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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ता वा॒मेषे॒ रथा॑नामु॒र्वीं गव्यू॑तिमेषाम्। रा॒तह॑व्यस्य सुष्टु॒तिं द॒धृक्स्तोमै॑र्मनामहे ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । वा॒म् । एषे॑ । रथा॑नाम् । उ॒र्वीम् । गव्यू॑तिम् । ए॒षा॒म् । रा॒तऽह॑व्यस्य । सु॒ऽस्तु॒तिम् । द॒धृक् । स्तोमैः॑ । म॒ना॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वामेषे रथानामुर्वीं गव्यूतिमेषाम्। रातहव्यस्य सुष्टुतिं दधृक्स्तोमैर्मनामहे ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। वाम्। एषे। रथानाम्। उर्वीम्। गव्यूतिम्। एषाम्। रातऽहव्यस्य। सुऽस्तुतिम्। दधृक्। स्तोमैः। मनामहे ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 66; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! युवामेषां रथानां रातहव्यस्य सुष्टुतिं गव्यूतिमेषे प्रवर्त्तेथे यथा विद्वान् स्तोमैरेतेषामुर्वीं दधाति तथा ता दधृग् वां तं च वयं मनामहे ॥३॥

    पदार्थः

    (ता) तौ (वाम्) युवाम् (एषे) गन्तुम् (रथानाम्) विमानादियानानाम् (उर्वीम्) पृथिवीम् (गव्यूतिम्) मार्गम् (एषाम्) (रातहव्यस्य) दत्तदातव्यस्य (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (दधृक्) प्रागल्भ्यं प्राप्तौ (स्तोमैः) प्रशंसनैः (मनामहे) विजानीमः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये जगत्कल्याणाय सृष्टिक्रमेण पदार्थविद्यां प्रकाशयन्ति ते धन्या भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशक जन ! आप दोनों (एषाम्) इन (रथानाम्) विमान आदि वाहनों का (रातहव्यस्य) दिया है देने योग्य पदार्थ जिसने उसको (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशंसा को और (गव्यूतिम्) मार्ग को (एषे) प्राप्त होने को प्रवृत्त होते हैं, और जैसे विद्वान् जन (स्तोमैः) प्रशंसाओं से इन की (उर्वीम्) पृथिवी को धारण करता है, वैसे (ता) उन (दधृक्) प्रगल्भता को प्राप्त (वाम्) आप दोनों को और उस विद्वान् को हम लोग (मनामहे) अच्छे प्रकार जानते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जगत् के कल्याण के लिये सृष्टिक्रम से पदार्थविद्या को प्रकाशित करते हैं, वे धन्य होते हैं ॥३॥

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    विषय

    मार्ग पार करने के लिये रथ में अभि जलवत् राष्ट्र में न्याय और शासन विभागों का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०-( एषाम् रथानाम् ) इन उत्तम, वेगवान् रथों के (ऊर्वी गव्यूतिम् ) बड़े मार्ग को ( एषे ) चलने के लिये (ता वाम् ) आप दोनों को ही अग्नि जलवत् मुख्य प्रवर्त्तक ( मनामहे ) स्वीकार करते हैं और ( रात-हव्यस्य ) अन्न आदि भोज्य पदार्थ देने वाले स्वामी की ( सुस्तुतिं दधृक्) उत्तम स्तुति, को भी धारण करने वाले आप दोनों को ही ( स्तोमैः मनामहे ) उत्तम स्तुत्य वचनों द्वारा स्वीकर करते हैं । अग्नि, यम दोनों तत्व जिस प्रकार रथों के दीर्घ मार्ग चलने में कारण होते हैं राष्ट्र में प्रजाओं के भी दीर्घ काल तक निभने में मुख्य दो बल न्याय, और शासन-विभाग कारण हैं। वे प्रधान राजा की उत्तम कीर्त्ति को धारते हैं। देह में प्राण, अपान दीर्घ जीवन के कारण हैं वे आत्मा के स्तुत्य शक्ति के धारक हैं । इन जीवों के लिये बड़ी ( गव्यूति ) ज्ञान वाणियों की प्राप्ति में गुरु-शिष्यपरम्परा ही मुख्य कारण है । वे दोनों ज्ञानप्रद प्रभु परमेश्वर के उत्तम स्तुति रूप, उपदिष्ट वेद को धारण करने वाले हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रातहव्य आत्रेय ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द: – १,५,६ विराडनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३, ४ स्वराडनुष्टुप् ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उर्वी गव्यूति [विशाल मार्ग ]

    पदार्थ

    [१] (एषां रथानाम्) = इन शरीर-रथों के (उर्वी गव्यूतिम्) = विशाल मार्गों को (एषे) = [गन्तुम्] जाने के लिये (ता वाम्) = उन आप दोनों को, मित्र व वरुण को स्नेह व निर्देषता के भाव को (मनामहे) = हम स्तुत करते हैं। मित्रता व निर्देषता ही हमें विशाल मार्ग पर ले चलती हैं। इनके अभाव में स्वार्थपरता हमें अत्यन्त संकुचित वृत्ति का बना देती है। [२] हम (रातहव्यस्य) = [दत्तहविष्क्रस्य] यज्ञशील पुरुष सम्बन्धी (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को (दधृक् स्तोमैः) = धर्षक स्तोमों के द्वारा, वासना विनाशक स्तुतियों के द्वारा [मनामहे] करनेवाले होते हैं। जैसे एक यज्ञशील पुरुष यज्ञरूप उत्तम स्तुति को करता है, इसी प्रकार हम भी उत्तम स्तुति को करनेवाले बनते हैं। ये यज्ञात्मक कर्म, स्नेह व निर्देषता के होने पर ही सम्भव होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव को धारण करके हम विशालता के मार्ग पर ही चलते हैं, यज्ञशील होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जे जगाच्या कल्याणासाठी सृष्टिक्रमाला अनुसरून पदार्थविद्या प्रकट करतात ते धन्य होत. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, for the onward movement of these chariots of yours we freely offer the wide earth and her highways and honour you and the creative song of the sacrificing celebrant with our chants of praise.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a man are continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! you engage yourselves in the truthful praise of that liberal donor (who has given whatever is worth. Giving.) of the aircraft-like vehicles and is going to the path. As a highly learned person upholds earth (for the benefit. of Ed.), for these noble persons by the truthful praise of the properties of various articles (description), in the same manner, we know and admire that scientist and you, who are clever (well- versed. Ed.) and expert in various sciences.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Blessed are these men who reveal the physical and other sciences for the benefit of the world.

    Translator's Notes

    It was misleading on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Rātahavyā as the name of a particular sage, instead of taking its meaning for a liberal donor as it clearly shows. Griffith's foot-note is worth-noting and amusing: "Rātahavya-The Rishi of the hymn." I can make nothing out of this stanza, and I follow Sayana in despair of finding a reasonable interpretation." (The Hymns of the Rigveda Translated by Griffith Vol. p. 537). No comments are needed. Whom to blame for a scholar's ignorance?

    Foot Notes

    (गव्यूतिम्) मार्गम्। = Path . (रातहव्यस्य ) दत्तदातव्यस्य । रा-दाने । हु-दानादनयो: (जु० ) = He who has given whatever is worth giving ie a liberal doner. (दधुक् ) प्रागल्भ्यं प्राप्तौ। घृषा - प्रागल्भ्ये (स्वाO) = Clever and well-versed and expert in various sciences.

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