ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शूरो॑ वा॒ शूरं॑ वनते॒ शरी॑रैस्तनू॒रुचा॒ तरु॑षि॒ यत्कृ॒ण्वैते॑। तो॒के वा॒ गोषु॒ तन॑ये॒ यद॒प्सु वि क्रन्द॑सी उ॒र्वरा॑सु॒ ब्रवै॑ते ॥४॥
स्वर सहित पद पाठशूरः॑ । वा॒ । शूर॑म् । व॒न॒ते॒ । शरी॑रैः । त॒नू॒ऽरुचा॑ । तरु॑षि । यत् । कृ॒ण्वैते॒ इति॑ । तो॒के । वा॒ । गोषु॑ । तन॑ये । यत् । अ॒प्ऽसु । वि । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । उ॒र्वरा॑सु । ब्रवै॑ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शूरो वा शूरं वनते शरीरैस्तनूरुचा तरुषि यत्कृण्वैते। तोके वा गोषु तनये यदप्सु वि क्रन्दसी उर्वरासु ब्रवैते ॥४॥
स्वर रहित पद पाठशूरः। वा। शूरम्। वनते। शरीरैः। तनूऽरुचा। तरुषि। यत्। कृण्वैते इति। तोके। वा। गोषु। तनये। यत्। अप्ऽसु। वि। क्रन्दसी इति। उर्वरासु। ब्रवैते इति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजामात्याश्च किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे राजजना ! यथा शूरस्तनूरुचा शरीरैस्तरुषि शूरं वनते वा द्वौ यत्कृण्वैते क्रन्दसी सन्तौ यत्तोके तनय उर्वरासु गोषु वाप्सु वि ब्रवैते तथा यूयमपि भवत ॥४॥
पदार्थः
(शूरः) (वा) (शूरम्) (वनते) सम्भजति (शरीरैः) (तनूरुचा) या तनूषु रुक् प्रीतिस्तया (तरुषि) दुःखात्तारके सङ्ग्रामे (यत्) (कृण्वैते) कुर्याताम् (तोके) सद्यो जातेऽपत्ये (वा) (गोषु) वाणीषु (तनये) सुकुमारे (यत्) (अप्सु) जलेषु (वि) (क्रन्दसी) क्रन्दमानौ विक्रोशन्तौ (उर्वरासु) पृथिव्यादिनिमित्तेषु (ब्रवैते) ब्रूयाताम् ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा सङ्ग्रामे शूराः शूरान् विभज्य युध्यन्ति तथैव राजाऽमात्यांश्च श्रेष्ठानधमांश्च विभज्याऽधिकारेषु नियोज्याज्ञापयेद्यथा कृषिविद्यया कृषीवलान् बोधयेत् तथैव स्वसन्तानान् सुशिक्षया विद्याग्रहणाय ब्रह्मचर्ये प्रवर्त्तयेत् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और मन्त्रीजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजजनो ! जैसे (शूरः) शूरवीर पुरुष (तनूरुचा) शरीरों में हुई प्रीति से और (शरीरैः) शरीरों से (तरुषि) दुःख से पार करनेवाले सङ्ग्राम में (शूरम्) शूरवीर जन का (वनते) आदर करता है (वा) वा दोनों (यत्) जिसको (कृण्वैते) करें और (क्रन्दसी) क्रोशते हुए (यत्) जो (तोके) शीघ्र उत्पन्न हुए (तनये) सुकुमार बालक के होने पर (उर्वरासु) पृथिवी आदि के कारणों में (गोषु) वाणियों में (वा) अथवा (अप्सु) जलों में (वि, ब्रवैते) कहें, वैसे आप लोग भी हूजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सङ्ग्राम में शूरजन शूरवीरों का विभाग करके युद्ध करते हैं, वैसे ही राजा और अमात्य श्रेष्ठ और अधमों का विभाग करके अधिकारों में युक्त करके आज्ञा देवें और जैसे खेती की विद्या से खेतीहारों को जनावें, वैसे ही अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्या ग्रहण के लिये ब्रह्मचर्य में प्रवृत्त करावें ॥४॥
विषय
उत्तम न्यायकारी का पद इन्द्र।
भावार्थ
( यत् ) जिस प्रकार ( तनू-रुचा ) अपनी देह की कान्ति में चमकने वाले दो पुरुष ( तरुषि ) एक दूसरे को मारने के निमित्त ( कृण्वैते ) युद्ध करते और एक दूसरे को मारते हैं उसी प्रकार दो प्रबल राजा भी ( तनू-रुचा ) विस्तृत सेनाओं वा विस्तृत राष्ट्र सम्पदा से शोभावान् होकर ( तरुषि ) संग्राम-काल में ( शरीरैः ) बहुत से शरीरधारी सैन्यों सहित ( कृण्वैते ) उद्योग करें । तब ( शूरः शूरं वा ) एक शूरवीर पुरुष दूसरे शूरवीर को ( वनते ) मारता है, एक दूसरे को सेवता भी है। इसी प्रकार ( यत् ) जब ( तोके ) पुत्र, ( तनये ) पौत्र, ( वा गोषु ) वा गौओं, और ( अप्सु उर्वरासु ) पुत्र वा अन्नादि को उत्पन्न करने वाली उपजाऊ प्राप्त स्त्रियों और भूमियों के निमित्त ( क्रन्दमानौ ) परस्पर आक्षेप करते हुए, ( यत् वि ब्रवैते ) परस्पर विवाद करते हैं तब भी तू ही उनके ऊपर न्यायकर्त्ता के समान विद्यमान रह ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः – १, ५ पंक्तिः । ३ भुर्रिक् पंक्तिः । २, ७, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ६ त्रिष्टुप् ।। नवर्च सूक्तम् ॥
