ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अस्य॑ पिब॒ यस्य॑ जज्ञा॒न इ॑न्द्र॒ मदा॑य॒ क्रत्वे॒ अपि॑बो विरप्शिन्। तमु॑ ते॒ गावो॒ नर॒ आपो॒ अद्रि॒रिन्दुं॒ सम॑ह्यन्पी॒तये॒ सम॑स्मै ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअस्य॑ । पि॒ब॒ । यस्य॑ । ज॒ज्ञ॒नः । न्द्र॒ । मदा॑य । क्रत्वे॑ । अपि॑बः । वि॒ऽर॒प्शि॒न् । तम् । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । गावः॑ । नरः॑ । आपः॑ । अद्रिः॑ । इन्दु॑म् । सम् । अ॒ह्य॒न् । पी॒तये॑ । सम् । अ॒स्मै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य पिब यस्य जज्ञान इन्द्र मदाय क्रत्वे अपिबो विरप्शिन्। तमु ते गावो नर आपो अद्रिरिन्दुं समह्यन्पीतये समस्मै ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। पिब। यस्य। जज्ञनः। इन्द्र। मदाय। क्रत्वे। अपिबः। विऽरप्शिन्। तम्। ऊँ इति। ते। गावः। नरः। आपः। अद्रिः। इन्दुम्। सम्। अह्यन्। पीतये। सम्। अस्मै ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ नरैः किं भोक्तव्यं किं च पेयमित्याह ॥
अन्वयः
हे विरप्शिन्निन्द्र ! यस्यास्य मदाय क्रत्वे रसमपिबस्तस्य रसं त्वं पुनर्जज्ञानः पिब। यस्य ते गावो नर आपोऽद्रिरिन्दुं तमु प्राप्नुवन्ति, अस्मै पीतये समह्यन्त्सँस्त्वं सम्पिब ॥२॥
पदार्थः
(अस्य) (पिब) (यस्य) (जज्ञानः) जायमानः (इन्द्र) राजन् (मदाय) आनन्दप्रदाय (क्रत्वे) प्रज्ञानाय (अपिबः) (विरप्शिन्) महान् (तम्) (उ) (ते) तव (गावः) किरणा इव (नरः) नेतारः (आपः) जलानि (अद्रिः) मेघः (इन्दुम्) जलम् (सम्) (अह्यन्) व्याप्नुवन् (पीतये) पानाय (सम्) (अस्मै) ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! येन भुक्तेन पीतेन बुद्धिबले वर्धेयातां तं भुङ्क्ष्व पिब भोजय पायय च तस्य पानं मा कुर्या न कारयेर्येन बुद्धिभ्रंशः स्यात् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्यों को क्या खाना और क्या पीना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (विरप्शिन्) बड़े गुण से विशिष्ट (इन्द्र) राजन् ! (यस्य) जिस (अस्य) इसके (मदाय) आनन्द देनेवाले (क्रत्वे) प्रज्ञान के लिये रस को (अपिबः) पान किया उस रस को आप फिर (जज्ञानः) प्रसिद्ध होते हुए (पिब) पान करिये और जिन (ते) आपके (गावः) किरणों के सदृश (नरः) मनुष्य और (आपः) जल और (अद्रिः) मेघ (इन्दुम्) जल को जैसे वैसे (तम्, उ) उसको ही प्राप्त होते हैं और (अस्मै) इस (पीतये) पान के लिये (सम्, अह्यन्) अच्छे प्रकार व्याप्त होते हुए आप (सम्) उत्तम प्रकार पान करिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जिस भोजन और पान से बुद्धि और बल बढ़े, उसका भोजन और उसका पान करिए और उसका भोजन और पान कराइये और उसका पान न करिये और न कराइये, जिससे बुद्धिभ्रंश होवे ॥२॥
विषय
राजा के सन्मार्ग पर चलाने का विद्वानों का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (विरप्शिन ) महान् ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( जज्ञान: ) प्रकट या प्रसिद्ध होता हुआ तू ( मदाय ) हर्षित और तृप्त पूर्ण होने के लिये और ( क्रत्वे ) अपने कर्म सामर्थ्य को बढ़ाने के लिये ( यस्य अपिबः ) जिस ऐश्वर्य का तू उपभोग और पालन करता है ( अस्य पिब ) बाद में भी तू उसी राष्ट्र के ऐश्वर्य का उपभोग और पालन करता रह । ( अस्यै ते ) इस तेरी वृद्धि के लिये ही ( गावः ) गौएं, वाणियें और भूमि ( नरः ) उत्तम नायक, ( आपः ) राष्ट्र में जल, मेघ, कूप, नदी, तडाग आदि, तथा आप्त प्रजाजन, ( अद्रि: ) मेघ, पर्वत तथा शस्त्रबल सब ! ( तम् इन्दु ) उस ऐश्वर्य को ( पीतये ) पालन और ( उपभोग करने के लिये ही । ( सम् अह्यन् ) एकत्र प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मदाय-क्रत्वे
