ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यस्य॒ गावा॑वरु॒षा सू॑यव॒स्यू अ॒न्तरू॒ षु चर॑तो॒ रेरि॑हाणा। स सृञ्ज॑याय तु॒र्वशं॒ परा॑दाद्वृ॒चीव॑तो दैववा॒ताय॒ शिक्ष॑न् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । गावौ॑ । अ॒रु॒षा । सु॒य॒व॒स्यू इति॑ सु॒ऽय॒व॒स्यू । अ॒न्तः । ऊँ॒ इति॑ । सु । चर॑तः । रेरि॑हाणा । सः । सृञ्ज॑याय । तु॒र्वश॑म् । परा॑ । अ॒दा॒त् । वृ॒चीव॑तः । दै॒व॒ऽवा॒ताय॑ । शिक्ष॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य गावावरुषा सूयवस्यू अन्तरू षु चरतो रेरिहाणा। स सृञ्जयाय तुर्वशं परादाद्वृचीवतो दैववाताय शिक्षन् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। गावौ। अरुषा। सुयवस्यू इति सुऽयवस्यू। अन्तः। ऊँ इति। सु। चरतः। रेरिहाणा। सः। सृञ्जयाय। तुर्वशम्। परा। अदात्। वृचीवतः। दैवऽवाताय। शिक्षन् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 27; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यस्याऽरुषा सूयवस्यू रेरिहाणा गावाविव सेनानीती प्रजाया अन्तः सु चरतः स दैववाताय सृञ्जयाय वृचीवतस्तुर्वशं च शिक्षन्नु दुरितं पराऽदादखण्डितं राज्यं प्राप्नुयात् ॥७॥
पदार्थः
(यस्य) (गावौ) गावौ किरणाविव सेनाराजनीती (अरुषा) आरक्ते (सूयवस्यू) आत्मनस्सुयवसानिच्छू (अन्तः) मध्ये (उ) (सु) (चरतः) (रेरिहाणा) आस्वादयन्त्यौ (सः) सः (सृञ्जयाय) उत्पादनाय (तुर्वशम्) मनुष्यम् (परा) (अदात्) दूरी कुर्यात् (वृचीवतः) छेदनवतः (दैववाताय) दिव्यवायुविज्ञानाय (शिक्षन्) ॥७॥
भावार्थः
यो राजा नीतिसेने उन्नयति सोऽखण्डितं राज्यं प्राप्नोति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यस्य) जिसके (अरुषा) चारों ओर से रक्त (सूयवस्यू) अपने उत्तम यवों की इच्छा करती और (रेरिहाणा) आस्वादन करती हुई (गावौ) किरणों के सदृश सेना और राजनीति प्रजा के (अन्तः) मध्य में (सु, चरतः) उत्तम प्रकार चलती हैं (सः) वह (दैववाताय) श्रेष्ठ वायु के विज्ञान और (सृञ्जयाय) उत्पादन के लिये (वृचीवतः) छेदनवाले के (तुर्वशम्) मनुष्य को (शिक्षन्) शिक्षा देता (उ) और दुर्गुण को (परा, अदात्) दूर करे और अखण्डित राज्य को प्राप्त होवे ॥७॥
भावार्थ
जो राजा नीति और सेना की वृद्धि करता है, वह अखण्डित राज्य को प्राप्त होता है ॥७॥
विषय
राजा की शत्रु उच्छेदक नीति।
भावार्थ
( यस्य ) जिस राजा की ( गावौ ) ‘गौ’ वाणी और शस्त्रों को चलाने वाली सेना, वाक् शक्ति और शस्त्रशक्ति दोनों (अरुषा) रोषरहित और देदीप्यमान ( सु-यवस्यू ) उत्तम रीति से यवस्, चारे आदि चाहने वाली दो गौओं के समान ( सु-यवस्यू ) सुखदायक विवेक और शत्रूच्छेद चाहती हुईं (रेरिहाणा ) उत्तम सुखास्वाद कराती हुई, ( अन्तः उ ) राष्ट्र के मध्य में ( चरतः ) विचरती हैं (सः ) वह ( दैववाताय ) देव, सूर्यवत् तेजस्वी और प्रचण्ड वात के समान शत्रुओं को वृक्षवत् उखाड़ फेंकने वाले बलवान् राजा के राज्यपद को प्राप्त करने और ( सृञ्जयाय ) आगन्तुक शत्रुओं के विजय करने के लिये ( वृचीवतः ) उच्छेदक शक्ति वाले वीर सैनिकों को ( शिक्षन् ) युद्ध की शिक्षा वा अन्नवृत्ति देता हुआ ( तुर्वशं परादात् ) हिंसक शत्रु को पराजित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजा बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १ - ७ इन्द्रः । ८ अभ्यावर्तिनश्चायमानस्य दानस्तुतिर्देवता ।। छन्दः—१, २ स्वराट् पंक्ति: । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ७, ८ त्रिष्टुप् । ६ ब्राह्मी उष्णिक् ।।
