Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 38 के मन्त्र
1 2 3 4 5
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दू॒राच्चि॒दा व॑सतो अस्य॒ कर्णा॒ घोषा॒दिन्द्र॑स्य तन्यति ब्रुवा॒णः। एयमे॑नं दे॒वहू॑तिर्ववृत्यान्म॒द्र्य१॒॑गिन्द्र॑मि॒यमृ॒च्यमा॑ना ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रात् । चि॒त् । आ । व॒स॒तः॒ । अ॒स्य॒ । कर्णा॑ । घोषा॑त् । इन्द्र॑स्य । त॒न्य॒ति॒ । ब्रु॒वा॒णः । आ । इ॒यम् । ए॒न॒म् । दे॒वऽहू॑तिः । व॒वृ॒त्या॒त् । म॒द्र्य॑क् । इन्द्र॑म् । इ॒यम् । ऋ॒च्यमा॑ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूराच्चिदा वसतो अस्य कर्णा घोषादिन्द्रस्य तन्यति ब्रुवाणः। एयमेनं देवहूतिर्ववृत्यान्मद्र्य१गिन्द्रमियमृच्यमाना ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरात्। चित्। आ। वसतः। अस्य। कर्णा। घोषात्। इन्द्रस्य। तन्यति। ब्रुवाणः। आ। इयम्। एनम्। देवऽहूतिः। ववृत्यात्। मद्र्यक्। इन्द्रम्। इयम्। ऋच्यमाना ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं गृहीत्वा सेवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्यास्येन्द्रस्य दूराच्चिद्वसतः कर्णा घोषाद्य आतन्यति या देवहूतिरियमेनमिन्द्रमाऽऽववृत्यादियमृच्यमाना यश्च मद्र्यग् ब्रुवाणस्तं ववृत्यात् तं ताञ्च यूयं सेवध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (दूरात्) (चित्) अपि (आ) समन्तात् (वसतः) निवसतः (अस्य) (कर्णा) श्रोत्रे (घोषात्) सुशिक्षिताया वाचः (इन्द्रस्य) राज्ञः (तन्यति) शब्दायते (ब्रुवाणः) उपदिशन् (आ) (इयम्) वाक् (एनम्) विद्वांसम् (देवहूतिः) देवैर्विद्वद्भिः प्रशंसिता (ववृत्यात्) वर्त्तयेत् (मद्र्यक्) मत्सदृशः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (इयम्) (ऋच्यमाना) स्तूयमाना ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यस्यात्मा श्रोत्रद्वारा विद्यातृप्तो भवेद्यं सर्वा विद्यायुक्ता वाक् प्राप्नुयात् तमेव संसेव्य पूर्णां विद्यां प्राप्नुत ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या ग्रहण करके सेवा करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस (अस्य) इस (इन्द्रस्य) राजा के (दूरात्) दूर से (चित्) भी (वसतः) निवास करते हुए के (कर्णा) दोनों कान (घोषात्) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी से जो (आ, तन्यति) अच्छे प्रकार शब्दित करता है और जो (देवहूतिः) विद्वानों से प्रशंसा की गई (इयम्) यह वाणी (एनम्) इस (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्य से युक्त विद्वान् को (आ) चारों ओर से (ववृत्यात्) वर्त्तित करे और (इयम्) यह (ऋच्यमाना) स्तुति की गई और जो (मद्र्यक्) मुझ सरीका (ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ उसको वर्त्ते, उसकी आप लोग सेवा करो ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसका आत्मा श्रोत्रों के द्वारा विद्या से तृप्त होवे और जिसको सम्पूर्ण विद्या से युक्त वाणी प्राप्त होवे, उसी का उत्तम प्रकार सेवन करके पूर्ण विद्या को प्राप्त हूजिये ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वान्, ज्ञानोपदेष्टा का ज्ञानप्रसार ।

    भावार्थ

    ( दूरात् चित् ) दूर देश से ( आ ) आकर ( वसतः ) शिष्य रूप से रहने वाले ( अस्य ) इस उपस्थित शिष्य जन के ( कर्णा) दोनों कानों को ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के ( घोषात् ) वेद से ( ब्रुवोण: ) ज्ञान का उपदेश करता हुआ विद्वान् (तन्यति ) अधिक विस्तृत करे, उसको अधिक ज्ञानवान् बनावे । ( इयम् देव-हूतिः ) यह विद्वान् पुरुष का विद्यादान वा देव अर्थात् विद्या की कामना करने वाले शिष्य जन की प्रार्थना ( इन्द्रम् ) उस विद्यादाता के आचार्य के प्रति (ऋच्यमाना ) स्तुति करती हुई ( मद्रयक् ) मुझ शिष्य के प्रति ( एनम् आववृत्यात् ) उस गुरु को आवर्त्तन करे, मेरे प्रति उसका ध्यान और स्नेह आकर्षण करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २, ३, ५, निचृत् त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तुति व प्रभु प्रियता

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (कर्णा) = कान (दूरात् चित्) = दूर से दूर देश में भी (आवसतः) = सर्वत्र निवास करते हैं। प्रभु की श्रवणशक्ति सर्वत्र विद्यमान है। (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (घोषात्) = घोषणीय स्तोत्र के हेतु से (ब्रुवाणः) = स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ यह स्तोता (तन्यति) = स्तुति शब्दों का विस्तार करता है । 'प्रभु इसके इन स्तुति शब्दों को न सुनें' ऐसी बात नहीं है। [२] (इयम्) = यह (देवहूतिः) = उस देव की पुकार (एनम्) = इस प्रभु को (आववृत्यात्) = आवृत्त करे। हमारी ओर अभिमुख करनेवाली हो । (इयम्) = यह स्तुति (ऋच्यमाना) = स्वयं प्रेरित होती हुई (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को मद् (द्र्यक्) = मदभिमुख करनेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। स्तवन से पवित्र जीवनवाले होते हुए प्रभु के प्रिय बनें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याचा आत्मा श्रोत्राद्वारे विद्येने तृप्त होतो व ज्याला संपूर्ण विद्येने युक्त वाणी प्राप्त होते त्याचेच उत्तम प्रकारे ग्रहण करून पूर्ण विद्या प्राप्त करा. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The ears of this lord Indra receive the voice of the speaker even from far off wherever he be, and from that voice, speaking in response, he raises it to the roar of thunder. May this voice of mine in honour of divinity, reaching and celebrating the lord of glory, come back to me, complete the circuit and bless me as voice divine.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Taking what should men serve-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! serve that good king, who even when living at a distance hears the call made with cultured speech, whom this appeal admired of highly learned persons moves, as he is the possessor of great wealth and this much praised speech moves a man like me who preaches truth. You should serve that enlightened and sympathetic king and those good scholars who appeal to him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should acquire full knowledge by serving well, that scholar whose soul is perfectly satisfied with hearing the words of wisdom from the Vedas and who is well-versed in all sciences.

    Foot Notes

    (घोषात् ) सुशिक्षिताया वाचः । घोष इति वाङ्नाम (NG 1, 11)। = From well-trained or cultured speech. (तन्यति) शब्दायते । तनु-विस्तारे ( तना.) अत्र प्रचार द्वारा विस्तार | = Preaches. (ऋच्यमाना) स्तूयमाना = Being praised.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top