ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इन्द्र॑ जा॒मय॑ उ॒त येऽजा॑मयोऽर्वाची॒नासो॑ व॒नुषो॑ युयु॒ज्रे। त्वमे॑षां विथु॒रा शवां॑सि ज॒हि वृष्ण्या॑नि कृणु॒ही परा॑चः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । जा॒मयः॑ । उ॒त । ये । अजा॑मयः । अ॒र्वा॒ची॒नासः॑ । व॒नुषः॑ । यु॒यु॒ज्रे । त्वम् । ए॒षा॒म् । वि॒थु॒रा । शवां॑सि । ज॒हि । वृष्ण्या॑नि । कृ॒णु॒हि । परा॑चः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र जामय उत येऽजामयोऽर्वाचीनासो वनुषो युयुज्रे। त्वमेषां विथुरा शवांसि जहि वृष्ण्यानि कृणुही पराचः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। जामयः। उत। ये। अजामयः। अर्वाचीनासः। वनुषः। युयुज्रे। त्वम्। एषाम्। विथुरा। शवांसि। जहि। वृष्ण्यानि। कृणुहि। पराचः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं येऽर्वाचीनासो जामय इवोताजामयो वनुषो युयुज्र एषां शत्रूणां विथुरा शवांसि त्वं जहि स्वसैन्यानि वृष्ण्यानि कृणुही शत्रून् पराचश्च ॥३॥
पदार्थः
(इन्द्र) सेनेश (जामयः) पतिव्रता भार्या इव (उत) अपि (ये) (अजामयः) सपत्न्य इव शत्रवः (अर्वाचीनासः) इदानीन्तनाः (वनुषः) संविभाजकान् (युयुज्रे) युञ्जन्ति (त्वम्) (एषाम्) (विथुरा) व्यथकानि (शवांसि) बलानि (जहि) (वृष्ण्यानि) बलिष्ठानि (कृणुही) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पराचः) पराङ्मुखान् ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । त एव सचिवा उत्तमा ये धार्मिकीः प्रजाः पुत्रवद्रक्षन्ति दुष्टांश्च दण्डयन्ति स्वसैन्यानि वर्धयित्वा शत्रुसेनां पराजयन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेना के स्वामी (त्वम्) आप (ये) जो (अर्वाचीनासः) इस काल में हुए (जामयः) पतिव्रता स्त्रियों के सदृश और (उत) भी (अजामयः) सौतियाँ जैसे वैसे शत्रु जन (वनुषः) संविभाग करनेवालों को (युयुज्रे) युक्त होते अर्थात् मिलते हैं (एषाम्) इन शत्रुओं की (विथुरा) पीड़ा देनेवाली (शवांसि) सेनाओं को (त्वम्) आप (जहि) नष्ट कीजिये और अपनी सेनाओं को (वृष्ण्यानि) बलिष्ठ (कृणुही) करिये और शत्रुओं को (पराचः) पराङ्मुख कीजिये अर्थात् हटाइये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही मन्त्री उत्तम हैं, जो धार्मिक प्रजाओं की पुत्र के सदृश रक्षा करते हैं और दुष्टों को दण्ड देते हैं और अपनी सेनाओं को बढ़ाय के शत्रुओं की सेना को पराजित करते हैं ॥३॥
विषय
पीड़ाकारियों का नाश ।
भावार्थ
( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! सेनापते ! राजन् ! ( ये ) जो लोग (जामयः ) बन्धुओं के समान स्नेही वा भार्याओं के समान आज्ञाकारी, ( उत ) और ( ये ) जो (अजामयः ) सपत्नी वा सौतें या अबन्धु जनों के समान, निःस्नेह हैं और जो ( अर्वा चीनासः ) अब के, वा हमारे प्रति आने वाले, (वनुषः) अपने धन वेतन आदि देनेवाले स्वामियों के प्रति ( युयुज्रे ) योग देते वा उनके विरोध में आक्रमण या षड्यन्त्र करते हैं ( त्वम् ) तू (एषां) इन के (विथुरा) पीड़ादायक ( शवांसि ) बलों को ( जहि ) विनाश कर और ( वृष्ण्यानि ) बलशाली सैन्यों को ( कृणुहि ) सम्पादन कर और ( पराचा जहि ) पराङ्मुख शत्रुओं को भी नाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः – १, ५ पंक्तिः । ३ भुर्रिक् पंक्तिः । २, ७, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ६ त्रिष्टुप् ।। नवर्च सूक्तम् ॥
विषय
'जामि व अजामि' रूप शत्रु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (ये) = जो (जामयः) = बन्धुत्ववाले होते हुए हमारे शत्रु हुए हैं, (उत) = और जो (अजामयः पराये) = हमारे शत्रु बने हैं, (अर्वाचीनास:) = हमारी ओर आते हुए (वनुषः) = हिंसक बने हुए (युयुज्रे) = युद्ध के लिये प्रयुक्त होते हैं, (त्वम्) = आप (एषाम्) = इन जामि व अजामि रूप शत्रुओं के (शवांसि) = [शवतिर्गतिकर्मा] आक्रमण रूप गमनों को (विथुरा) = शिथिल (कृणुहि) = कर दीजिये। इनमें हमारे पर आक्रमण के लिये उत्साह न बना रहे। [२] हे प्रभो ! आप इनके (वृष्ण्यानि) = वीर्यों को (जहि) = विनष्ट करिये और इन्हें (पराचः) = पराङ्मुख करिये रणाङ्गण से ये भाग खड़े हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु को अपने हृदयों में आसीन करके 'जामि व अजामि' रूप दोनों प्रकार के शत्रुओं को नष्ट करनेवाले हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धार्मिक प्रजेचे पुत्राप्रमाणे रक्षण करतात व दुष्टांना दंड देतात, तसेच आपली सेना वाढवून शत्रूच्या सेनेला पराजित करतात तेच मंत्री उत्तम असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty ruler and commander of the common wealth, whether it is your own people or other distant ones or sabotagers who join upfront against you to injure the system, you destroy their forces of sabotage, eliminate their growing potential and throw them out.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Commander's duties are further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Commander of the army ! you smash the strength of the enemy like the faithful wives eliminate the upkeeps. Besides strengthen your own army, in order to defeat the enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
They alone are good (defense) ministers who defend their people like their own sons and punish the wicked by strengthening their army and thus subdue the enemy.
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