ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 78/ मन्त्र 4
अत्रि॒र्यद्वा॑मव॒रोह॑न्नृ॒बीस॒मजो॑हवी॒न्नाध॑मानेव॒ योषा॑। श्ये॒नस्य॑ चि॒ज्जव॑सा॒ नूत॑ने॒नाग॑च्छतमश्विना॒ शंत॑मेन ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअत्रिः॑ । यत् । वा॒म् । अ॒व॒ऽरोह॑न् । ऋ॒बीस॑म् । अजो॑हवीत् । नाध॑मानाऽइव । योषा॑ । श्ये॒नस्य॑ । चि॒त् । जव॑सा । नूत॑नेन । आ । अ॒ग॒च्छ॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । शम्ऽत॑मेन ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रिर्यद्वामवरोहन्नृबीसमजोहवीन्नाधमानेव योषा। श्येनस्य चिज्जवसा नूतनेनागच्छतमश्विना शंतमेन ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअत्रिः। यत्। वाम्। अवऽरोहन्। ऋबीसम्। अजोहवीत्। नाधमानाऽइव। योषा। श्येनस्य। चित्। जवसा। नूतनेन। आ। अगच्छतम्। अश्विना। शम्ऽतमेन ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 78; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अश्विना ! यद्योऽत्रिर्वामवरोहन् योषा नाधमानेव ऋबीसमजोहवीत् तेन सह श्येनस्य नूतनेन [शन्तमेन] जवसा चिन्मानेनाऽऽगच्छतम् ॥४॥
पदार्थः
(अत्रिः) अविद्यमानत्रिविधदुःखः (यत्) यः (वाम्) युवाम् (अवरोहन्) अवरोहं कुर्वन् (ऋबीसम्) सरलम् (अजोहवीत्) भृशमाह्वयति (नाधमानेव) याचमानेव (योषा) (श्येनस्य) (चित्) अपि (जवसा) वेगेन (नूतनेन) (आ) (अगच्छतम्) गच्छतम् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविवाध्यापकोपदेशकौ (शन्तमेन) अतिशयेन सुखकरेण ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये विद्वदनुकरणेन सरलभावं स्वीकृत्य प्रयतन्ते ते सर्वदा सुखिनो भवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्रीपुरुष क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यत्) जो (अत्रिः) त्रिविध दुःखरहित (वाम्) आप दोनों को (अवरोहन्) प्राप्त होता हुआ (योषा) स्त्री (नाधमानेव) जो याचना करती उसके समान (ऋबीसम्) सरल को (अजोहवीत्) अत्यन्त आह्वान करता है उसके साथ (श्येनस्य) वाज पक्षी के (नूतनेन) नवीन (शन्तमेन) अतिशय सुखकारक (जवसा) वेग के (चित्) सदृश मान से (आ, अगच्छतम्) आइये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो विद्वानों के अनुकरण से सरल स्वभाव को स्वीकार करके प्रयत्न करते हैं, वे सर्वदा सुखी होते हैं ॥४॥
विषय
दो हंसों और हरिणों के दृष्टान्त से उनके कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
भा०-हे (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( यत् ) जो ( अत्रिः ) तीनों प्रकार के दुःखों वा दोषों से रहित, वा (अत्रिः ) इसी राष्ट्र या आश्रम का वासी जन वा शिष्य ( नाधमाना इव योषा) याचना, आशा वा कामना करती हुई, स्त्री के समान अति विनीत, और तन्मय होकर ( ऋबीसम् अवरोहन् ) तेजो रहित, सरल रूप से झुककर विनम्र होकर (वाम् अजोहवीत् ) आप दोनों को बुलावे । तब आप दोनों (श्येनस्य चित् ) वाज के से (जवसा ) वेग से ( नूतनेन ) नूतन ( शं- तमेन ) अति शान्तिदायक रूप से ( आ गच्छतम् ) प्राप्त होइये । ( ऋबीसम् ) अपगतभासम् अपहृतमा- सम्, अन्तर्हितभासं, गतभासं वा ॥ निरु० ६ । ६ । ७ ॥ स्त्री पुरुषों के पक्ष में-हे स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) आप दोनों में से जो ( अत्रिः ) भोक्ता पुरुष है वह ( ऋबीसं ) दीपक से प्रकाशित गृह को प्राप्त हो और (योषा ) स्त्री भी ( नाधमाना इव ) ऐश्वर्य या पुत्रादि की कामना करती हुई ( अजोहवीत् ) पति को स्वीकार करे । वे दोनों ( श्येनस्य चित् जवसा ) शान्तियुक्त नये प्रेम से गृह में आकर मिलें । एकोनविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सप्तवध्रिरात्रेय ऋषिः।। अश्विनौ देवते । ७, ९ गर्भस्राविणी उपनिषत् ॥ छन्दः— १, २, ३ उष्णिक् । ४ निचृत्-त्रिष्टुप् । ५, ६ अनुष्टुप् । ७, ८, ९ निचृद्-नुष्टुप् ।।
विषय
अन्धकार गर्त से ऊपर
पदार्थ
[१] (ऋबीसम्) = [अपगतभासम्] अन्धकारमय गर्त में (अवरोहन्) = उतरता हुआ (अत्रि:) = [अद्यते त्रिभिः] काम-क्रोध-लोभ से खाया जाता हुआ (यद्) = जब कभी ठोकर लगने पर चेतना में आता है और (वाम्) = हे प्राणापानो! आप दोनों को, (नाधमाना योषा इव) = याचना करती हुई स्त्री की तरह, अर्थात् अत्यन्त नम्र भाव से (अजोहवीत्) = पुकारता है। मनुष्य संसार में विषयों में फँसने पर अधिक और अधिक अन्धकारमय गर्त में पहुँचता जाता है। कभी जरा चेतता है, तो अपनी दुर्गति से दुःखी होकर उस दीन अवस्था में प्राणापान को रक्षण के लिये पुकारता है । [२] पुकारे जाने पर हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (श्येनस्य) = शंसनीय गतिवाले बाज के (चित्) = निश्चय से (जवसा) = वेग से (अगच्छतम्) = उसे प्राप्त होते हो। यह आपका वेग उस अत्रि के लिये (नूतनेन) = नवीन जीवन का कारण बनता है तथा (शन्तमेन) = उसे अधिक से अधिक शान्ति प्राप्त कराता है। इस प्राणसाधना से काम-क्रोध आदि इस प्रकार नष्ट किये जाते हैं, जैसे कि चिड़ियाँ बाज से। अब यह प्राणसाधना करता हुआ अत्रि 'अद्यते त्रिभिः' न रहकर 'अविद्यमानाः त्रयो यस्य' हो जाता है। यह काम-क्रोधलोभ से पीड़ित नहीं होता, इसके जीवन से 'काम-क्रोध-लोभ' का विलोप हो जाता है। परिणामतः यह अद्भुत शान्ति का अनुभव करता है ।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना से अन्धकार गर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति भी ऊपर उठता है और नवीन शान्त जीवन को प्राप्त करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वानांचे अनुकरण करतात व सरळ स्वभावाचे असून प्रयत्नशील असतात ते सदैव सुखी असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, harbingers of new life like sun and moon, when Atri, man of threefold freedom, in depression, struggling to emerge, calls upon you for help like a woman in distress, pray fly to his rescue and rejuvenation like an eagle with protection and fresh lease of life giving him peace, stability and reassurance.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal