ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वृ॒ञ्जे ह॒ यन्नम॑सा ब॒र्हिर॒ग्नावया॑मि॒ स्रुग्घृ॒तव॑ती सुवृ॒क्तिः। अम्य॑क्षि॒ सद्म॒ सद॑ने पृथि॒व्या अश्रा॑यि य॒ज्ञः सूर्ये॒ न चक्षुः॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ञ्जे । ह॒ । यत् । नम॑सा । ब॒र्हिः । अ॒ग्नौ । अया॑मि । स्रुक् । घृ॒तऽव॑ती । सु॒ऽवृ॒क्तिः । अम्य॑क्षि । सद्म॑ । सद॑ने । पृ॒थि॒व्याः । अश्रा॑यि । य॒ज्ञः । सूर्ये॑ । न । चक्षुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृञ्जे ह यन्नमसा बर्हिरग्नावयामि स्रुग्घृतवती सुवृक्तिः। अम्यक्षि सद्म सदने पृथिव्या अश्रायि यज्ञः सूर्ये न चक्षुः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठवृञ्जे। ह। यत्। नमसा। बर्हिः। अग्नौ। अयामि। स्रुक्। घृतऽवती। सुऽवृक्तिः। अम्यक्षि। सद्म। सदने। पृथिव्याः। अश्रायि। यज्ञः। सूर्ये। न। चक्षुः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसोऽहं नमसाऽग्नौ यद्बर्हिर्ह वृञ्जे या सुवृक्तिर्घृतवती स्रुगम्यक्षि तामयामि यो यज्ञः सूर्य्ये चक्षुर्न पृथिव्याः सदने सद्म अश्रायि तं सर्वेऽनुतिष्ठन्तु ॥५॥
पदार्थः
(वृञ्जे) त्यजामि (ह) किल (यत्) (नमसा) अन्नादिना (बर्हिः) घृतम् (अग्नौ) पावके (अयामि) प्राप्नोमि (स्रुक्) या स्रवति सा (घृतवती) बहूदकयुक्ता नदी (सुवृक्तिः) सुष्ठु व्रजन्ति यस्यां सा (अम्यक्षि) गच्छति (सद्म) सीदन्ति यस्मिंस्तत् (सदने) स्थाने (पृथिव्याः) भूमेः (अश्रायि) आश्रयति (यज्ञः) सङ्गन्तव्यः (सूर्य्ये) (न) इव (चक्षुः) नेत्रम् ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा होतारोऽग्नौ स्रुचा घृतं त्यजन्ति तथा विद्वांसोऽन्यबुद्धौ विद्यां त्यजन्तु यथा सूर्य्यप्रकाशे चक्षुर्व्याप्नोति तथैव हुतं द्रव्यमन्तरिक्षे व्याप्नोति ॥५॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! मैं (नमसा) अन्न आदि से (अग्नौ) अग्नि में (यत्) जिस (बर्हिः) घृत का (ह) निश्चय करके (वृञ्जे) त्याग करता हूँ और जो (सुवृक्तिः) सुवृक्ति अर्थात् उत्तम प्रकार चलते हैं जिसमें वह (घृतवती) बहुत जल से युक्त नदी (स्रुक्) बहनेवाली (अम्यक्षि) चलती है उसको (अयामि) प्राप्त होता हूँ और जो (यज्ञः) प्राप्त होने योग्य यज्ञ (सूर्य्ये) सूर्य्य में (चक्षुः) नेत्र (न) जैसे वैसे (पृथिव्याः) पृथिवी के (सदने) स्थान में (सद्म) रहने का स्थान अर्थात् गृह का (अश्रायि) आश्रयण करता है, उसका सब लोग अनुष्ठान करो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे हवन करनेवाले जन अग्नि में स्रुवा से घृत छोड़ते हैं, वैसे विद्वान् जन अन्य की बुद्धि में विद्या को छोड़ें और जैसे सूर्य्य के प्रकाश में नेत्र व्याप्त होता है, वैसे ही हवन किया गया द्रव्य अन्तरिक्ष मे व्याप्त होता है ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे यज्ञ करणारे लोक अग्नीत स्रुवेने (चमच्याने) तूप सोडतात तशी विद्वान लोकांनी इतरांना विद्या द्यावी व जसा सूर्याचा प्रकाश नेत्रांना व्यापतो तसे यज्ञातील द्रव्य अंतरिक्षाला व्यापते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Surely when the grass is gathered with reverence, the ladle overflowing with ghrta is raised over the fire with sacred hymns, the vedi is firmly settled on the ground, then the yajna is accomplished on the earth as the eye is established in the sun (from birth to death with the last rites).
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal