ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
ऋषि: - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यदि॑न्द्र दि॒वि पार्ये॒ यदृध॒ग्यद्वा॒ स्वे सद॑ने॒ यत्र॒ वासि॑। अतो॑ नो य॒ज्ञमव॑से नि॒युत्वा॑न्त्स॒जोषाः॑ पाहि गिर्वणो म॒रुद्भिः॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । दि॒वि । पार्ये॑ । यत् । ऋध॑क् । यत् । वा॒ । स्वे । सद॑ने । यत्र॑ । वा॒ । असि॑ । अतः॑ । नः॒ । य॒ज्ञम् । अव॑से । नि॒युत्वा॑न् । स॒ऽजोषाः॑ । पा॒हि॒ । गि॒र्व॒णः॒ । म॒रुत्ऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र दिवि पार्ये यदृधग्यद्वा स्वे सदने यत्र वासि। अतो नो यज्ञमवसे नियुत्वान्त्सजोषाः पाहि गिर्वणो मरुद्भिः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठयत्। इन्द्र। दिवि। पार्ये। यत्। ऋधक्। यत्। वा। स्वे। सदने। यत्र। वा। असि। अतः। नः। यज्ञम्। अवसे। नियुत्वान्। सऽजोषाः। पाहि। गिर्वणः। मरुत्ऽभिः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे गिर्वण इन्द्र ! यत्पार्ये दिवि यदृधग्यद्वा स्वे सदने यत्र वा त्वमसि। अतो नोऽवसे नियुत्वानिव सजोषाः सन्मरुद्भिः सह यज्ञं पाहि ॥५॥
पदार्थः
(यत्) (इन्द्र) विद्वन् (दिवि) कमनीये (पार्ये) पालयितव्ये राज्ये (यत्) (ऋधक्) यथार्थम् (यत्) (वा) (स्वे) स्वकीये (सदने) स्थाने (यत्र) (वा) (असि) (अतः) (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) सत्कर्त्तव्यं न्यायव्यवहारम् (अवसे) रक्षणाद्याय (नियुत्वान्) नियन्तेश्वर इव। नियुत्वानितीश्वरनाम। (निघं०२.२१) (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (पाहि) (गिर्वणः) सुशिक्षवाचा स्तुत (मरुद्भिः) उत्तमैर्मनुष्यैः ॥५॥
भावार्थः
हे राजंस्त्वया सदैव राष्ट्रसंरक्षणं सत्यप्रचारः स्वात्मवत्सर्वेषां ज्ञानमीश्वरवत्पक्षपातं विहाय महाशयैर्धामिकैः सभ्यैः सह प्रजापालनं सततं क्रियतामिति ॥५॥ अत्रेन्द्रसोमौषधिराजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्यपूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चत्वारिंशत्तमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (गिर्वणः) उत्तम शिक्षित वाणी से स्तुति किये गये (इन्द्र) विद्वन् ! (यत्) जो (पार्ये) पालन करने योग्य राज्य में (दिवि) कामना करने योग्य में (यत्) जो (ऋधक्) यथार्थ और (यत्) जो (वा) वा (स्वे) अपने (सदने) स्थान में (यत्र) जहाँ (वा) वा आप (असि) हो (अतः) इस कारण से (नः) हम लोगों के (अवसे) रक्षण आदि के लिये (नियुत्वान्) नियत करनेवाले ईश्वर के सदृश (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले हुए (मरुद्भिः) उत्तम मनुष्यों के साथ (यज्ञम्) सत्कार करने योग्य न्याय व्यवहार की (पाहि) रक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थ
हे राजन् ! आपको चाहिये कि सदा ही राज्य का उत्तम प्रकार रक्षण, सत्य का प्रचार और अपने सदृश सब का ज्ञान और ईश्वर के सदृश पक्षपात का त्याग करके महाशय धार्म्मिक श्रेष्ठ जनों के साथ प्रजा का पालन निरन्तर करें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सोम, ओषधि, राजा और प्रजा के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चालीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू सदैव राज्याचे उत्तम प्रकारे रक्षण व सत्याचा प्रचार कर. आपल्याप्रमाणेच सर्वांचे ज्ञान व ईश्वराप्रमाणे भेदभावाचा त्याग करून श्रेष्ठ लोकांसमवेत सतत प्रजेचे पालन कर. ॥ ५ ॥
English (1)
Meaning
Indra, enlightened ruler, admired and adored in refined words of homage and reverence, whether you are in a far off land of your choice you love to promote in a special direction or in your own place of residence, or wherever you happen to be, from there, O loving and friendly leader dedicated to the yajnic order of governance for its defence and protection, develop and promote the order by the most vibrant force of daring commandos.
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