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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    प्रत्य॑स्मै॒ पिपीष॑ते॒ विश्वा॑नि वि॒दुषे॑ भर। अ॒रं॒ग॒माय॒ जग्म॒येऽप॑श्चाद्दध्वने॒ नरे॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । अ॒स्मै॒ । पिपी॑षते । विश्वा॑नि । वि॒दुषे॑ । भ॒र॒ । अ॒र॒म्ऽग॒माय॑ । जग्म॑ये । अप॑श्चात्ऽदघ्वने । नरे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यस्मै पिपीषते विश्वानि विदुषे भर। अरंगमाय जग्मयेऽपश्चाद्दध्वने नरे ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति। अस्मै। पिपीषते। विश्वानि। विदुषे। भर। अरम्ऽगमाय। जग्मये। अपश्चात्ऽदध्वने। नरे ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् राजंस्त्वं जग्मयेऽपश्चाद्दध्वनेऽरङ्गमाय पिपीषते विदुषेऽस्मै नरे विश्वानि भराऽयमपि तुभ्यमेतानि प्रति भरतु ॥१॥

    पदार्थः

    (प्रति) (अस्मै) (पिपीषते) पातुमिच्छवे (विश्वानि) सर्वाण्युत्तमानि वस्तूनि (विदुषे) आप्ताय विपश्चिते (भर) धर (अरङ्गमाय) यो विद्यायां अरं पारं गच्छति तस्मै (जग्मये) विज्ञानाधिक्याय (अपश्चाद्दध्वने) उत्तमेषु व्यवहारेष्वग्रगामिने (नरे) नायकाय ॥१॥

    भावार्थः

    यो राजा विद्वदर्थे सर्वं धनं सामर्थ्यं वा धरति ये च विद्वांसो राजादिहिताय प्रयतन्ते ते सर्वदोन्नता जायन्ते ॥१॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब चार ऋचावाले बयालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा और प्रजाजन परस्पर कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप (जग्मये) विज्ञान की अधिकता के लिये (अपश्चाद्दध्वने) उत्तम व्यवहारों में आगे चलने तथा (अरङ्गमाय) विद्या के पार जाने और (पिपीषते) पान करने की इच्छा करनेवाले (विदुषे) यथार्थवक्ता विद्वान् के लिये और (अस्मै) इस (नरे) अग्रणी मनुष्य के लिये (विश्वानि) सम्पूर्ण उत्तम वस्तुओं को (भर) धारण करिये और यह भी आपके लिये इनको (प्रति) धारण करे ॥१॥

    भावार्थ

    जो राजा विद्वानों के लिये सम्पूर्ण धन वा सामर्थ्य को धारण करता है और जो विद्वान् राजा आदि के हित के लिये प्रयत्न करते हैं, वे सर्वदा उन्नत होते हैं ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, राजा, विद्वान व प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जो राजा विद्वानासाठी संपूर्ण धन किंवा सामर्थ्य ग्रहण करतो व जे विद्वान राजाच्या हितासाठी प्रयत्न करतात ते सदैव उन्नत होतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, ruler and patron of knowledge and culture, provide all facilities of the world for this bold and courageous leading scholar thirsting for knowledge and constantly going forward to reach the expansive bounds of his subject, never tarrying, never looking back.

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