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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 17
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यो गृ॑ण॒तामिदासि॑था॒पिरू॒ती शि॒वः सखा॑। स त्वं न॑ इन्द्र मृळय ॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । गृ॒ण॒ताम् । इत् । आसि॑थ । आ॒पिः । ऊ॒ती । शि॒वः । सखा॑ । सः । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो गृणतामिदासिथापिरूती शिवः सखा। स त्वं न इन्द्र मृळय ॥१७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। गृणताम्। इत्। आसिथ। आपिः। ऊती। शिवः। सखा। सः। त्वम्। नः। इन्द्र। मृळय ॥१७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 17
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृग्भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र राजन् ! यो गृणतां न आपिश्शिवः सखाऽऽसिथ स इत्त्वमूती नो मृळय ॥१७॥

    पदार्थः

    (यः) (गृणताम्) प्रशंसकानाम् (इत्) एव (आसिथ) भवसि (आपिः) शुभगुणव्यापकः (ऊती) ऊत्या रक्षणादिक्रियया (शिवः) मङ्गलकारी (सखा) सुहृद् (सः) (त्वम्) (नः) अस्मानस्माकं वा (इन्द्र) दुःखविदारक (मृळय) सुखय ॥१७॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यदि त्वमजातशत्रुर्विश्वमित्रः सर्वस्य मङ्गलकारी प्रजासु भवेस्तर्हि सद्यो धर्मार्थकाममोक्षान् साध्नुयाः ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुःखों के नाश करनेवाले राजन् ! (यः) जो (गृणताम्) प्रशंसा करनेवाले (नः) हम लोगों के (आपिः) श्रेष्ठ गुणों से व्यापक (शिवः) मङ्गलकारी (सखा) मित्र (आसिथ) होते हो (सः इत्) वही (त्वम्) आप (ऊती) रक्षण आदि क्रिया से हम लोगों को (मृळय) सुखी करो ॥१७॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो आप शत्रुरहित और संसार के मित्र, सब के मङ्गल करनेवाले प्रजाओं में हूजिये तो शीघ्र धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करिये ॥१७॥

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    विषय

    अजेय ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यः ) जो तू ( गृणताम् इत् ) अन्यों का उपदेश करने वाले विद्वानों तथा स्तुतिशील पुरुषों का (आपिः इत् ) वास्तव बन्धु ( आसिथ ) हो और ( ऊती ) उत्तम रक्षा और ज्ञान से ( शिवः ) कल्याणकारक ( सखा ) परम मित्र हो ( सः ) वह (त्वं) आप ( नः मृडय ) हमें सुखी करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शिवः सखा

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यः) = जो (त्वम्) = आप (गृणताम्) = स्तुतिशील पुरुषों के (इत्) = निश्चय से (आपिः आसिथ) = मित्र हैं, वे आप ही (ऊती) = रक्षणों के द्वारा (शिवः) = कल्याणकर (सखा) = मित्र होते हैं । आप ही इन स्तोताओं को अन्तः व बाह्य शत्रुओं से बचाकर कल्याण प्राप्त कराते हैं। [२] (सः) = वे आप (नः) = हमें (मृडय) = सुखी करिये । हम भी आपके स्तवन में प्रवृत्त होकर अशुभों से बचकर शुभ मार्ग पर चलते हुए कल्याण के भागी हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही स्तोताओं के शिव सखा हैं। हम भी प्रभु स्तवन करते हुए कल्याण को प्राप्त करें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! तू अजातशत्रू, विश्वाचा मित्र व प्रजेचे मंगल करणारा हो आणि तत्काळ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध कर. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, potent lord of action, destroyer of suffering and giver of bliss, who are good and kind, friendly and one with the celebrants as our kith and kin, all protective under your umbrella, such as you are, we pray, be kind and gracious to us and lead us to the peace and happiness of the good life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king be-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (king) ! you, who have been and are friend of the admirers, endowed with good virtues, make us happy with your protective powers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! if you are devoid of foes, friend of all and auspicious to all your subjects, you can easily accomplish Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation).

    Foot Notes

    (गुणताम्) प्रशंसकानाम् । गृ-शब्दे (क्र०) = Of the admirers. (आपिः) शुभगुणव्यापकः । आप्लु- व्याप्तौ ( स्वा.)। = Pervading in good virtues.

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