ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 37
उप॑ त्वा र॒ण्वसं॑दृशं॒ प्रय॑स्वन्तः सहस्कृत। अग्ने॑ ससृ॒ज्महे॒ गिरः॑ ॥३७॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । त्वा॒ । र॒ण्वऽस॑न्दृशम् । प्रय॑स्वन्तः । स॒हः॒ऽकृ॒त॒ । अग्ने॑ । स॒सृ॒ज्महे॑ । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा रण्वसंदृशं प्रयस्वन्तः सहस्कृत। अग्ने ससृज्महे गिरः ॥३७॥
स्वर रहित पद पाठउप। त्वा। रण्वऽसन्दृशम्। प्रयस्वन्तः। सहःऽकृत। अग्ने। ससृज्महे। गिरः ॥३७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 37
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः कीदृशी वाक् प्रयोक्तव्येत्याह ॥
अन्वयः
हे सहस्कृताग्ने ! प्रयस्वन्तो वयं या गिरः ससृज्महे ताभी रण्वसन्दृशं त्वोप ससृज्महे ॥३७॥
पदार्थः
(उप) (त्वा) त्वाम् (रण्वसन्दृशम्) रमणीयसदृशम् (प्रयस्वन्तः) प्रयतमानाः (सहस्कृत) यः सहसा करोति तत्सम्बुद्धौ (अग्ने) पावक इव विद्वान् (ससृज्महे) भृशं सृजेम (गिरः) वाचः ॥३७॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यथा स्वार्थप्रिया वाग्घृद्या भवति तथैवान्यार्थापि वेद्या ॥३७॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य कैसे वाणी को प्रयुक्त करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहस्कृत) सहसा कार्य्यकर्ता (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वन् ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्न करते हुए हम लोग जिन (गिरः) वाणियों को (ससृज्महे) अत्यन्त प्रकट करें उनसे (रण्वसन्दृशम्) रमणीय के तुल्य (त्वा) आपको (उप) समीप में अत्यन्त प्रकट करें ॥३७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अपने प्रयोजन की प्रिय वाणी हृदय को प्रिय होती है, वैसे अन्य जनों के प्रयोजन को भी समझें ॥३७॥
विषय
सम्यग् दृष्टि वाले ज्ञानी के पास से ज्ञानोपार्जन ।
भावार्थ
हे ( सहस्कृत ) सहनशीलता, या विजयकारी बल से सम्पन्न ! (अग्ने) तेजस्विन् ! विद्वन् ! हम लोग (प्रयस्वन्तः) उत्तम यत्नशील होकर ( रण्वसन्दृशं त्वा उप ) उत्तम, सम्यक् दर्शन वाले तेरे समीप रहकर ( गिरः ) वाणियों का ( ससृज्महे ) ज्ञान लाभ करें वा हे परमेश्वर ! हम यत्नशील होकर तुझ अतिरमणीय रूप को लक्ष्य कर स्तुति कहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'रण्वसन्द्वक्' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! (रण्वसन्दृशम्) = रमणीय दर्शनवाले आपके (उप) = समीप स्थित होते हुए हम (गिरः ससृज्महे) = ज्ञान की वाणियों को उत्पन्न करते हैं। आपकी उपासना हमारे ज्ञानवर्धन का कारण बनती है। [२] हे (सहस्कृत) = हमारे में इस ज्ञान के द्वारा शत्रु-मर्षक बल को उत्पन्न करनेवाले प्रभो ! हम आप से दिये गये इस ज्ञान के द्वारा ही (प्रयस्वन्तः) = प्रकृष्ट उद्योगोंवाले होते हैं। ज्ञान हमारे जीवनों व प्रयत्नों को पवित्र करता है।
भावार्थ
भावार्थ- उस अग्नि की उपासना करते हुए हम उत्कृष्ठ ज्ञान को प्राप्त करते हैं। इस ज्ञान से प्रकृष्ट प्रयत्नोंवाले होते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जशी आपल्या प्रयोजनासाठी प्रियवाणी हृदयाला चांगली वाटते तसे इतरांच्या प्रयोजनालाही जाणावे. ॥ ३७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, blazing light of life, lord of bliss and beatific vision, source giver of the power of action and forbearance, blest with the food of life and light of the spirit, we sing songs of adoration and send up our words of gratitude to you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kind of speech should be used by men is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person! purifier like the fire, as we being industrious use good speeches for our purposes, so let us always manifest such true and sweet words for you also whose look is lovely and who do things with energy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that as they like pleasant speech to be used for their delight, so they should use that for others also.
Foot Notes
(प्रयस्वन्तः) प्रयतमानाः । प्र + यसु प्रयत्ने (दिवा० ) । = Endeavoring, industrious (रणीयसन्दृशम् ) रमणीयसदृशम् । सरु इति बलनाम (NG 2, 9 ) षह-शक्तौ ( काशवुरस्वधातुपाठे 3, 17 ) = Of charming appearance, of one whose looks are lovely.
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