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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पौ॒रं चि॒द्ध्यु॑द॒प्रुतं॒ पौर॑ पौ॒राय॒ जिन्व॑थः। यदीं॑ गृभी॒तता॑तये सिं॒हमि॑व द्रु॒हस्प॒दे ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पौ॒रम् । चि॒त् । हि । उ॒द॒ऽप्रुत॑म् । पौर॑ । पौ॒राय॑ । जिन्व॑थः । यत् । ई॒म् । गृ॒भी॒तऽता॑तये । सिं॒हम्ऽइ॑व । द्रु॒हः । प॒दे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पौरं चिद्ध्युदप्रुतं पौर पौराय जिन्वथः। यदीं गृभीततातये सिंहमिव द्रुहस्पदे ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पौरम्। चित्। हि। उदऽप्रुतम्। पौर। पौराय। जिन्वथः। यत्। ईम्। गृभीतऽतातये। सिंहम्ऽइव। द्रुहः। पदे ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे पौर ! त्वं ह्युदप्रुतं पौरं चित् प्राप्नुहि पौरायाऽध्यापकस्त्वं च जिन्वथो गृभीततातये द्रुहस्पदे सिंहमिव यदीं जिन्वथस्तं त्वं सन्तोषय ॥४॥

    पदार्थः

    (पौरम्) पुरि भवं मनुष्यम् (चित्) अपि (हि) यतः (उदप्रुतम्) उदकयुक्तम् (पौर) पुरोर्मनुष्यस्याऽपत्यं तत्सम्बुद्धौ (पौराय) पुरे भवाय (जिन्वथः) प्राप्नुथः (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (गृभीततातये) गृहीता तातिः सत्कर्म्मविस्तृतिर्येन (सिंहमिव) सिंहवत् (द्रुहः) शत्रोः (पदे) प्राप्तव्ये ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यथैकपुरवासिनः परस्परं सुखोन्नतिं कुर्वन्ति तथैव भिन्नदेशवासिनोऽप्याचरन्तु ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पौर) पुर में हुए ! आप (हि) ही (उदप्रुतम्) जल से युक्त (पौरम्) मनुष्य के सन्तान को (चित्) निश्चय से प्राप्त हूजिये और (पौराय) पुर में हुए मनुष्य के लिये अध्यापक और आप (जिन्वथः) प्राप्त होते हो (गृभीततातये) ग्रहण किया श्रेष्ठ कर्म्मों का विस्तार जिसने उसके लिये (द्रुहः) शत्रु के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (सिंहमिव) सिंह के सदृश (यत्) जिसको (ईम्) सब ओर से प्राप्त होते हो, उसको आप सन्तुष्ट कीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे एक नगर के वासी जन परस्पर सुख की उन्नति करते हैं, वैसे ही अन्य देशवासी भी करें ॥४॥

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    विषय

    राष्ट्र में उनकी उत्तम पदों पर नियुक्ति ।

    भावार्थ

    भा०-हे (पौर ) पुर के निवासी वा हे मनुष्य की सन्तान स्त्री पुरुष जनो ! आप लोग ( पौराय ) पुर के निवासी जनों के हित के लिये ( उदन्तं ) जल से अभिषिक्त, (पौरम् ) 'पुर' अर्थात् नगर निवासी जनों के हितैषी, ( ईम् ) इस ( सिंहम् इव ) सिंह के समान तेजस्वी पुरुष को (गृभीत-तातये ) हाथ में लिये राष्ट्र के कल्याण के लिये और ( द्रुहः ) शत्रु से द्रोह अर्थात् संग्राम, लड़ाई-झगड़े के ( पदे) कार्य पर वा मुख्य नायक पद पर ( जिन्वथः ) अभिषिक्त करो, स्थापित करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्रेय ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्दः — १, २, १० विराडनुष्टुप् अनुष्टुप, । ४, ५, ६, ९ निचृदनुष्टुप् । ७ विराडुष्णिक् । ८ निचृदुष्णिक् ॥ एकादशर्चं सुक्तम् ।।

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    विषय

    पौर

    पदार्थ

    [१] (पौर) = [पौरौ] हे शरीररूप पुर के हित करनेवाले अश्विनी देवो ! (युदप्रुतम्) = रेतःकणरूप जलों की ओर गतिवाले, इसके रक्षण के द्वारा (पौरम्) = इस शरीररूप पुरी का ध्यान करनेवाले इस साधक को (पौराय) = सम्पूर्ण पुर के हित के लिये (चित् हि) = निश्चय से (जिन्वथः) = प्रेरित करते हो । प्राणसाधना से रेतःकणों की ऊर्ध्वगति होती है और इनके रक्षण से यह शरीररूप पुरी बड़ी ठीक बनी रहती है। इसको इस प्रकार ठीक रखनेवाला व्यक्ति सारे पुर का [नगर का] हित करनेवाला होता है। [२] हे अश्विनी देवो! आप (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (गृभीततातये) = 'ग्रहण किया है यज्ञ विस्तार को जिसने' उस पुरुष के लिये प्राप्त होते हो तो इस प्रकार उसके रोग व वासनारूप शत्रुओं का विनाश करनेवाले होते हो, (इव) = जैसे कि (द्रुहस्पदे) = द्रोह [हिंसा] के स्थानभूत अरण्य में (सिंहम्) = शेर को विनष्ट करते हैं। इस शरीररूप वन में काम-क्रोध आदि ही हिंस्रपशु हैं। इनका विनाश ये प्राणापान ही करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान हमारे शरीरस्थ शत्रुओं का विनाश करके हमें उत्कृष्ट शरीररूप पुरवाला बनाते हैं। ऐसे बनकर हम सर्वहित में प्रवृत्त होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे एखाद्या शहरात राहणारे लोक परस्पर सुख वाढवितात. तसेच देशातील इतर लोकांनीही वागावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O citizen, you proceed to the citizen in deep waters and resume and raise him to new life for the citizen and the coming generation for the extension of their action and achievement already made and like a lion even jump into the den of hate and enmity to protect and promote them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should aim at is indicated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O son of virtuous man ! approach a man full of water-like (spotless. Ed.) peaceful disposition. You and the teachers go to (reach Ed.) a citizen (common man. Ed.) and please or satisfy him by your teachings. Far the benefit of a person who is engaged in doing a group (series. Ed.) of good works, you approach him and gladden him. In the place (positions. Ed.) occupied by your foes, you should attack like a lion and make good men delighted.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as persons living in the same city advance their happiness by mutual help and cooperation, in the same manner the persons of other cities (and towns. Ed.) and countries also should also do.

    Foot Notes

    (उदप्रुतम् ) उदकयुक्तम्। = Outwardly (apparently. Ed.) it means full of water, but the meaning implied is of needful disposition like that of the water. ( गृभीततातये) गृहीता तांति: सर्कर्म्मविसूतिर्येन । = For a man engaged in doing noble deeds. (जिन्वथः) प्राप्नुथ: । = Approach attain.

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