ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
स तु श्रु॑धि॒ श्रुत्या॒ यो दु॑वो॒युर्द्यौर्न भूमा॒भि रायो॑ अ॒र्यः। असो॒ यथा॑ नः॒ शव॑सा चका॒नो यु॒गेयु॑गे॒ वय॑सा॒ चेकि॑तानः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसः । तु । श्रु॒धि॒ । श्रुत्या॑ । यः । दु॒वः॒ऽयुः । द्यौः । न । भूम॑ । अ॒भि । रायः॑ । अ॒र्यः । असः॑ । यथा॑ । नः॒ । शव॑सा । च॒का॒नः । यु॒गेऽयु॑गे । वय॑सा । चेकि॑तानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स तु श्रुधि श्रुत्या यो दुवोयुर्द्यौर्न भूमाभि रायो अर्यः। असो यथा नः शवसा चकानो युगेयुगे वयसा चेकितानः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसः। तु। श्रुधि। श्रुत्या। यः। दुवःऽयुः। द्यौः। न। भूम। अभि। रायः। अर्यः। असः। यथा। नः। शवसा। चकानः। युगेऽयुगे। वयसा। चेकितानः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यो द्यौर्न दुवोयुरर्यः शवसा चकानो युगेयुगे वयसा चेकितानः श्रुत्या यथा नः समाचारं शृणोति यथा सोऽसो रायः प्राप्ता वयं द्यौर्न भूम तथा तु त्वं सर्वेषां वार्तामभि श्रुधि ॥५॥
पदार्थः
(सः) (तु) (श्रुधि) शृणु (श्रुत्या) श्रवणेन (यः) (दुवोयुः) परिचरणं कामयमानः (द्यौः) प्रकाशः (न) इव (भूम) भवेम (अभि) (रायः) धनानि (अर्यः) स्वामी (असः) भवेत् (यथा) (नः) अस्माकम् (शवसा) बलेन (चकानः) कामयमानः (युगेयुगे) प्रतिवर्षम् (वयसा) आयुषा (चेकितानः) विजानन् ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा परीक्षको विद्यार्थिनामध्ययनपरीक्षां कृत्वा विदुषः सम्पादयति तथैव राजा यथार्थं न्यायं कृत्वा प्रजा रञ्जयेदिति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्त्रिंशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे ऐश्वर्य से युक्त ! (यः) जो (द्यौः) प्रकाश (न) जैसे वैसे (दुवोयुः) सेवा की कामना करता हुआ (अर्यः) स्वामी (शवसा) बल से (चकानः) कामना करता हुआ (युगेयुगे) प्रतिवर्ष (वयसा) अवस्था में (चेकितानः) जानता हुआ (श्रुत्या) श्रवण से (यथा) जैसे (नः) हम लोगों के समाचार को सुनता है और जैसे (सः) वह (असः) हो तथा (रायः) धनों को प्राप्त हुए हम लोग प्रकाश जैसे वैसे (भूम) होवें, वैसे (तु) तो आप सब की बात को (अभि, श्रुधि) सुनें ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे परीक्षक विद्यार्थियों के अध्ययन की परीक्षा करके विद्वान् करता है, वैसे ही राजा यथार्थ न्याय को करके प्रजाओं को प्रसन्न करे ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और राजा के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छत्तीसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रजा के प्रति सावधान कान वाला, सर्वप्रिय होने का उपदेश।
भावार्थ
( यः ) जो ( द्यौः न ) सूर्य के समान तेजस्वी ( दुवोयुः ) परिचर्या की कामना करता हुआ, ( भूम-रायः अभि ) बहुत बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त कर ( अर्थ: ) सबका स्वामी है ( सः ) वह तू ( श्रुत्या ) श्रवण करने योग्य, प्रजाओं के वचनों को ( श्रधि तु ) अवश्य श्रवण कर ( यथा ) जिससे तू ( युगे युगे ) प्रति वर्ष, ( वयसा ) दीर्घ आयु ( शवसा ) और बल, ज्ञान से ( चकानः ) कान्ति युक्त और (चेकितानः) ज्ञानवान् होकर (नः ) हमारा प्रिय (असः) हो । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नर ऋषिः । इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५ भुरिक् पंक्तिः । स्वराट् पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
शवस्-वयस्
पदार्थ
[१] (यः दुवोयुः) = जो हमें उपासनामय जीवनवाला बनाना चाहते हैं, (सः) = वे आप (तु) = निश्चय से (श्रुत्य) = श्रोतव्य स्तोत्रों को (श्रुधि) = सुनिये। (द्यौः न) = सूर्य के समान तेजस्वी आप (भूम) = बहुत (रायः अभि) = ऐश्वर्यों की ओर हमें ले चलनेवाले होइये। (अर्यः) = आप ही स्वामी हैं। (चकान:) = सूर्य के समान दीप्तिवाले व (चेकितानः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले आप (युगे युगे) = समय-समय पर अर्थात् सदा (यथा) = जैसे शवसा बल के साथ उसी प्रकार [तथा] (वयसा) उत्कृष्ट जीवन के साथ (नः असः) = हमारे पर कृपादृष्टिवाले होइये । हम आपकी कृपा से बल को व उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें । प्रभु हमें ऐश्वर्य को, बल को व उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराएँ । अगले सूक्त में 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा परीक्षक विद्यार्थ्यांच्या अभ्यासाची परीक्षा घेऊन विद्वान करतो तसे राजाने यथार्थ न्याय करून प्रजेला प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Listen to our prayers and adorations, Indra, lord ruler who love the prayers and adorations of devotees, who are resplendent as sun and boundless as space, master, protector and giver of wealth, honour and excellence, so that shining by wealth and power, growing in knowledge and awareness day by day, you be, as you have been, kind and gracious to us as ever before.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of how should a king be-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! as a lord of men, desiring the service of the people, with all his might and desiring their welfare, acquiring knowledge every year, with his life like the light, hears our news with his ears, so you should also hear the requests of all. May we, who are full of wealth be like the light-endowed with knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As an examiner makes students enlightened by testing their ability, so a king should please his subjects by dealing full justice.
Foot Notes
(दुवोयु:) परिचरणं कामयमानः । दुवस्यतिः-परिचरणकर्म (NG 3, 5)। = Desiring service. (द्यौः) प्रकाश: । द्यौः (दिवु धातोर्घुत्यर्थमादाम प्रकाश: इति व्याख्या | = Light. (युगेयुगे) प्रतिवर्षम् | = Every year.
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