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्य पिब) = इस सोम का पान [रक्षण] करिये । हे (विरप्शिन्) = महान् प्रभो ! (यस्य) = जिस सोम का आप (जज्ञान:) = प्रादुर्भूत होते हुए ही (अपिब:) = पान करते हैं और (मदाय) = उल्लास के लिये तथा (क्रत्वे) = शक्ति व प्रज्ञान के लिये होते हैं। प्रभु का हृदयों में प्रकाश होते ही सोमरक्षण का सम्भव होता है यह सुरक्षित सोम 'उल्लास, शक्ति व प्रज्ञान' का साधन बनता है। [२] (तं इन्दुं उ) = उस सोम को निश्चय से ते हे प्रभो ! आपकी (गाव:) = ये गौएँगोदुग्ध (नरः) = उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले मनुष्य, (आपः) = जल तथा (अद्रिः) = [adore] उपासना (अस्मै पीतये) = इस उपासक के रक्षण के लिये (संसं अह्यन्) = सम्यक् प्राप्त कराते हैं। गोदुग्ध से उत्पन्न सोम शरीर में संरक्षणीय होता है। उत्तम माता, पिता व आचार्यरूप नर इस सोमरक्षण वृत्ति का विकास करते हैं। जल तो शरीर में रेतः कणों के रूप में रहते ही हैं, इनके द्वारा अंगविशेषों का स्नान सोमरक्षण में बड़ा सहायक होता है। उपासना तो वासनाओं से बचाकर सोमरक्षण करती ही है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का ध्यान करते हुए हम वासनाओं से बचकर सोम का रक्षण करें। रक्षित सोम उल्लास शक्ति और प्रज्ञान को देनेवाला है। इस सोमरक्षण के लिये गोदुग्ध का प्रयोग, शीतल जलों से स्नान भी सहायक होता है। जीवन के आरम्भ में उत्तम माता, पिता व आचार्यों का मिलना भी अत्यन्त सहायक बनता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! ज्या खानपानामुळे बुद्धी व बल वाढते ते खानपान कर व ज्यामुळे बुद्धिभ्रंश होईल असे खानपान करू नकोस. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty ruler, drink of this nectar sweet of soma which you tasted at your birth and which you drank for passion and exhilaration while you arose for great action in the field of knowledge and governance, the same soma which the cows and rays of the sun, men and leaders, waters, clouds and mountains have collected and seasoned for this drink of yours.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men eat and drink - is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O great king ! drink this juice for your rapture and development of intellect. Being renowned, drink this Soma again. Like the cloud pervading water, let the men, like the rays of the sun and women of peaceful disposition, like the water take this juice. Being ready for this drinking of Soma (juice of the invigorating herbs) drink it well, at proper time.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! eat and drink those things and urge upon others to take them, which may increase intellect and strength, never drink yourself nor allow others to drink that which badly affects or impairs intellect.
Foot Notes
(विरप्शिन्) महान् । विरप्शीति महन्नाम (NG 3, 3)। = Great. (गाव:) किरणा इव । गाय इति रश्मिनाम (NG 1, 5)। = Like the rays of the sun. (इन्दुम् ) जलम् । इन्दुरिति उदकनाम (NG 1, 12)। = Water. (अह्यान्) व्याप्नुवन् । अह-व्याप्तौ ( स्वा० ) |= Pervading.
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