विषय
अरुषौ गावौ
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिस प्रभु दी हुई (अरुषा) = आरोचमान, तेज व ज्ञान से चमकती हुई, (सूयवस्यू) = अच्छी प्रकार बुराइयों को दूर करनेवाली व अच्छाइयों को ग्रहण करनेवाली, (रेरिहाणा) = यज्ञों व ज्ञानों का आस्वाद लेती हुई (गावो) = कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ रूप गौयें (उ) = निश्चय से (अन्तः) = द्यावापृथिवी के अन्दर (सुचरतः) = सम्यक् विचरण करती हैं। कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों को करती हुई शरीर रूप पृथिवी को दृढ व तेजस्वी बनाती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान को प्राप्त करती हुई मस्तिष्क रूप द्युलोक को ज्ञानोज्ज्वल करती हैं। (सः) = वे प्रभु (सृञ्जयाय) = [सृ गतौ] गतिशीलता के द्वारा विजय को प्राप्त करनेवाले के लिये तुर्वशम् त्वरा से वश में कर लेनेवाले इस क्रोध को (परादात्) = दूर करते हैं । [२] ये प्रभु ही (दैववाताय) = 'माता, पिता, आचार्य व अतिथि' आदि देवों से प्रेरित होनेवाले इस 'अभ्यावर्ती चायमान' [२७।५] के लिये (शिक्षन्) = शक्ति को देते हुए (वृचीवतः) = उच्छेद करनेवाले वासनारूप शत्रुओं को [परादात्] = सुदूर विनष्ट करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराके शरीररूप पृथिवी को तेज से दीप्त तथा मस्तिष्क रूप द्युलोक को ज्ञानदीप्त बनाते हैं। क्रियाशीलता द्वारा विजयी पुरुष के लिये क्रोध को नष्ट करते हैं तथा दैववात पुरुष के लिये वासनाओं का उच्छेद करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा नीती व सेना यांची वृद्धी करतो तो अखंडित राज्य करतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The ruler whose power and law, internal policy and external defence, both like two healthy, ruddy and loving cows, well provided and happily self-satisfied, operate in the dominion, he, training the efficient force in radiative communication and productive science, would throw off the destructive elements of the state.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! that man can attain inviolable kingdom whose army and policy which are like somewhat red rays, desiring good barley etc. and tasting it move among the people, should throw away all evil giving instructions for the science of divine air and creation to the thoughtful man belonging to the dispeller of darkness of ignorance.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king who develops good policy and army obtains inviolable kingdom.
Foot Notes
(गावौ) गावौ किरणाविव सेनाराजनीती । = Army and policy which are like two rays of the sun. (रेरिहाणा) मास्वावयन्त्यौ रिह-कत्यनयुक्त निन्दाssदानेषु ( तुदा.)। = Tasting. (सुञ्जयाय) उत्पादनाय | = For creating. (वृचीवत:) छेदनवतः = Pierces (of ignorance etc.)
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