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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - गाव इन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उपे॒दमु॑प॒पर्च॑नमा॒सु गोषूप॑ पृच्यताम्। उप॑ ऋष॒भस्य॒ रेत॒स्युपे॑न्द्र॒ तव॑ वी॒र्ये॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । इ॒दम् । उ॒प॒ऽपर्च॑नम् । आ॒सु । गोषु॑ । उप॑ । पृ॒च्य॒ता॒म् । उप॑ । ऋ॒ष॒भस्य॑ । रेत॑सि । उप॑ । इ॒न्द्र॒ । तव॑ । वी॒र्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपेदमुपपर्चनमासु गोषूप पृच्यताम्। उप ऋषभस्य रेतस्युपेन्द्र तव वीर्ये ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। इदम्। उपऽपर्चनम्। आसु। गोषु। उप। पृच्यताम्। उप। ऋषभस्य। रेतसि। उप। इन्द्र। तव। वीर्ये ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ऋषभस्य तव वीर्ये प्रजाभिरुप पृच्यताम् रेतसि च त्वयोप पृच्यतामासु गोषूपपर्चनमुप पृच्यतामिदं राजनयमुप पृच्यताम् ॥८॥

    पदार्थः

    (उप) (इदम्) (उपपर्चनम्) उपसम्बन्धः (आसु) (गोषु) पृथिवीषु वाक्षु वा (उप) (पृच्यताम्) सम्बध्यताम् (उप) (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य (रेतसि) वीर्ये (उप) (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक (तव) (वीर्ये) पराक्रमे ॥८॥

    भावार्थः

    ये राजादयो मनुष्या विद्वांसो भूत्वा सभायां परस्परस्यैकां सम्मतिं कृत्वा विरोधविनाशेनैकतायां प्रयतन्ते तेऽखण्डितसामर्थ्या जायन्त इति ॥८॥ अत्र गवेन्द्रविद्याप्रजाराजधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ अस्मिन्नध्याय इन्द्रसोमसूर्य्योषाराज्यविश्वेदेवयोधृमित्रत्वजगदीश्वराग्निद्यावापृथिवीराजप्रजामरुच्छिल्पिन्यायेशोपदेशक- वाग्विद्यागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां महाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्त ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थाष्टके षष्ठोऽध्यायः पञ्चविंशो वर्गः, षष्ठे मण्डलेऽष्टाविंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के करनेवाले (ऋषभस्य) श्रेष्ठ (तव) आपके (वीर्ये) पराक्रम में प्रजाओं के साथ (उप, पृच्यताम्) सम्बन्ध करिये तथा (रेतसि) पराक्रम में आपको (उप) सम्बन्ध करना चाहिये और (आसु) इन (गोषु) पृथिवियों वा वाणियों में (उपपर्चनम्) समीप सम्बन्ध (उप) सम्बन्ध करना चाहिये और (इदम्) इस राजनीति का (उप) सम्बन्ध करना चाहिये ॥८॥

    भावार्थ

    जो राजा आदि मनुष्य विद्वान् होकर सभा में परस्पर की एक सम्मति करके विरोध के नाश करने से एकता में प्रयत्न करते हैं, वे अखण्डित सामर्थ्यवाले होते हैं ॥८॥ इस सूक्त में गो, इन्द्र, विद्या, प्रजा और राजा के धर्म का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में इन्द्र, सोम, सूर्य, प्रातःकाल, राज्य, विश्वेदेव, योधा, मित्रत्व, जगदीश्वर, अग्नि, अन्तरिक्ष, पृथिवी, राजा, प्रजा, पवन, कारीगर, न्यायेश, उपदेशक, वाणी और विद्या के गुणवर्णन करने से इस अध्याय के अर्थ की इससे पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य विरजानन्द सरस्वती स्वामी जी के शिष्य श्रीमान् दयानन्द सरस्वती स्वामी से रचित उत्तम प्रमाणों से युक्त, ऋग्वेदभाष्य के चतुर्थ अष्टक में छठा अध्याय, पच्चीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल में अट्ठाईसवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    गौओं वाणियों के तुल्य व्यवहार और प्रकृति ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (रेतसि ऋषभस्य गोषु उपपर्चनम् ) उत्तम वीर्य के निमित्त गौओं का सांड के साथ सम्पर्क होता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) विद्यादातः ! विद्वन् ! ( तव वीर्ये ) तेरे ज्ञान सामर्थ्य के ऊपर ( आसु ) इन ( गोषु ) वेद वाणियों के निमित्त ( इदम् ) यह (उप-पर्चनम् ) उत्तम सम्बन्ध ( उप पृच्यताम् ) जुड़े। इसी प्रकार बलवान् राजा के बाहु बल पर भूमियों पर राजा का प्रभुत्व स्थिर हो । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १, ३-८ गावः । २, ८ गाव इन्द्रो वा देवता । छन्दः–१, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ त्रिष्टुप् । ३, ४ जगती । ८ निचृदनुष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    अपपर्चन [Impregnation]

    पदार्थ

    [१] (इदम्) = यह (उपपर्चनम्) [Impregnation] = गर्भ का आधान (आसु गोषु) = इन गौवों में (उपपृच्यताम्) = सम्यक् समीपता से प्राप्त हो । (ऋषभस्य) = खूब शक्तिशाली सांड के (रेतसि) = रेत: कणों में यह गर्भाधान की क्रिया (उप) = संपृक्त हो । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (तववीर्ये) = तेरी शक्ति के निमित्त यह (उप) = उपपर्चन समीपता से प्राप्त हो । जितना ही यह ऋषभ उत्तम नस्ल का होगा, उतना ही यह गौ के उत्तम दूध का कारण बनेगा। और वह उत्तम दूध हमारे शरीर में शक्ति की उत्पत्ति का साधन बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- गौवों का उपपर्चन उत्तम ऋषभों द्वारा हो। इन गौवों से प्राप्त दुग्ध हमारी उत्तम शक्ति का साधन बने । अगले सूक्त में पुन 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का आराधन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजे विद्वान बनून सभेत परस्पर एक संमतीने विरोधाचा नाश करून एकतेसाठी प्रयत्न करतात ते अखंड सामर्थ्यवान बनतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In this social order and in the policy, let there be a union and identity of the ruler with the people, their lands and their languages. Indra, noble and illustrious ruler, all giver, let the people share, join and support you in your creative acts of courage and development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O giver of great wealth or causer of prosperity, Indra (King) ! let your subjects be united with the power of their who are the best. Let them be united with your might. Let there be this admixture in these lands or speeches. Let there be this admixture or close relationship be in politics.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings and officers of the State who having become highly learned, work agreeably in the council and always try to get unanimity by discarding all discord, are endowed with uninterrupted or unbroken power.

    Foot Notes

    (उपपर्चनम्) असम्बन्धः । पुची-सम्पर्चने (अदा.) पुचो-सम्पर्के (स)। = Close relation. (गोषु) पृथिवीषु वाक्षु वा गौरिति पृथिवीनाम (NG 1, 1) गौरिति वाङ्नाम (NG 1, 11)। = In the lands or speeches.

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