विषय
संसार गति
पदार्थ
[१] (तनूरुचा) = शरीर से शोभायमान होते हुए परस्पर विरोधी दो पुरुष (यत्) = जब (तरुषि) = युद्ध में (कृण्वैते) = संग्राम को करते हैं तब (शूरः) = शूर (वा) = निश्चय से (अशूरं वनते) = अशूर को पराजित [नष्ट] करता है । [२] (तोके वा) = पुत्रों के निमित्त, (गोषु) = गौवों के निमित्त (तनये) = पौत्रों के निमित्त, (यद्) = जब (अप्सु) = जलों के विषय में अथवा (उर्वरासु) = सर्वसस्याढ्य भूमियों के निमित्त (क्रन्दसी) = एक दूसरे का आह्वान करते हुए (वि ब्रवैते) = विवाद करते हैं। तो ऐसे प्रसंगों में शूर अशूर को पराजित करता है । सो प्रभु की उपासना से हम शूरता को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। प्रभु की उपासना ही हमें शूर बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ– पुत्र-पौत्रों, खेत के जलों व भूमियों के विषय में युद्ध तभी हो उठते हैं जब कि हम प्रभु की उपासना से दूर हो जाते हैं । युद्ध आ भी जाए, तो प्रभु की उपासना से शूर बने हम शत्रुओं का पराजय कर पाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे युद्धात शूर लोक शूरवीरांना वेगवेगळे नेमून युद्ध करतात तसेच राजा व अमात्यांनी श्रेष्ठ व कनिष्ठ लोकांना पृथक पृथक अधिकार पदावर नेमून त्यांना आज्ञा द्याव्यात. जसे शेतकऱ्यांना शेती विद्येने बोध करता येतो तसेच आपल्या संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्या ग्रहण करण्यासाठी ब्रह्मचर्यात प्रवृत्त करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the brave engage the brave in battle with brilliance of physical force of body, or when people argue, dispute and shout over rights and inheritance in relation to children and grand children, or about fertile lands and cows or waters, then, too, judge and resolve the dispute.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the king and his ministers do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O officers of the State ! with strong body, the hero slays the hero in the battle and honors good brave men. They make loud sounds when fighting. They make about the welfare of their infants and grown up children and make proper use of the earth, water and the tongue.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as in the battles, heroes divide the heroes, so the king and ministers should distinguish between good and bad men and appointed officers discriminately and command them. As an expert in agriculture enlighten the peasants about agriculture, so a man should urge his children to receive good education with the observance of Brahmacharya.
Foot Notes
(तनूरुचा) या तनूषु रुक् प्रीतिस्तया । रुच- दीप्ता-वभिप्रीतौ च (भ्वा०) अत्ताभिः प्रीत्यर्थंतोकम् इत्यषत्यनाम (NG 2, 2) । तनयः इत्यपत्यनाम NG 2, 2)। Love with the body and its development. (उर्वरासु) पृथिव्यादिनिमित्त ेषु = Regarding the fertile lands.
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