ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 66/ मन्त्र 5
ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तदृ॒तं पृ॑थिवि बृ॒हच्छ्र॑वए॒ष ऋषी॑णाम्। ज्र॒य॒सा॒नावरं॑ पृ॒थ्वति॑ क्षरन्ति॒ याम॑भिः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठतत् । ऋ॒तम् । पृ॒थि॒वि॒ । बृ॒हत् । श्र॒वः॒ऽए॒षे । ऋषी॑णाम् । ज्र॒य॒सा॒नौ । अर॑म् । पृ॒थु । अति॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । याम॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदृतं पृथिवि बृहच्छ्रवएष ऋषीणाम्। ज्रयसानावरं पृथ्वति क्षरन्ति यामभिः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठतत्। ऋतम्। पृथिवि। बृहत्। श्रवःऽएषे। ऋषीणाम्। ज्रयसानौ। अरम्। पृथु। अति। क्षरन्ति। यामऽभिः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 66; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
स्त्रियोऽपि विद्वद्वद्भूत्वोत्तमाचरणं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे पृथिवि विदुषि स्त्रि ! यथा मेघा योगिनो वा यामभिः पृथु जलमरमति क्षरन्ति यथा च ज्रयसानौ वर्त्तेते यथर्षीणां तद् बृहदृतं श्रवश्चैषे प्रवर्त्तस्व ॥५॥
पदार्थः
(तत्) (ऋतम्) सत्यं जलं वा (पृथिवि) भूमिरिव वर्त्तमाने (बृहत्) महत् (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (एषे) प्राप्तुम् (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् (ज्रयसानौ) गच्छन्तौ विजानन्तौ वा (अरम्) अलम् (पृथु) विस्तीर्णम् (अति) (क्षरन्ति) वर्षन्ति (यामभिः) प्रहरैर्यमोद्भवैः कर्म्मभिर्वा ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यदि स्त्रियो विदुष्यो भूत्वा सत्यं धर्म्मं शीलं च स्वीकृत्य मेघवत्सुखानि वर्षन्ति तर्हि ता महत्सुखमाप्नुवन्ति ॥५॥
हिन्दी (2)
विषय
स्त्री भी विद्वानों के समान होकर उत्तमाचरण करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पृथिवि) पृथिवी के सदृश वर्त्तमान विद्या से युक्त स्त्री ! जैसे मेघ वा योगी जन (यामभिः) प्रहरों वा प्रहर में उत्पन्न कर्म्मों से (पृथु) विस्तीर्ण जल को (अरम्) पूरा (अति, क्षरन्ति) वर्षाते हैं और जैसे (ज्रयसानौ) जाते हुए वा विशेष करके जानते हुए वर्त्तमान हैं, वैसे (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थ जाननेवालों के (तत्) उस (बृहत्) बड़े (ऋतम्) सत्य को वा जल को (श्रवः) और अन्न वा श्रवण को (एषे) प्राप्त होने को प्रवृत्त होओ ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो स्त्रियाँ विद्यायुक्त होकर सत्य, धर्म्म और उत्तम स्वभाव को स्वीकार करके मेघ के सदृश सुखों की वृष्टि करती हैं तो वे बड़े सुख को प्राप्त होती हैं ॥५॥
विषय
स्त्री पुरुषों को ज्ञानोपार्जन का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे ( पृथिवी ) पृथिवी के समान ज्ञान को विस्तार करने हारी विदुषी स्त्री (श्रवः ) पृथिवी पर अन्न के समान जीवन देने वाला (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषियों का ( तत् ) वह (ऋतं) सत्यमय (बृहत् ) बड़ा भारी ( श्रवः ) श्रवण करने योग्य ज्ञान है जिसको मेघों के समान विद्वान् जन ( यामभिः ) आठों प्रहर ( पृथु ) बड़े विस्तृत रूप में (अति) खूब ( क्षरन्ति ) बरसाते हैं । हे ( ज्रयसानौ ) ज्ञानमार्ग से जाने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों उसको अन्नवत् ( अरं ) खूब प्राप्त करो और उपभोग लो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रातहव्य आत्रेय ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द: – १,५,६ विराडनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३, ४ स्वराडनुष्टुप् ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या स्त्रिया विद्या, सत्य, धर्म व उत्तम स्वभाव याद्वारे मेघाप्रमाणे सुखाची वृष्टी करतात त्यांना खूप सुख मिळते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That truth of Law and rectitude, water and abundant food, profuse renown, and wisdom of the sages for attainment of the people, O mother earth, Mitra and Varuna, widely ranging over time and space, day by day, action by action, pray shower on life and humanity abundantly and incessantly without bounds.
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