ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स त्वं नो॑ अर्व॒न्निदा॑या॒ विश्वे॑भिरग्ने अ॒ग्निभि॑रिधा॒नः। वेषि॑ रा॒यो वि या॑सि दु॒च्छुना॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । नः॒ । अ॒र्व॒न् । निदा॑याः । विश्वे॑भिः । अ॒ग्ने॒ । अ॒ग्निऽभिः॑ । इ॒धा॒नः । मदे॑म । श॒तऽहि॑माः । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं नो अर्वन्निदाया विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिधानः। वेषि रायो वि यासि दुच्छुना मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठसः। त्वम्। नः। अर्वन्। निदायाः। विश्वेभिः। अग्ने। अग्निऽभिः। इधानः। वेषि। रायः। वि। यासि। दुच्छुनाः। मदेम। शतऽहिमाः। सुऽवीराः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे अर्वन्नग्ने ! यतस्त्वं विश्वेभिरग्निभिरिधानो नो निदाया रायो वेषि दुच्छुना वि यासि स त्वं वयं च शतहिमाः सुवीरा मदेम ॥६॥
पदार्थः
(सः) (त्वम्) (नः) अस्मान् (अर्वन्) अश्वेव [अश्व इव] शीघ्रं गमयन् (निदायाः) निन्दिकायाः प्रजायाः (विश्वेभिः) समग्रैः (अग्ने) पावक इव प्रतापिन् (अग्निभिः) विद्युदादिभिः (इधानः) देदीप्यमानः (वेषि) व्याप्नोषि (रायः) धनानि (वि) (यासि) प्राप्नोषि (दुच्छुनाः) दुष्टः श्वेव वर्त्तमानाः सेनाः (मदेम) हर्षेम (शतहिमाः) शतं हिमानि येषान्ते (सुवीराः) शोभनाश्च ते वीराः ॥६॥
भावार्थः
मनुष्यैः समग्रैरग्न्यादिभिः पदार्थैः कार्य्याणि संसाध्य या न्यायाज्ञाविरुद्धाः प्रजास्ता दण्डयित्वा शान्ताः सम्पादनीया एवं हि न्यायाचरणेन सर्वे शतायुषो भवन्ति ॥६॥ अत्र विद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वादशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे होवें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अर्वन्) घोड़े की सदृश शीघ्र चलाते हुए (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रतापी जिस कारण से (त्वम्) आप (विश्वेभिः) सम्पूर्ण (अग्निभिः) बिजुली आदिकों से (इधानः) निरन्तर प्रकाशमान (नः) हम लोगों की (निदायाः) निन्दा करते हुए प्रजाजन के (रायः) धनों को (वेषि) व्याप्त होते हो और (दुच्छुनाः) दुष्ट श्वा के सदृश वर्त्तमान सेनाओं को (वि, यासि) विशेष प्राप्त होते हो (सः) वह आप और हम लोग (शतहिमाः) सौ हिम वर्ष जिनके वे (सुवीराः) सुन्दर वीर जन (मदेम) हर्षित होवें ॥६॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सम्पूर्ण अग्नि आदि पदार्थों से कार्य्यों को सिद्ध करके जो न्याय की आज्ञा से विरुद्ध प्रजाजन हैं, उनको ताड़न करके शान्त सम्पादित करें, क्योंकि इस प्रकार न्याय के आचरण से सम्पूर्ण जन सौ वर्ष युक्त होते हैं ॥६॥ इस सूक्त में विद्वान्, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बारहवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा प्रजा को निन्दनीय जनों से बचावे ।
भावार्थ
हे ( अर्वन् ) शत्रुओं के नाश करने हारे ! हे अश्व के समान नियुक्त होकर राष्ट्र-रथ के सञ्चालक ! महारथिन् ! धुरन्धर ! हे ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! परंतप ! ( अग्निभिः ) आगे जाने वाले नाना नायकों, किरणों वा ज्वालाओं से सूर्य वा अग्नि के समान ( इधानः ) खूब देदीप्यमान होकर, ( त्वं ) तू ( निदायाः ) निन्दित प्रजा वा निन्दा से ( नः ) हम लोगों को (वेषि) दूर रख । ( नः रायः वेषि) हमारे उत्तम ऐश्वर्यो, धनों की कामना कर, वा उनकी निन्दित जनता वा निन्दित क्रिया से नष्ट होने से ( वेषि) रक्षा कर । तू ( दुच्छुनाः) दुःखदायी कुत्ते के समान काटने वाली, वा सुख की नाशक परसेनाओं, वा बुरी जनताओं को ( वि यासि ) विशेष रूप से चढ़ाई कर, विविध प्रकार से नाश कर, जिससे हम ( सुवीराः ) उत्तम वीरों और सन्तानों सहित ( शतहिमाः मदेम ) सौ २ वर्ष की आयु वाले होकर आनन्द से जीवन व्यतीत करें । इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्ति: ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
वेषि रायः, विभासि दुच्छुनाः
पदार्थ
[१] हे (अर्वन्) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमें (निदाया:) = सब निन्दाओं व निन्दनीय कर्मों से (वेषि) = [अवगमयसि] दूर करते हैं। इसीलिए हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (विश्वेतिः अग्निभिः) = सब उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुषों से (इधान:) = हृदयदेश में दीप्त किये जाते हैं। [२] आप (राय: वेषि) = सब धनों को प्राप्त कराते हैं । (दुच्छुता:) = दुःखदायिनी वासनारूप शत्रु सेनाओं पर (वियासि) = विशिष्ट रूप से आक्रमण करते हैं । हे प्रभो ! इस प्रकार ऐश्वर्यों को प्राप्त करके, वासनारूप शत्रुओं का नाश करके हम (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले होते हुए (शतहिमा:) = शत वर्षपर्यन्त (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें निन्दनीय कर्मों से बचाते हैं। हम वासनाओं से ऊपर उठकर तथा ऐश्वर्यो को प्राप्त करके, सुवीर व सानन्द जीवनवाले हों। अगले सूक्त में भी अग्नि का ही आराधन करते हैं कि -
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी संपूर्ण अग्नी इत्यादी पदार्थांनी कार्य करून जे प्रजाजन न्यायाविरुद्ध वागतात त्यांना दंड देऊन शांतता स्थापित करावी. या प्रकारे न्यायाचरणाने वागल्यास सर्व लोक शंभर वर्षे जगतील. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, ruling light of the world, instant dynamic and omnipresent power burning with all kinds of light and fire, protect us from reproach, create and bring us wealth, honour and excellence, ward off and destroy hate, enmity and evil, and let us all enjoy and celebrate a full hundred years of life in the company of brave children and heroic warriors of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
An ideal man is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! you are full of splendor like the fire and moving all quickly like the horse (power. Ed.) as shining with the various forms of electricity and other objects. Thus you conquer your adversaries who censure (defame. Ed.) you unjustly and take away their riches. Subduing dog-like wicked armies, therefore let us enjoy delight for hundred years being brave heroes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should accomplish all works by the proper application of Agni (fire and electricity etc.) and other things, and should punish the unjust people and make them calm (disciplined. Ed.). In this way, by doing righteous and just works, all may live for hundred years.
Foot Notes
(अवन्) अश्वेव शीघ्र ं गमयन् । अर्व-गतौ | = Moving swiftly like a horse. (वेषि) व्याप्नोषि । वी-गतिव्याप्तिप्रजन कात्यसनखादनेषु । अत्र व्याप्त्यर्थ: । = Pervade.
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