) अच्छी विद्याओं के प्रकाश से युक्त (चित्राम्) अद्भुत (वाचम्) वाणी को कहो जैसे (अभ्रा) मेघ प्रकाश में हैं, वैसे ही (मरुतः) मनुष्य (सु, मायया) उत्तम बुद्धि से (सु) उत्तम प्रकार (वसत) बसें और हे मित्रावरुण ! (अरुणाम्) प्राप्त होने योग्य (अरेपसम्) अपराधरहित (द्याम्) कामना की आप लोग (वर्षयतम्) वृष्टि करिये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या से युक्त वाणी को प्राप्त होकर मेघ के सदृश मनोरथों की वृष्टि करते हैं, वे बुद्धि से विद्वान् करके =बनाके अपराधरहित करते हैं ॥६॥

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    विषय

    मेघवत् गुरु और वायुवत् शिष्यों के व्यवहार । 'पर्जन्य' का रहस्य' और उसके गूढ़ार्थं ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मित्रावरुणा ) स्नेहयुक्त और एक दूसरे को वरण करने हारे गुरु शिष्यजनो ! ( पर्जन्यः यथा त्विषीमतीं इरावती चित्रां वाचं वदति ) मेघ जिस प्रकार विद्युत् और जल से युक्त अद्भुत गर्जना करता है। उसी प्रकार लोकोपकारार्थ ( पर्जन्यः ) पिता के समान उत्पादक, ज्ञान से तृप्त करने वाला आचार्य, ( चित्राम् ) आश्चर्यजनक, ज्ञान देने वाली ( त्विषीमतीम् ) उत्तम विद्या प्रकाश से युक्त, ( इरावतीम् ) जलवत् स्नेहयुक्त (वाचं वदति ) वाणी का उपदेश करे । हे ( मरुतः ) वायुओं के समान आलस्य रहित शिष्यजनो ! आप लोग ( मायया ) बुद्धि से (अभ्रा) मेघों के समान ज्ञानजल से पूर्ण होकर (सु वसत) सुख पूर्वक रहो । ( अरुणाम् ) अरुण, तेजस्विनी, ( अरेपसम् ) अपराध पापादि से रहित, ( द्याम् ) कामना, ज्ञान प्रकाश को ( वर्षयतम् ) आप दोनों एक दूसरे के प्रति सेचन करो, उसकी वृद्धि करो । इसी प्रकार राष्ट्र में सभा सेनापति 'मित्रावरुण' है। उनमें ( पर्जन्यः = परोजेता ) ‘पर्जन्य’ उत्कृष्ट विजेता नायक है। वह अद्भुत ओजस्विनी वाणी बोले, ( मरुतः ) सैन्यगण मेघों के समान शरवर्षी होकर रणाकाश को घेरें और (द्यां ) कान्तियुक्त निष्काम विजय करें ।

    टिप्पणी

    'पर्जन्यः' – पर्जन्यस्तृपेरा-द्यन्तविपर्ययस्य, तर्पयिता जन्यः । परो जेता वा जनयिता वा प्रार्जयिता वा रसानाम् । इति यास्कः ॥ निरु० अ० १० । १ । १० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अर्चनाना आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवता ।। छन्दः - १, २, ४, ७ निचृज्जगती। ३, ५, ६ जगती ।। सप्तर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'इरावती - चित्रा - त्विषीमती' वाक्

    पदार्थ

    [१] 'पर्जन्यो व उद्गाता' श० १२।१।१।३ के अनुसार महान् प्रदाता प्रभु ही यहाँ पर्जन्य हैं । हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्देषता के भावो! आपके होने पर (पर्जन्यः) = वे [परां तृप्तिं जनयति] परतृप्ति के जनक महान् उद्गाता प्रभु (वाचम्) = वेदवाणी का (सुवदति) = उत्तम उच्चारण करते हैं जो वाणी (इरावतीम्) = प्रशस्त अन्नों को प्राप्त करानेवाली है, हमें जीविका प्राप्ति में क्षम करती है। (चित्राम्) = अद्भुत है [चित्] ज्ञान को देनेवाली है और (त्विषीमतीम्) = हृदय को दीप्त करनेवाली हैं। [२] इस वाणी के उच्चरित होने पर (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (सुमायया) = उत्तम ज्ञान से (अभ्रा वसत) = धर्ममेध समाधि में प्रादुर्भूत होनेवाले मेघों को धारण करते हैं। हे मित्र और वरुण ! आप कृपा करके (अरुणम्) = तेजस्विता से युक्त (अरेपसम्) = निर्दोष (द्यां वर्षयतम्) = ज्ञान प्रकाश से सुख का वर्षण कराओ। हमारे जीवन में ज्ञान-ज्योति जगमगाये और आनन्द की वर्षा हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के होने पर हृदय में प्रभु की वह 'इरावती- चित्रा-त्विषीमती' वाणी सुन पड़ती है। उस समय ज्ञान के प्रकाश व आनन्द को वर्षण का अनुभव होता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्यायुक्त वाणी प्राप्त करून मेघाप्रमाणे मनोरथांची वृष्टी करतात ती बुद्धीद्वारे सर्वांना विद्वान करून अपराधरहित करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as the cloud deeply filled with vapour and highly generous rumbles with its voice of thunder and showers rains of water, fertilising, exciting and pure, similarly, O scholars, teachers and preachers, loving as Mitra, friend, and discriminative as Varuna, the judge, speak to us that language of knowledge and wisdom which is comforting, refreshing, regenerative and life giving, wonderfully engaging and illuminating, full of wonder and variety and light of life. Let the dynamic people, vibrant as winds live in plenty like the cloud, and rise to the light of heaven with knowledge and power. Powerful as Indra, brilliant as Sun, and generous as Prajapati, give us the showers of knowledge and speech, holy, bright and blazing, free of sin and evil.

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