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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒स्माअ॑स्मा॒ इदन्ध॒सोऽध्व॑र्यो॒ प्र भ॑रा सु॒तम्। कु॒वित्स॑मस्य॒ जेन्य॑स्य॒ शर्ध॑तो॒ऽभिश॑स्तेरव॒स्पर॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअस्मैऽअ॑स्मै । इत् । अन्ध॑सः । अध्व॑र्यो॒ इति॑ । प्र । भ॒र॒ । सु॒तम् । कु॒वित् । स॒म॒स्य॒ । जेन्य॑स्य । शर्ध॑तः । अ॒भिऽश॑स्तेः । अ॒व॒ऽस्पर॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माअस्मा इदन्धसोऽध्वर्यो प्र भरा सुतम्। कुवित्समस्य जेन्यस्य शर्धतोऽभिशस्तेरवस्परत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मैऽअस्मै। इत्। अन्धसः। अध्वर्यो इति। प्र। भर। सुतम्। कुवित्। समस्य। जेन्यस्य। शर्धतः। अभिऽशस्तेः। अवऽस्परत् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अध्वर्यो ! त्वमस्माअस्मा अन्धसः समस्य जेन्यस्य शर्धतोऽभिशस्तेः कुवित्सुतं प्र भरा तेनेदस्मान् भवानवस्परत् ॥४॥
पदार्थः
(अस्माअस्मै) (इत्) एव (अन्धसः) अन्नादेः (अध्वर्यो) अहिंसक (प्र) (भरा) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सुतम्) निष्पादितम् (कुवित्) महत् (समस्य) तुल्यस्य (जेन्यस्य) जेतुं योग्यस्य (शर्धतः) बलस्य (अभिशस्तेः) अभितः प्रशंसितस्य (अवस्परत्) पालयति ॥४॥
भावार्थः
ये विद्वांसः सर्वार्थं सर्वानुत्तमान् पदार्थान्त्समर्पयन्ति यावत्सामर्थ्यं धरन्ति तावत्सर्वं परेषां रक्षणाय कुर्वन्ति ते सर्वदा भाग्यशालिनो गणनीया इति ॥४॥ अत्रेन्द्रराजविद्वत्प्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विचत्वारिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अध्वर्य्यो) नहीं हिंसा करनेवाले आप ! (अस्माअस्मै) इस इसके लिये (अन्धसः) अन्न आदि के (समस्य) तुल्य (जेन्यस्य) जीतने योग्य (शर्धतः) बल के और (अमिशस्तेः) चारों ओर से प्रशंसित (कुवित्) महान् (सुतम्) उत्पन्न किये गये को (प्र, भरा) धारण करिये इससे (इत्) ही हम लोगों का आप (अवस्परत्) पालन करते हैं ॥४॥
भावार्थ
जो विद्वान् सब के लिये सम्पूर्ण उत्तम पदार्थों को समर्पित करते हैं और जितने सामर्थ्य का धारण करते हैं, उतना सब औरों के रक्षण के लिये करते हैं, उन सब को भाग्यशाली गिनना चाहिये ॥४॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, विद्वान् और प्रजा के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बयालीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रजा जन के कर्त्तव्य। राजा प्रजा के परस्पर के सम्बन्ध।
भावार्थ
है (अध्वर्यो ) प्रजाजन की हिंसा न करने वाले प्रजापालक जन ! तू ( अस्मे अस्मे ) इस इस प्रजाजन के लिये ( अन्धसः सुतम् ) अन्न से उत्पन्न ऐश्वर्य को ( प्र भर ) अच्छी प्रकार धारण कर और (समस्य ) समस्त ( जेन्यस्य ) विजय करने योग्य ( शर्धतः ) बलवान् शत्रु के (अभिशस्तेः) शस्त्र प्रहार से ( कुवित् ) बहुत बार, बारबार भी ( अवस्परत् ) हमारी रक्षा कर। अथवा, हे (अध्वर्यो ) अहिंसक राजन् ! तू ( अस्मे अस्मे सुतम् प्र भर ) उस २ नाना प्रजाजन के लिये उत्तम ऐश्वर्य अच्छी प्रकार प्राप्त कर । और ( समस्य जेन्यस्म शर्धतः ) समस्त विजय करने वाले ( अभिशस्ते: ) प्रशंसनीय बल को भी ( अन्धसः ) अन्न की ( कुवित् ) बहुत प्रकारों से ( अवस्परत् ) पालना कर । इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १ स्वराडुष्णिक् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ अनुष्टुप् । ४ भुरिगनुष्टुप् ।। चतुऋर्चं सूक्तम् ॥ ।
विषय
शत्रु हिंसन से रक्षण
पदार्थ
[१] हे (अध्वर्यो) = यज्ञशील पुरुष, अध्वरों में अपने को जोड़नेवाले पुरुष (अस्मै अस्मै इत्) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिये और इस प्रभु की प्राप्ति के लिये ही (अन्धसः) = सोमरूप अन्न के (सुतम्) = उत्पादन को (प्रभर) = अपने अन्दर धारण कर। यह सुरक्षित सोम ही तुझे प्रभु को प्राप्त करायेगा । [२] ये प्रभु ही तुझे (समस्य) = सब जेन्यस्य जीतने योग्य (शर्धतः) = उत्सहमान आक्रामण करते हुए शत्रु के (अभिशस्ते:) = हिंसनों से (कुवित्) = खूब ही (अवस्परत्) = पालित करेंगे, बचाएँगे। प्रभु ही वस्तुतः उपासक को काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के आक्रमण से बचाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये हम शरीर में सोमरूप अन्न का सम्पादन करें। ये प्रभु हमें शत्रुओं के हिंसनों से बचायेंगे । अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान सर्वांना संपूर्ण उत्तम पदार्थ देतात व त्यांच्यात जितके सामर्थ्य असते ते सर्वांच्या रक्षणासाठी खर्च करतात त्यांची भाग्यवान लोकांत गणना होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O high priest of the yajnic order, bear and bring an equable share of bright and inspiring food and maintenance for every one. And may the great and wise one, the lord, preserve, protect, promote and defend the rightful constancy of the admirable force and power of the order against violence and calumny.
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