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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उ॒ग्रो वां॑ ककु॒हो य॒यिः शृ॒ण्वे यामे॑षु संत॒निः। यद्वां॒ दंसो॑भिरश्वि॒नात्रि॑र्नराव॒वर्त॑ति ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रः । वा॒म् । क॒कु॒हः । य॒यिः । शृ॒ण्वे । यामे॑षु । स॒म्ऽत॒निः । यत् । वा॒म् । दंसः॑ऽभिः । अ॒श्वि॒ना॒ । अत्रिः॑ । न॒रा॒ । आ॒ऽव॒वर्त॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रो वां ककुहो ययिः शृण्वे यामेषु संतनिः। यद्वां दंसोभिरश्विनात्रिर्नराववर्तति ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रः। वाम्। ककुहः। ययिः। शृण्वे। यामेषु। सम्ऽतनिः। यत्। वाम्। दंसःऽभिः। अश्विना। अत्रिः। नरा। आऽववर्तति ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे नराश्विना ! यद्यो ययिः ककुह उग्रः सन्तनिरहं यामेषु वां शृण्वे यश्च वां दंसोभिरत्रिराववर्त्तति ता आवां युवां बोधयतम् ॥७॥

    पदार्थः

    (उग्रः) तेजस्वी (वाम्) युवाम् (ककुहः) महान् (ययिः) यो याति सः (शृण्वे) (यामेषु) प्रहरेषु (सन्तनिः) सम्यक् विस्तारकः (यत्) यः (वाम्) युवयोः (दंसोभिः) कर्म्मभिः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (अत्रिः) अत्रिवारम् (नरा) नेतारौ (आववर्तति) भृशं वर्त्तते ॥७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या सूर्य्यचन्द्रवन्नियमेन वर्त्तित्वा कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते सर्वदोन्नता जायन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नरा) नायक (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यत्) जो (ययिः) चलनेवाला (ककुहः) बड़ा (उग्रः) तेजस्वी (सन्तनिः) उत्तम प्रकार विस्तारकर्त्ता मैं (यामेषु) प्रहरों में (वाम्) आप दोनों को (शृण्वे) सुनूँ और जो (वाम्) आप दोनों के (दंसोभिः) कर्म्मों से (अत्रिः) न तीन वार (आववर्त्तति) अत्यन्त वर्त्तमान हैं, उन हम दोनों को आप दोनों बोध कराइये ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश नियम से वर्त्ताव करके कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे सर्वदा उन्नत होते हैं ॥७॥

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    विषय

    उत्तम काम का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! हे ( अश्विना ) शीघ्र चलने वाले अश्ववत् इन्द्रियों के स्वामी, जितेन्द्रिय पुरुषो ! ( यत् अत्रिः ) जो भोक्ता, एवं इस लोक में विद्यमान पुरुष ( दंसोभिः ) नाना कार्यों से ( आ ववर्त्तति ) आजीविका सम्पादन करता है वह ( उग्रः ) बलवान् पुरुष ( वां ) आप दोनों में से ( ककुहः ) श्रेष्ठ, ( सन्तनिः ) वंश का विस्तार करने वाला और ( यामेषु ) समस्त मार्गों पर ( ययिः ) जाने में स्वतन्त्र ( शृण्वे ) सुना जाय, प्रसिद्ध हो। या जो (अत्रि: ) विद्वान् आप दोनों को कर्मों के उपदेशों से युक्त करता है वह महान् उग्र, आचार्य ( यामेषु ययिः) नियमादि पालन कार्यों ले जाने वाला हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    तेजस्विता-उन्नति व गतिशीलता

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों का (सन्तनि:) = शक्तियों के विस्तारवाला यह रथ (यामेषु) = जीवन-यात्रा के मार्गों में (उग्रः) = तेजस्वी (ककुहः) = उन्नत [शिखर स्थित] (ययिः) = निरन्तर गतिवाला (शृण्वे) = सुन पड़ता है। अर्थात् प्राणापान हमें तेजस्वी उन्नत व गतिशील बनाते हैं । [२] हे (नरा) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राणापानो! (यद्) = जब (अत्रिः) = काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाला व्यक्ति (दंसोभिः) = उत्तम कर्मों के हेतु से (वाम्) = आपको (आववर्तति) = पुन: पुन: आवृत्त करता है, अर्थात् दीर्घ श्वासोच्छ्वास द्वारा आपके आवर्तन को करता है, दीर्घश्वास प्रश्वास होने से शोधन होता है। यह शोधन हमारे कर्मों की पवित्रता का कारण बनता है और हमें उन्नत करता से है।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना हमें तेजस्वी उन्नत व गतिशील बनाती है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सूर्य व चंद्राप्रमाणे नियमाने वागून कार्य पूर्ण करतात. ती सदैव उन्नत होतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leading lights and path finders of humanity, the mighty rumble of your advance expanding in all directions is heard at every stage of your movements when Atri, the celebrant sage of threefold freedom turns his attention to you by virtue of your noble actions.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened men's duties are stated,

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leading teachers and preachers ! you are like the sun and the moon. I who am active, endowed by God's grace with great virtues, full of splendour, propagator of truth and education, hear ( listen. Ed.) your praise from time to time, and he who follows you by his actions many times (repeatedly. Ed.), not confined to three, you give teaching to both of us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who accomplish their works by acting like the sun and the moon, become always advanced or make satisfactory progress.

    Foot Notes

    (अश्विना ) अध्यापकोपदेशकौ । = Teachers and preachers. (सन्तनि:) सम्यक् विस्तारकः । = He who well propagates truth or spreads education extensively. (दंसोभिः ) कर्ममभिः । दंसय: कर्माणि दंसयन्त एनानिति (NKT 4, 4, 25 ) । अत्र दंसासि तत्पर्यायरूपेण | = By actions. (ककुह:) महान् । ककुह इति महन्नाम (NG 3, 3 )| = Great.

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