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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ता वा॑मिया॒नोऽव॑से॒ पूर्वा॒ उप॑ ब्रुवे॒ सचा॑। स्वश्वा॑सः॒ सु चे॒तुना॒ वाजाँ॑ अ॒भि प्र दा॒वने॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । वा॒म् । इ॒या॒नः । अव॑से । पूर्वौ॑ । उप॑ । ब्रुवे॑ । सचा॑ । सु॒ऽअश्वा॑सः । सु । चे॒तुना॑ । वाजा॑न् । अ॒भि । प्र । दा॒वने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वामियानोऽवसे पूर्वा उप ब्रुवे सचा। स्वश्वासः सु चेतुना वाजाँ अभि प्र दावने ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। वाम्। इयानः। अवसे। पूर्वौ। उप। ब्रुवे। सचा। सुऽअश्वासः। सु। चेतुना। वाजान्। अभि। प्र। दावने ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणौ ! स्वश्वासः सु चेतुना दावने वाजानभि प्र ब्रूयुस्तानहमुप ब्रुवे। हे अध्यापकोपदेशकौ ! यौ पूर्वौ वामियानोऽवसे वर्त्ते ता सचाऽहमुपब्रुवे ॥३॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (वाम्) युवाम् (इयानः) प्राप्नुवन् (अवसे) रक्षणाद्याय (पूर्वौ) प्रथमाधीतविद्यौ (उप) (ब्रुवे) (सचा) समवेतौ (स्वश्वासः) शोभना अश्वा येषान्ते (सु) सुष्ठु (चेतुना) विज्ञानवता सह (वाजान्) सङ्ग्रामान् (अभि) (प्र) (दावने) दात्रे ॥३॥

    भावार्थः

    यथोपदेशका उपदिशेयुस्तथैवोपदेश्या अन्यानप्युपदिशन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे प्राण और उदान के समान वर्तमानो ! (स्वश्वासः) अच्छे घोड़े जिनके ये (सु, चेतुना) उत्तम ज्ञानवान् के साथ (दावने) देनेवाले के लिये (वाजान्) संग्रामों के (अभि, प्र) सम्मुख अच्छे प्रकार कहें उनको मैं (उप, ब्रुवे) समीप में कहूँ। हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जिन (पूर्वौ) प्रथम विद्या पढ़े हुए (वाम्) आप दोनों को (इयानः) प्राप्त होता हुआ (अवसे) रक्षा आदि के लिये वर्त्तमान हूँ (ता) उन (सचा) मिले हुओं के मैं समीप में कहता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे उपदेशक जन उपदेश देवें, वैसे ही जिनको उपदेश दिया जाये वे औरों को भी उपदेश करें ॥३॥

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    विषय

    गुरु शिष्यवत् सैन्य और नायक का व्यवहार ।

    भावार्थ

    भा०- ( स्वश्वासः दावने वाजान् अभि ) जिस प्रकार उत्तम अश्वारोही गण आजीविका देने वाले स्वामी के लिये संग्रामों को लक्ष्य करके आगे बढ़ते हैं उसी प्रकार ( सु-चेतुना ) उत्तम ज्ञानसहित ( स्वश्वासः ) उत्तम इन्द्रियों वाले, जितेन्द्रिय, लोग ( दावने ) ज्ञान प्रदान करने वाले गुरुजन के यशोवृद्धि के लिये (वाजान् अभि ) ज्ञानों को उद्देश्य करके आगे बढ़ें। जिस प्रकार राष्ट्रवासी जन सैन्य और नायक दोनों ( अवसे उपब्रूते ) रक्षा की प्रार्थना करता है उसी प्रकार ( इयानः ) प्राप्त होने वाला नव शिष्य मैं ( ता वाम् ) उन दोनों (पूर्वा) पूर्व विद्यमान आप मान्य जनों को ( अवसे ) ज्ञान देने और रक्षा के निमित्त (सचा ) एकसाथ, ( उप ब्रुवे) प्रार्थना करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रातहव्य आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ स्वराडुष्णिक् । ५ भुरिगुष्णिक् । ६ विराट् पंक्तिः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'उत्तम इन्द्रियाँ, ज्ञान, शक्ति'

    पदार्थ

    [१] (ता) = उन (वाम्) = आप दोनों को, मित्र और वरुण को (अवसे) = रक्षण के लिये (इयानः) = मैं प्राप्त होता हूँ। आपने ही मेरा रक्षण करना है। (पूर्वा) = पालन व पूरण करनेवाले आपको (सचा) = साथसाथ (उपब्रुवे) = स्तुत करता हूँ। 'स्नेह व निद्वेषता' की साथ-साथ उपासना करता हुआ ही मैं शरीर का पालन व मन का पूरण कर पाता हूँ। [२] (स्वश्वासः) = आपकी उपासना से उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले हम (सु चेतुना) = उत्तम ज्ञान के साथ (वाजान् अभि) = शक्तियों का लक्ष्य करके (प्रदावने) = प्रकृष्ट दान में स्थित हों। यह दान क्रिया 'मित्र और वरुण' की उपासना का क्रियात्मकरूप है। यह दान क्रिया ही हमें उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला बनाती है, उत्तम ज्ञान व शक्ति देती है। ज्ञानेन्द्रियाँ इसी से ज्ञानवर्धनवाली व कर्मेन्द्रियाँ शक्ति-सम्पन्न बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता हमारा रक्षण करते हैं, हमारा पालन व पूरण करते हैं। 'उत्तम इन्द्रियाँ-ज्ञान व शक्ति' प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे उपदेशक उपदेश देतात तसे ज्यांना उपदेश दिला जातो त्यांनी इतरांनाही उपदेश करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, twin powers of love and friendship, justice and rectitude, ancient and eternal, I approach you for protection and promotion, and speak to you and speak of you: you command knowledge, you command revelation and communication, you give knowledge, you give means of communication and transport, food and energy, struggle, speed and success to the people of charity and generosity.

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